-सुधा भार्गव
वर्ष 80 का प्रवेश द्वार मेरे लिए बड़ा रोमांचक अकल्पनीय और सुखद
आश्चर्य से भरा सिद्ध हुआ। जिसके कारण कोरोना से तप्त संतप्त हृदय कुछ समय के लिए
हरहरा उठे।
बड़े बेटे ने कहना शुरू कर दिया था -माँ
मार्च तक मेरा घर बन कर तैयार हो जाएगा । बस फिर आपको यहाँ आना है।
मैंने सोचा उसने इतने शौक से घर बनवाया है। अब वह चाहता है सबसे पहले उसकी
माँ घर में प्रवेश करे। स्वाभाविक भी है।
पहली मार्च से ही
उसका फोन आने लगा –‘माँ
तैयारी कर ली।’ ‘काहे की?’
‘मेरे पास आने की।’
‘अरे तेरे घर आने को क्या तैयारी करूँ!’
‘तब भी अच्छी -अच्छी ड्रेस रख लो।’
‘बेटा इस कोरोना में
कहीं आना -जाना तो है नहीं। फिर अच्छी ड्रेस का क्या होगा ?’
‘तब भी रख लो।’
मुझे बड़ा अजीब लगा। मैंने बहू को फोन किया
–‘ऐसे समय में तुम्हारी कहीं पार्टी -वार्टी
तो नहीं है। मैं तो एकदम नहीं जाऊँगी।’
‘मम्मी
जी कोई पार्टी नहीं है।’
‘तब
बेटा क्यों बोल रहा था -अच्छी अच्छी ड्रेस लेकर आना।’
‘आप
तो जानती ही हैं , घूमते
-घूमते ही लोग मिल जाते हैं , सब तो अच्छे -अच्छे कपड़े पहने रहते हैं। फिर आपको तो सब
जानते ही हैं। कोई मिलने भी तो घर में आ सकता है।’
असन्तुष्ट- सी मैं चुप हो गई।
छोटा
बेटा मेरे एपार्टमेंट में ही रहता है। उससे तो रोज ही मिलना,
खाना -पीना चलता रहता है। एक रात घूमता हुआ आया। मेरी ओर गौर से देखा और हाथ में हाथ लेता बड़ी
आत्मीयता से बोला –‘माँ
किसी चीज की जरूरत तो नहीं।’
‘न
.. न मुझे कुछ जरूरत नहीं। जब जरूरत होती है, तब तो बोल ही देती हूँ। हाँ मेरा आई पैड बड़ा स्लो हो गया है । मैंने तेरे
भाई से कहा था नया खरीदने को। उसने कोशिश भी की पर क्रोमो शॉप पर था ही नहीं।
हो जाएगा उसका भी इंतजाम । मुझे ऐसी कोई जल्दी नहीं।’
न जाने क्यों उस
दिन उसका पूछना –‘माँ किसी चीज की जरूरत तो नहीं।’ बड़ा अजीब- सा लगा।
चार मार्च को बड़े बेटे का फिर फोन आया –‘माँ मैं कल आपको लेने आ रहा हूँ। तैयार रहना।’ मैंने चार कपड़े रखे कि 2-3 दिन बाद तो आ ही जाऊँगी । रात को सोने ही जा रही थी कि
कानपुर से बेटी का फोन आ गया -‘माँ जरा दिखाओ तो अटैची में क्या क्या रखा है?’
मैंने कपड़ों के बारे में बताया तो बोली –‘यह सब नहीं चलेगा । फेस टाइम पर आ जाओ। अपनी अलमारी
खोलकर मुझे दिखाओं।’
राजधानी की तरह छुक-छुक बोलते बता दिया
..ये रखो ये रखो ... । और हाँ मैचिंग पर्स और चप्पल भी रख
लेना। सोचने के लिए बहुत कुछ छोड़कर वह मजे से सो गई होगी। करीब चार सूट और दो साड़ियाँ ! मेरा दिमाग भन्ना गया । दिखाते- दिखाते मेरी सारी
अलमारी अस्तव्यस्त हो गई । मैं बड़बड़ाती रह गई, पर बेटी की बात को टाल भी न सकी।
लगता था बेटे के नहीं किसी शादी में जा रही हूँ। जैसे- तैसे सब सामान जगह पर रखा
और थककर सो गई।
दूसरे दिन
अलसाए भाव से मैंने अटैची लगाई ।
अपना लैपटॉप ,आई
पैड बैग में रख बड़े बेटे -बहू का इंतजार करने लगी। वह मेरे फ्लैट से करीब 10 किलोमीटर पर रहता है। मन में आया भी कि छोटे बेटे को
कह दूँ -वह भी वहाँ आ जाए। फिर सोचा -3-4 दिन बड़े के पास रहने का प्रोग्राम बना कर जा रही हूँ। छोटा
भी एक दिन जरूर आकर मिलेगा। फिर उसी के साथ वापस आ जाऊँगी।
‘कहाँ
?
