यह संयोग ही रहा कि देश के अनेक जगहों में जाना
हुआ;
मगर अपने ही झारखंड के इस सुरम्य वादियों में जा नहीं पाई। शायद
मन में यह भाव था कि यह तो अपने घर के पास ही है। जब चाहे जाया जा सकता है। हुआ
भी ऐसा ही। आनन-फानन में नेतरहाट जाने की योजना बनी और 2 घंटे के अंदर परिवार के
कुछ लोगों के साथ निकल पड़ी।
रांची से नेतरहाट की दूरी करीब 155 किलोमीटर
है। यह क्षेत्र लातेहार जिले में पड़ता है। कुड़ू के बाद लोहरदगा, फिर घाघरा से दाहिनी ओर मुड़ना पड़ा नेतरहाट के लिए। रास्ता अच्छा और
जाना पहचाना था, सो आराम से चल दिए। घर से निकलते ही दोपहर
हो गई थी। समय बचाने के लिए खाना घर ही से पैक कर निकले थे। लोहरदगा के पहले एक
जगह रास्ते में रुककर हमलोगों ने भोजन किया और आगे निकले।
सच कहूँ..तो अपना बचपन याद आ गया। आम चुनने के
चक्कर में कभी गर्मी का अहसास हुआ ही नहीं। सारी दोपहर आम के बगीचे में बीतता था।
पूरे रास्ते इन पेड़ों और बच्चों को देखकर लगा कि वाकई फलदार पेड़ लगाना
परोपकार का कार्य है। मेरे जैसा कोई भी पथिक अपनी इच्छा पूरी कर सकता है अपने ही
हाथों आम तोड़कर खाने की।
खैर ..इन्हीं नज़ारों के बीच झारखंड के सुंदर
गाँवों को पार करते हम पहुँचे बनारी गाँव। इसके बाद सड़क ऊपर की तरफ जाने लगी।
गोल-गोल चक्कर खाती सड़कें। ऐसा लगा कि हम किसी पहाड़ पर चढ़ रहे। पिछले वर्ष
डलहौजी गए, तो ऐसा ही लगा था बिल्कुल। नेतरहाट
समुद्रतल से 3622 फीट की ऊँचाई पर है। हम
जरा आगे बढ़े तो सड़क किनारे बंदर नजर आए, जैसा कि हर
पहाड़ी स्थल पर दिखता है।
चक्कर खाते ऊपर की ओर जा रहे थे। सड़क के दोनों
तरफ बाँस का जंगल था। हमने पहली बार बाँस का जंगल देखा। अब जाकर नेतरहाट के नाम का
अर्थ भी समझ आया। नेतरहाट नाम इस लिए पड़ा कि नेतुर का अर्थ (बाँस) होता है और
हातु यानी (हाट)। इन दोनों को मिलाकर बना नेतरहाट। बहरहाल, हम बाँस के जंगल के बीच से गुजर रहे थे। बीच-बीच में कचनार के पेड़ भी नज़र
आ रहे थे। कचनार के फूल बेहद खूबसूरत होते हैं। यहाँ आदिवासी जनजीवन में कचनार के
कोमल पत्तियों का साग खाया जाता है। बहुत स्वादिष्ट होता है यह साग। और फूलों
की सुंदरता से तो सभी परिचित ही हैं।
हम जंगल की सुंदरता निहारते हुए आगे चलते गए।
मन में डर भी था कि कहीं सूर्यास्त रास्ते में ही न हो जाए। बीच जंगल में जाने
की इच्छा होते हुए भी समय का ख्याल रखते हुए हम नहीं रुके। अब जंगल का दृश्य
बदलने लगा था। बाँस का जंगल साल के ऊँचे लंबे पेड़ और चीड़ के दरख्तों के जंगल
में बदल चुका था। हम खुशी और आश्चर्य से चीख ही पड़े....हमारे झारखंड में चीड़ के
जंगल..हमें आजतक पता ही नहीं। दिये तले
अँधेरा इसीलिए कहा जाता है। यहाँ ऊँचे यूकोलिप्टस( नीलगिरी) के पेड़ भी
हमारा स्वागत कर रहे थे।
हम मुग्ध भाव से आसपास देखते आगे बढ़ चले। शाम
