-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
बादल कुछ
समय के लिए सूर्य की किरणों को धरती पर आने से रोकने का प्रयास करता है,
लेकिन उसका यह प्रयास अल्पजीवी होता है। सूर्य की किरणें
बादलों को चीरकर धरती पर उजाला फैला देती हैं। इसी प्रकार हमारे जीवन में दुःखद क्षण आते हैं। वे
हमारी खुशियों को प्रकट होने से रोकते हैं। कुछ ऐसे भी लोग है जो चेहरा लटकाए रोनी सूरत बनाए नजर
आएँगे। लगता है सारी दुनिया का दुख उनके सिर पर सवार है।
उनसे जब मिलिए,
तभी अपने विभिन्न प्रकार के दु:खों का पोथी-पत्रा खोलकर बैठ जाएँगे। सामने वाला भी दिल पर बोझ लेकर उनके पास से उठता है।
यह जीवन जीने का नकारात्मक दृष्टिकोण है।
कुछ लोग काम बाद
में शुरू करते हैं, असफल रहने की आशंका का बीज पहले ही मन में बो लेते हैं।
आशंका का वह काल्पनिक वृक्ष पराजय को सुदृढ़ कर देता है। जो बाजी जीती जा सकती थी,
उसे शुरू होने से पहले ही हार जाते हैं। आज के किशोर एवं
युवा मन को यह काल्पनिक पराजय अधिक पराजित करती है। हम हारने से पहले अपने मन के ‘प्लेग्राउण्ड’ में हार जाते है। इस बीमार मानसिकता से
बचना होगा। गीतकार समीर ने कहा है -
‘जग अभी जीता नहीं है , मैं
अभी हारा नही हूँ।
फैसला होने से पहले हार क्यों
स्वीकार कर लूँ।’
जीवन में
कदम-कदम पर परीक्षाएँ होती है। शिक्षा-जगत की परीक्षा में उत्कृष्ट अंक पाने
वाले भी जीवन की विभिन्न परीक्षाओं में धूल चाटते नजर आएँगे। ऐसे बहुत से व्यक्ति भी मिल जाएँगे जिन्होंने जीवन
में बहुत अच्छा शैक्षिक प्रदर्शन नहीं किया, लेकिन दृढ़ इच्छा शक्ति से जो चाहा,
सो पाया। जीवन की व्यावहारिक पाठशाला ने उनकी उन्नति के
द्वार खोल दिए ।
ईश्वर जब सफलताओं का एक द्वार बन्द करता
है, तो हजार द्वार खोल देता है। निराशा के कारण हमारी
दृष्टि केवल बन्द द्वार पर लगी रहती है। आस-पास खुले हजारों द्वारों पर नहीं जाती। ऐसा क्यों होता है ?
निराशा और संकट हमारे मन की एकाग्रता छीन लेते हैं। यदि
मन विचलित न हो,
तो संकट से निकलने की कोई न कोई तरीका हमें सूझ ही जाएगा। कठिनाइयों में व्यक्ति की बुद्धि निखरती
है। इसीलिए अत्यन्त अभाव में जीवन व्यतीत करने वाले उर्दू के शायर जिगर मुरादाबादी
ने साहिल ( किनारे ) के स्थिर जीवन की
अपेक्षा सागर के तूफानी जीवन को महत्त्वपूर्ण माना है -
‘सागर की जिन्दगी
पर सदके हजार जानें।
मुझको नही गवारा साहिल की मौत
करना॥’
एक और जरूरी बात चलते-चलते। बुढ़ापे का जीवन नितान्त अकेला होता है। हम अपने
बड़े-बूढ़ों के जीवन अनुभवों से लाभ नही उठाते हैं। हमारे पास उनसे बात करने का समय
नहीं है, उनके दुख में शामिल होने की संवेदना नहीं है। कल हम भी बूढ़े होंगे। हमें भी अपने अकेलेपन की पीड़ा
का सामना करना पड़ेगा। अतः सावधान!
इन वरिष्ठ नागरिकों के प्रति मन में सम्मान एवं सद्भावना रखें। इनके लिए
कुछ समय जरूर निकाले। यह स्थिति न आने दें -
‘बोझ का पर्वत है बूढ़ा बाप बच्चों के लिए ।
झिड़कियॉं मिलती है उसको रोज आदर की जगह॥’
(ज़हीर कुरैशी)
सिकुड़ते परिवार के प्रचलन ने बड़े-बूढ़ों को
बेसहारा छोड़ दिया है। कुछ के कमाऊ पूत
उन्हें वृद्धाश्रम में भर्ती कराकर अपना कर्त्तव्य पूरा कर लेते हैं। केवल भोजन या आवास ही पर्याप्त
नहीं ,
उन्हें सबसे अधिक मानसिक सुरक्षा की जरूरत है ,
जो केवल सहानुभूति के संवाद से ही मिल सकती है। मुनव्वर
राना के शब्दों में-
नए कमरों में अब चींजे पुरानी कौन
रखता है।
परिन्दों के लिए शहरों में पानी कौन रखता
है।।
हमीं
गिरती हुई दीवार को थामे रहे वरना।
सलीके से बुजुर्गो की निशानी कौन
रखता है।।
नई
पीढ़ी मेरे शब्दों पर जरूर विचार करेगी, ऐसी आशा है ।
1 comment:
आदरणीय आपने एक बार फिर बड़े ही सहज और सुंदर ढंग से जीवन का कितना बड़ा और महत्वपूर्ण पाठ पढ़ा दिया। आपको मेरा नमन एवम बधाई!
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