ऐसा क्या जरूरी काम आन पड़ा कि सुबह ही निकल जाओगी। सोना को भी लंच पर बुलाया है।
कैसे काम होगा।’ मैं तुनक पड़ी।
‘आप
चिंता न करो माँ सब हो जाएगा।’ बेटे की बात पर मैं चुप हो गई। पर मन ही मन कुढ़ रही थी –‘कल ही का दिन जाने को मिला। काम टाला भी तो जा सकता था।’
बहू अगले दिन सुबह ही निकल गई। मैंने 9 बजे तक उसका इंतजार किया फिर बोली –‘बेटा लगता है रचना को लौटने में देरी होगी
मैं तो नाश्ता कर लेती हूँ।’ बाहर झाँकते बोला –‘माँ थोड़ा इंतजार कर लो । आती ही होगी। अनिच्छा से रसोई में ही छोटी मेज के
सामने रखी कुर्सी पर बैठ गई। समय काटने को
मीनाक्षी अपनी सहेली को फोन
लगा बैठी। तभी मुझे आभास हुआ कोई मुझे पुकार रहा है। मैंने समझा बहू की
सहेली है। वह अक्सर आती रहती है। तभी दुबारा आवाज आई माँ …
माँ । मैंने सिर उठाया रसोई के दरवाजे पर मास्क लगाए बेटी से मिलती जुलती एक युवती को खड़े देखा। मास्क के कारण पहचान न पा
रही थी। बेटी के होने की तो कल्पना ही नहीं कर सकती थी;
क्योंकि एक घंटे पहले ही मेरी उससे बातें
हुई थीं –‘माँ कानपुर से तुम्हारे पास कब आऊँ?
होली से पहले या बाद में ।’
‘बेटा
होली के बाद ही आना। तब तक दूसरा वैक्सीन लगे तुम्हें 15 दिन हो जाएँगे।
तुमने ही तो कहा था इम्यूनिटी के लिए 15 दिन इंतजार करना पड़ेगा।’
‘पर
माँ होली के तो अभी कई दिन है।’
‘हाँ, यह
तो है। पर क्या किया जाए। मजबूरी है।’
फोन कट गया।
मैं बड़ी उलझन में पड़ी हुई थी। जिसने कानपुर से
कुछ देर पहले मुझसे बातें की हैं वह मेरे सामने कैसे हो सकती है। सामने खड़ी होने
वाली को किसी तरह भी मेरा मन बेटी मानने
को तैयार न था, जिससे मिलने को
तड़पती रहती हूँ। जिसकी सुरक्षा की दिन रात
कामना करती हूँ । डॉक्टर होने के नाते उसे तो रोज हॉस्पिटल जाना ही पड़ता है।
मेरी
मन:स्थिति वह ताड़ गई। वह हँसी ..वही जानी पहचानी हँसी मैंने सुनी पर हिली नहीं।
वह मुझे झिंझोड़ते हुए बोली –‘माँ मैं हूँ तुम्हारी पिंकी।’ तब भी मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। वह मेरे नजदीक सिमट
आई। मैंने उसके हाथों को अपने हाथों में लिया । छूकर विश्वास करना चाहा कि
मेरे सामने मेरी बेटी ही है या कोई सपना देख रही हूँ। आश्वस्त होने पर मैंने उसके
दोनों हाथ थाम लिये
। चूमे और आँखों से लगा लिये। खुशी के अतिरेक से बच्ची की
तरह सिसक पड़ी और गिरने लगे टप -टप आँसू वह भी बेटी की हथेली पर। ‘आह मेरे बेटी !अब कुछ दिन मेरे पास रहेगी।’
इसकी तसल्ली होते ही मुझे इतनी खुशी मिली -इतनी खुशी मिली थी कि उसको बयान करने के लिए
मेरे पास शब्द नहीं।
हाँ, अब मेरी आँखे और दिमाग तेजी से कम करने लगे। बेटी के पीछे मेरी नातिन भी खड़ी थी। उसके आने की तो सोच ही नहीं सकती थी। कोरोना के कारण लॉ कालिज बंद है। ऑनलाइन पढ़ाई हो रही है। इसी कारण वह अपनी नानी से मिलने आ सकी। मैं उसे देख फूली न समाई। उसे प्यार से गले लगा लिया। बेटा भी कनखियों से माँ-बेटी के मिलन को 3 गज की दूरी से देख रहा था। मुझे एक साथ असीमित खुशी मिली यह देख उसकी आँखें मुस्कुरा रही थीं। तब तक न जाने कब -कब में बड़ी बहू ने आकर वीडियो लेना शुरू कर दिया था। उसने फॅमिली ग्रुप वाट्स एप पर पोस्ट भी कर दिया। मैंने वीडियो देखा ..उफ कैसी सुबकती रोती हैरान सी। झट से मैंने आँसू कसकर पोंछ लिये। असल में सुबह बड़ी बहू बेटी को लेने एयरपोर्ट ही गई थी। मुझ बुद्धू को असलियत का जरा भी आभास न हुआ।