5 बजे हम नेतरहाट में थे। पूछने पर पता लगा कि सनसेट प्वांट यहाँ से करीब दस किलोमीटर
की दूरी पर है। अब वक्त नहीं था कुछ देखने-सुनने का। हम सीधे पहुँचे सूर्य डूबने
का नज़ारा देखने। रास्ते में एक खूबसूरत बड़ा- सा तालाब दिखा, जो किसी झील की तरह लग रहा था।
जब हम सनसेट प्वांइट पहुँचे तो सूर्य अस्तचलगामी
था। एक बछड़ा अपनी माँ का दूध पी रहा था। अवि ने रुककर गौर से देखा। तस्वीर भी
ली। आगे बढ़े तो लोगों की भीड़भाड़ थी। सरकार ने सौंदर्यीकरण करा दिया है। बैठने
के लिए शेड की व्यवस्था है, तो ऊपर से नज़ारा देखने का
जगह भी। मतलब ऐसी जगह जहाँ शाम प्राकृतिक नज़ारे देखकर बिता सके।
जैसे ही बढ़े..सड़क पर भूरे रंग के फूल बिछे थे, जैसे हमारा स्वागत कर रहे हो। ऊपर नज़रें उठाकर देखा तो साल के पेड़ फूलों
से लदे थे। ऊपर नीले आकाश में आधा चाँद दमक रहा था। पश्चिम में आकाश पीला था। दो
तीन पहाड़ियाँ नजर आ रही थीं। मुझे डलहौजी की पहाड़ियाँ याद आईं। ऐसा ही खूबसूरत
लगता था वहाँ भी। नेतरहाट पठार के निकट की पहाड़ियाँ सात पाट कहलाती हैं। आँखों
को ऐसा आभास हुआ कि सातों पहाड़ दिख रहे हैं सूरज की पीली रौशनी में चमकते हुए।
पता चला, लड़की का नाम मैग्नोलिया था।
मैग्नोलिया एक अंग्रेज अधिकारी की बेटी थी। गाँव में एक चरवाहा रहता था। वह प्रतिदिन
अपने मवेशियों को लेकर जंगल में एक स्थान पर जाता, जहाँ से
खूबसूरत आसमान से देखते-देखते घाटियों में छुपता था सूरज। वह बहुत मधुर बाँसुरी
बजाता था। मैग्नोलिया को इसी आदिवासी
चरवाहे से प्यार हो गया। वह रोज चरवाहे की बाँसुरी सुनने के लिए वहाँ जाती।
जब अंग्रेज अधिकारी को इसका पता लगा, तो बहुत नाराज़ हुआ। उसने चरवाहे को समझाने की कोशिश की। जब नहीं माना,
तो उसने चरवाहे को मरवा दिया। मैग्नोलिया को जब इसका पता लगा,
तब विरह से व्याकुल होकर इसी स्थान पर आई और अपने घोड़े सहित
यहाँ से नीचे घाटी में कूदकर अपना जीवन समाप्त कर लिया। उसी की याद में बना है
यह सनसेट प्वांइट, जिसे नाम दिया गया ‘मैग्नोलिया प्वांइट’।
आज भी वह पत्थर मौजूद है, जिस पर बैठकर वो चरवाहा बाँसुरी
बजाया करता था। जाने कथा सच्ची है या गढ़ी हुई, मगर लोगों
को आकर्षित करती है।
अब लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। कुछ लोग
हमारी तरह कैमरा हाथ में पकड़े पश्चिम की ओर टकटकी बाँधे बैठे थे। धूप से
पत्तियाँ चमक रही थी। सखुआ के फूल जमीन पर थे और खुशबू हवाओं में। परिसर में एक
चाय की दुकान थी। वहाँ लोगों की भीड़ लगी हुई थी। गरमागरम पकौड़ियाँ निकल रही थी।
लोग चाय-पकौड़ी के साथ शाम का आनंद ले रहे थे। सूखे पेड़ के ठीक बगल में सूर्यास्त
का नजारा सबसे सुंदर लगेगा, इस अहसास के साथ मैं वहीं खड़ी
रही।
शाम का रंग बदलने लगा था। सूरज के आसपास नारंगी
रंग फैला था। एक के बाद एक पहाड़ दूर तक नज़र आ रहे थे। लोगों का ध्यान सब तरफ से
