१. तुम भी तो छोड़ आए गाँव पंछी!
- नारायण सिंह निर्दोष
सीने में लिए गहरे घाव पंछी
तुम भी तो छोड़ आये गाँव पंछी!
०
पंछी! तू शहर में आया क्यूँ बता
गाँव में नहीं मिले क्या अन्न-देवता
होने लगी रोज काँव-काँव पंछी!
तुम भी तो छोड़ आए गाँव पंछी!
०
पेड़ों ने लाद लिये बर्रों के छत्ते
सीख गए राजनीति डाल और पत्ते
अब कहाँ है पीपल की छाँव पंछी!
तुम भी तो छोड़ आए गाँव पंछी!
०
जिस तरफ देखिये गुलेल ही गुलेल
कुदरत ने डाल दी नाक में नकेल
फूल गये सारे….. हाथ-पाँव पंछी!
तुम भी तो छोड़ आए गांव पंछी!
२. याद में आपकी
याद में आपकी
हम कितने मशगूल हैं।
यादें नहीं देतीं
हमें पलक झपकने
नीम-बाज अँखियन में
डोल गए सपने
सपने,
सपनों में रेत के पठार
पठार में
ये जो छपे पाँव आपके
रेत के फूल हैं।
याद में आपकी
हम कितने मशगूल हैं।
दे गया इक पल को
जीवन का उत्कर्ष,
हाथ से हाथ का
वो अनायास स्पर्श
स्पर्श,
स्पर्श में झनकते सितार
सितार में
चेहरे के भाव आपके
प्रेम के स्कूल हैं।
सोहबतें आपकी मिलीं
तो बौरा गए
इतने हसीन मौसम
कहाँ से आ गए
आ गए
तो मन में उठने लगीं चाहतें
ये चाहतें
दे रही हौसलों को तूल हैं।
लेखक के बारे में- जन्म- 16.10.1958, ग्राम-
कुकथला, जनपद-
आगरा, (उ. प्र.), बैचलर ऑफ टेक्नोलॉजी
( सिविल), संप्रति: दिल्ली जल बोर्ड में अधिशासी अभियंता (सिविल)
के पद से सेवानिवृत्त ( 2019), संस्थापक/अध्यक्ष : साहित्यक संस्था, शारदा साहित्य एवं ललित कला मंच, आगरा ( 1979), संपादन : काव्य
संग्रह- तरुणिका (1980), धूप एक बरामदे की (1982) । लेखन : कविता, गीत, ग़ज़ल।, प्रकाशित
काव्य-संग्रह- सुनो नदी! (2020)
सम्पर्क : बी-15/सी-21, लेह अपार्टमेंट्स, वसुन्धरा एन्क्लेव, दिल्ली-110096
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