तभी छोटे बेटे ने घर में प्रवेश किया –‘माँ हमने आपका जन्मदिन आज से ही मनाना शुरू कर दिया है । कैसी रही शुरुआत! लो अपना गिफ्ट। अरे जल्दी से खोलो। अच्छा मैं ही खोल देता हूँ।’
‘अरे
नहीं हम तीनों मिलकर देंगे।’ पीछे से बेटी चिल्लाई। कुछ ही पलों में एपल का नया आइ पैड मेरे हाथ में
था। तब मुझे मालूम पड़ा क्यों उस दिन सोना ने पूछा था ..माँ
किसी चीज की जरूरत तो नहीं।
अंग- अंग से मेरे खुशी टपकने लगी। पुलकित हो यही कहते बना –‘तुम शैतानों की टोली ..तुम क्या क्या प्लान बना
डालते हो मुझे कानोंकान खबर नहीं होती। लेकिन तुम्हारे दिये एक के बाद एक आश्चर्य
जब अपने दोस्तों को सुनाती हूँ तो वे भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं।’
‘अरे
माँ अभी तो देखती जाओ, आगे होता है क्या क्या।’
‘क्या
मतलब?’
‘मतलब
यह कि कल 7.. फिर 8 मार्च.. । आपका जन्मदिन मनाते ही रहेंगे ।’ छोटा बोला।
‘अब
तो मम्मी जी को बता दीजिए।
क्यों उन्हें परेशान करते हैं!’ छोटी बहू बोली।
‘क्या
बता दूँ कुछ बताने को है ही नहीं। उसने नटखटपने से कहा।’
‘उफ!
अच्छा मैं बताती हूँ। हम सब 7-
8मार्च को मेरियट होटल में रहेंगे।आप एक अटैची वहाँ के लिए लगा लीजिए।’
‘ओहो
,इसलिए साड़ी -सूट लाने को कहा जा रहा था। तुम लोगों को मेरा
इतना ख्याल!’ अनायास ममता
हिलोरें लेने लगी। साथ ही मन का एक कोना फीका- फीका सा बोल पड़ा –‘बेटा कोरोना के समय होटल !’
‘कोई
भीड़ नहीं हैं । अगर कुछ गड़बड़ देखेंगे, तो चले आएँगे। वैसे होटल में बहुत सावधानी से
कोरोना के नियमों का पालन किया जा रहा है।’
दिल को तसल्ली तो हुई; पर
मुझे पहले पता होता तो साफ मना कर देती।
उम्र का
सफर तय करते हुये 80 में प्रवेश करने वाली थी।
दो दिन मास्क और दूरी का ध्यान रखते हुए आशा के विपरीत रिश्तों को महकने
का मौका मिला। कोरोना के कारण जो कदम एक दम रुक गए थे उनको गति मिली। दिल के तारों को कैमरे में कैद
करने की निराली कोशिश थी । हँसी मज़ाक ,बेफिक्री के चंद घंटों ने
न जाने कितनी उम्र बढ़ा दी ।
अप्रैल में ही फिर कोरोना का मिजाज गरम हो
गया और हम घर में बंद से ही हैं । पर मार्च की यादों ने अपनी खुशबू नहीं छोड़ी है।
रहरह कर उसका झोंका आता है और हम उसमें डूब से जाते हैं।
लेखक के बारे में - विभिन्न विधाओं पर लेखन जैसे कहानी,
लोककथा, लघुकथा, बालसाहित्य, निबंध,
संस्मरण तथा
कविताएँ। 21 वर्षों तक बिरला हाई स्कूल कलकत्ता में शिक्षण कार्य। लगभग सभी विधाओं
में किताबें प्रकाशित। समय- समय पर संकलनों व अन्तर्जाल पत्रिका में विभिन्न
विधाओं में रचनाओं का प्रकाशिन। बालसाहित्य से सम्बंधित 6 किताबों को kindle.
amajon पर देखा जा सकता
है।
सम्पर्क: जे. 703, स्प्रिंग फील्ड्स, 17/20 अम्बालिपुरा
विलेज, बल्लान्दुर
गेट,
सर्जापौरा रोड, बंगलौर 560102, Email-subharga@gmail.com
3 comments:
बहुत सुंदर भावपूर्ण कहानी।रिश्तों की मिठास मन में भर गई। सुधा भार्गव जी के हार्दिक बधाई
रिश्तों की आत्मीयता का अहसास कराती बहुत सुंदर कहानी।सुधा भार्गव जी को हार्दिक बधाई।
शुक्रिया
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