हटकर सूरज की ओर था। आसमान साफ था, सो हम आराम से
देख पा रहे थे कि कैसे सूरज के आसपास लालिमा बढ़ती जा रही है और गहरे होते आसमान
में सूरज बहुत खूबसूरत लगने लगा।
धीरे-धीरे सूरज डूब गया। अब हल्का उजाला ही
बाकी था। लोग वापस जाने लगे। पर अब हम
वहाँ आराम से बैठे थे। चाय के साथ आलू की पकौड़ी बनवाई; क्योंकि दुकान में प्याज खत्म
हो गई थी। आसपास एक दो घर थे। कुछ गाँववाले ही थे। पर्यटक सारे जा चुके थे।
आसमान में चाँद चमक रहा था। सखुआ के फूल चुनने
लगे हमलोग। वादियाँ और मनमोहक लगने लगीं। शांत वातावरण में ऐसा लगा, जैसे कोई बाँसुरी बजा रहा हो। जरूर वह चरवाहा मधुर बाँसुरी बजाता होगा,
जिसके आकर्षण में बंधकर मैग्नोलिया को प्यार हो गया होगा उससे।
अद्भुत है जगह..जहाँ एक प्रेम कहानी जिंदा है। वहाँ चरवाहे और मैग्नोलिया के
प्रेम की तस्वीरें उकेरी हुई हैं। उस घोड़े की भी प्रतिमा है, जिसके साथ वह लड़की कूद गई थी घाटियों में। एक प्रेम कहानी को मन में
गुनते हुए वहाँ से वापस आए।
वन विभाग के रेस्ट हाउस में ठहरना था हमे।
रास्ते में प्रसिद्ध नेतरहाट विद्यालय मिला। कुछ देर वहाँ रुककर देखा। कैंपस
के अंदर नहीं गए; क्योंकि शाम ढल गई थी। नेतरहाट विद्यालय की स्थापना 15 नवंबर 1954 में
हुई थी। 24 जुलाई 1953 को इस विद्यालय की स्थापना का निर्णय लिया गया था। इसका
श्रेय जाता है सर पियर्स को, जिनके प्रयास से एक ऐसे
आवासीय विद्यालय की स्थापना हुई, जिसके छात्रों ने
अनेकानेक क्षेत्रों में अपने नाम की कीर्ति फैलाई। भारतीय शिक्षा जगत में सर पियर्स
का अतुलनीय योगदान है। अंग्रेज होने पर भी उन्होंने भारत को अपनी
कर्मभूमि मान लिया था। नेतरहाट का चयन इसलिए किया गया ; क्योंकि
ग्रामीण परिवेश और वहाँ की जलवायु उत्तम थी।
दरअसल
इस तरह के आवासीय विद्यालय की माँग तत्कालीन बिहार के धनी वर्ग की थी, जो अपने बच्चों को सिंधिया, दून आदि दूर के स्कूलों
में भेजने के बजाय पास ही कोई वैसा स्कूल चाहते थे, जिसमें
वैसी सुविधाएँ हों। विद्यालय में शिक्षा
का माध्यम हिंदी है और नामांकन परीक्षा के आधार पर होता है। हालाँकि अब पहले सी
उज्ज्वल छवि नहीं, कई और स्कूलों का परीक्षाफल भी अच्छा
होने लगा है पर एक वक्त था जब इसी विद्यालय का डंका बजता था।
इस
सुरम्य स्थल को सामने लाने का श्रेय सर एडवर्ट गेट तत्कालीन लेफ्टिनेंट बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा को जाता है।
उन्हें यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता से प्रेम था। उन्होंने ही अपने आवास राजभवन
शैले हाउस का निर्माण के साथ-साथ अन्य
बुनियादी संरचनाएँ भी स्थापित की। शैले लकड़ी की एक भव्य इमारत है। नेतरहाट विद्यालय के प्रथम सत्र के छात्रों इसी इमारत में पढ़ना
शुरू किया था।
मगर यहाँ नेटवर्क की समस्या थी। न रिलाइंस का
फोन कार्य कर रहा था, न जियो न वोडाफोन। बस ऐयरटेल
का एक नंबर चालू था। दूसरी दिक्कत यह कि बहुत छोटी जगह है। खाने-पीने के सामान
मिलने में भी परेशानी होती है। स्थानीय बाजार साप्ताहिक है, इसलिए सब्जियों की भी आमद कम है। होटल भी कम ही हैं और ऐसे दुकान भी,
जहाँ से सामान लिया जा सके। हालाँकि कुछ घर ऐसे नजर आए हमें,
जिन्हें देखकर लगा कि उन लोगों ने अपने घर को गेस्ट हाउस में तब्दील
कर दिया है। यह देखकर वाकई बहुत दुख होता है कि इतनी खूबसूरत जगह को सरकार तरीके
से डेवलप करे, तो कितने लोग आएँगे यहाँ। नेतरहाट को यूँ ही 'छोटानागपुर की रानी' नहीं कहा जाता। वाकई बहुत
खूबसूरत वादियाँ हैं मगर उपेक्षा की शिकार।
हमारा खाना यहीं रेस्ट हाउस में बना। कुछ लोग
जगह की तलाश में आए वहाँ, मगर बिना बुकिंग के संभव नहीं
था ठहरना। खाने के बाद सब लोग एक बार फिर टहलने निकले। गर्मी कम थी। राँची का
मौसम तो अब बहुत बदल गया है। बिना एसी के काम नहीं चलता। मगर बाहर तो ठंडी हवा थी
और रात कमरे में एक पंखे से काम चल गया। हमें सूर्योदय के लिए सुबह उठना था ,
मगर सोने को कोई तैयार ही नहीं था। मुश्किल से दो-तीन घंटे की
नींद ले पाए। सुबह चार बजे सारे लोग उठकर तैयार।
सूर्योदय के लिए पता लगा कि राज्य पर्यटन विभाग
का होटल है प्रभात विहार होटल, वहीं जाना होगा। हम सब
तुरंत वहाँ के लिए निकले। पहुँचे तो पता लगा कि होटल और आसपास बन रहे बिल्ड़िग
के ऊपर चढ़कर लोग देखते हैं सूरज का निकलना। महसूस हुआ कि इससे कहीं बेहतर है
अपने रेस्ट हाउस के उस प्वाइंट से देखना जो खास इसके लिए बनाया गया है। वहाँ के
कर्मचारी ने कहा भी था कि यहाँ से बहुत अच्छा दिखता है, आप
देख सकते हैं।
अब वापस रेस्ट हाउस। उजाला फैलना शुरू ही हुआ
था। सूरज निकलने में देर थी। बच्चे आनंद लेने लगे। सामने घना जंगल। परतों में
पहाड़ दिख रहा था। आसपास चीड़ के पेड़ थे। गुलमोहर के फूल ज़मीन पर गिरे थे। बच्चे
चीड़ के फल जमा करने लगे तो कभी ट्री हाउस पर चढ़कर सूरज को आवाज लगाने लगे। पूरब
की तरफ पहाड़ों के ऊपर, चीड़ की पत्तियों के पीछे से
सूरज निकलने लगा। हल्की धुंध के पीछे से निकलता सूरज सबको रोमांचित कर रहा था।
वैसे भी शहरों में लोग कहाँ देख पाते हैं सूर्योदय। सूरज की पहली किरण का स्पर्श
कितना सुखकर हो सकता है..यह देर से बिस्तर छोड़ने वालों को क्या पता।
कुछ देर बात सूर्य की रश्मियाँ फैल गईं सब ओर।
हम भी बिखर गए अपनी-अपनी पसंद की जगह देखने के लिए। फोटोग्राफी के लिए सबसे अच्छा
वक्त होता है सुबह का।
मैं
कैमरा लिए निकल गई वहीं। देखा, दूर जंगल में लोग पानी की
बोतल थामे चले जा रहे है। अब लोटे का रिवाज खत्म हुआ न.....सरकार का नारा अभी हर
जगह स्वीकार्य नहीं। शायद वो ‘सोच नहीं सो शौचालय भी नहीं’। नजरें घुमाकर देखा..
फूलों का रंग और चटख था। यूकोलिप्टस के सफेद , चिकने तने
और गगनचुंबी डालियों ने हैरत में डाला हमें। बेगनबोलिया की सफेद, गुलाबी फूल मन मोह रहे थे तो तरह-तरह के फूलों से जमीन पटी हुई थी। पेड़
से गिरे भूरे पत्ते और पेड़ों पर लगे हरे पत्ते मिलकर अद्भुत दृश्य बना रहे
थे। हमने खूब तस्वीरें ली।
सूरज की गर्मी महसूस होने लगी। हमें वापस जाना
था आज ही ; क्योंकि अचानक प्लान बना कर आए थे। गर्मी
देखकर ये लगा कि दिन में कहीं घूमना संभव नहीं होगा। इसलिए बेहतर है एक बार और
घूमने के लिए जाड़ों में आए जाए। यहाँ आसपास कई फॉल है। ऊपरी घाघरा झरना नेतरहाट
से चार किलोमीटर की दूरी पर है और निचली घाघरा झरना 10 किलोमीटर की दूरी पर।
हालाँकि पता चला कि गर्मी के कारण पानी कम है अभी, इसलिए
जाने का कोई फायदा नहीं।
हमने सामान समेटा और निकल गए। थोड़ी दूर पर
नाशपाती का बाग मिला। फल लदे थे, मगर कच्चे थे अभी। अब
वापसी में वही सब नज़ारा। घने दरख्त, कोईनार या कचनार के
पेड़..चीड़ के ऊँचे पेड़ और बाँस के घने जंगल से आती सरसराहट की आवाज। रास्ते में
नदी मिली जिसका पानी कम था।
हाँ, इस वक्त आम
के पेड़ के नीचे बच्चे कम थे मगर सड़कों पर लकड़ी ले जाते कई लोग मिले, खासकर औरतें। सड़क पर जगह-जगह कुछ सूखने के लिए कटहल के बीज पड़े थे। जब
कटहल पक जाते हैं तो उनके बीज निकालकर सब्जी बनाई जाती है।
मैंने अक्सर देखा है-गाँव में पक्की सड़क पर कभी धान सूखने डाला होता है तो कभी महुआ। आज कटहल के बीज देखे, वो भी बहुत सारे। धूप सर पर थी। सड़कों में सन्नाटा। बच्चे सो गए थे। हमें भी नींद आ रही थी। लगभग चार घंटे का सफ़र था और उसके बाद हम अपने घर में। जल्दी ही दोबारा आने के वादे के साथ।
सम्पर्कः रमा नर्सिंग होम, मेन रोड, राँची, झारखंड-
834001, मो. 9204055686, email- ashmiarashmi@gmail.com
3 comments:
आपके इस सजीव विवरण की बदौलत हमनें भी नेतरहाट की यात्रा कर ली! वास्तव में अपना देश ऐसे अनदेखे सुरम्य स्थलों से भरा हुआ है।
नेतरहाट का बहुत सुंदर सजीव चित्रण करता आलेख। हार्दिक बधाई।
रोचक यात्रा-वृतांत
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