आँगन का पंछी
- विद्यानिवास मिश्र
गाँवों में कहा जाता है- जिस घर में
गौरैया अपना घोंसला नहीं बनाती, वह घर निर्वंश से
हो जाता है। एक तरह से घर के आँगन में गौरैयों का ढीठ होकर चहचहाना, दाने चुनकर मुंडेरी पर बैठना, हर साँझ, हर सुबह, हर कहीं तिनके बिखेरना और घूम-फिरकर फिर
रात में घर ही में बस जाना अपनी बढ़ती चाहने वाले गृहस्थ के लिए बच्चों की किलकारी,
मीठी शरारत और निर्भय उच्छलता का प्रतीक है। फूल तो बहुत- से होते
हैं, एक से-एक चटकीले, एक से-एक खुशबूवाले,
एक से-एक कँटीले, पर
बेला, गुलाब, जूही, चमेली, कुमुद, कमल बहुत कम
आँगनों में मिलते हैं और अकिंचन से अकिंचन आँगन में भी तुलसी की वेदी जरूर मिलती
है और उस वेदी पर, तुलसी की मंजरी जरूर खिलती है। जिस तरह
गौरैये में कोई रूप- रंग की विशेषता नहीं, कंठ में कोई विशेष
प्रकार की विह्वलता नहीं, उड़ान भरने की भी कोई विशेष क्षमता
नहीं, महज आँगन में फुदकने का उछाह है; उसी प्रकार तुलसी के पौधे में न तो सघन छाँह की शीतलता है,न गंध का जादू, न रूप का शृंगार,
केवल आँगन का दुख-दर्द बाँटने में मन में बड़ी उत्कंठा है। तुलसी की
पूजा के लिए तो खैर शास्त्रीय आधार है, पर गौरैया के लिए
मात्र जनविश्वास का यह उपहार-भर है कि वह पक्षियों में ब्राह्मण है, इसीलिए इतनी ढीठ, इतनी निर्भय, इतनी आत्मीय और इतनी मंगलास्पद है। जो लोग चिड़ियों का शिकार करते भी हैं,
वे गौरैया नहीं मारते। गौरैया मारना पाप समझते हैं। मैंने अपनी
ससुराल के बड़े आँगन में देखा है कि वहाँ गौरैयों के लिए धानों की मोजर आँगन के
चारों ओर ओरियों के नीचे बराबर लटकाई रहती
हैं और धान की मंजरियों की यह पंक्ति रीतती नहीं। शायद इसलिए कि गौरैयों को भी
इनके प्रति मोह हो। बहरहाल उस बड़े आँगन में बराबर धान सुखाया जाता है और उस पर
बराबर गौरैयों के दल के दल आते रहते हैं, जरा-सी देर में जरा
से इशारे से यह दल तितर-बितर हो जाते हैं। पर जरा-सी आँख ओझल होते ही फिर वही जम
जाते हैं। घर में रहते हुए भी ये स्वच्छंद रहते हैं। वह आँगन बड़ा तो है; पर भरा नहीं है। साल में केवल कभी-कभी वह आँगन मेहमान की तरह आए हुए
बच्चों से भरता है, पर आँगन उनसे भरने वाला है या उनसे भर
चुका है, मानो इसी आशा और इसी स्मृति में गौरैयों को ऐसा
प्यार दिया जाता है।
एक दिन मैं वहीं था,
जबकि किसी अखबार में पढ़ा कि चीन में एक नया पुरुषार्थ जागा है।
वहाँ की उत्साही सरकार ने गौरैयों को खेती का शत्रु मानकर उनके खिलाफ सामूहिक
अभियान शुरू किया है। खैर चीन में अभियान हो और वह सामूहिक ना हो; तो यह अनहोनी बात होगी, पर जब यह पढ़ा कि कुछ लाखों
की तादाद में वहाँ के तरुण सैनिक बंदूक लेकर गौरैयों के शिकार के लिए निकल पड़े
हैं, तो हँसी भी आई और रोना भी पड़ा। हँसी इसलिए कि गौरैयों
पर वीरता का अपव्यय हो रहा है और रोना इसलिए कि जिस तरीके से और जिस पैमाने पर
गौरैयों के वध की योजना बनाई गई है, वह कितना अमानवीय है।
उसी अखबार में पढ़ा कि बंदूक दाग-दाग कर झुंड के-झुंड इन
गौरैयों को खदेड़ते हैं और खदेड़ते ही रहते हैं ,ताकि यह
कहीं बैठने को ठौर ना पा सके और अंत में बेदम होकर जमीन पर आ गिरें। ऐसे मासूम और
मनुष्य के प्रति सहज विश्वास रखने वाले पक्षी को इस प्रकार निर्मूल करने की योजना
सचमुच उन्माद में प्रेरित नहीं है तो क्या है? मैंने भी
बुद्धिवादी कविताएँ पढ़ी हैं, जिनमें ताजमहल के निर्माण पर
शोक प्रकट किया गया है। जबकि मनुष्य का शव कफ़न के लिए भी तरस
रहा है; जहाँ चींटियों के लिए आटा छीटने और मछलियों के लिए आटे की गोली फेंकने पर व्यंग्य
कसा गया है, जबकि मनुष्य भूखों मर रहे हैं; जहाँ कि गुलाब की क्यारियों पर तरस खाया गया है, क्योंकि
गेहूँ की देश में कमी है और जहाँ कि कला की उपासना को ऐश समझा गया है, जबकि मनुष्य अभाव से ग्रस्त है। मैंने इन अभियान की सफाई के लिए उन
कविताओं को एक-एक करके याद किया, पर मुझे लगा कि यह तो अभाव
की पूर्ति की योजना नहीं है, यह तो पूँजीवाद
को समाप्त करने का भी आयोजन नहीं है, और यह मनुष्य कि सत्ता
सृष्टि में सर्वोपरि मानने का कोई नया तरीका भी नहीं हो सकता है। गौरैया दाना
चुगती है; पर शायद जिस मात्रा में दाना चुगती है, उससे कहीं अधिक लाभ व खेत का इस प्रकार करती है कि अनाज में लगने वाले
कीड़ों को साफ करती रहती है। थोड़ी देर के लिए माना कि वह दाना देती नहीं; केवल लेती भर है, तो भी क्या इस प्रकार समूची सृष्टि की समरसता के साथ खिलवाड़ करना उचित
है? मनुष्य को इस प्रकार लाभ की आशा से नहीं मात्र अपनी
प्रति हिंसा की भावना से निरीह और अपने ही साथ अपने बच्चों की तरह निर्भय विचरने
वालों को इस प्रकार थका-थका के सता-सता के मारना कहीं न्याय है? यह कौन-सा पंचशील का उदाहरण है। शायद जितना अनाज गौरैयों ने खाया ना होगा ,
उससे कहीं अधिक दाम की गोलियाँ उन्हें सताने में बर्बाद हो गई होंगी। माना कि मनुष्य को अपने ही समान बुद्धि बल वाले दूसरे देशवासी मनुष्य
के साथ प्रति हिंसा करने का सहज अधिकार थोड़ी देर के लिए हो भी और वह अपने निर्माण
से अधिक अपने तुल्यबल भाई के विध्वंस पर खर्च करने के लिए पागल हो जाएँ, तो अनुचित नहीं; परंतु मनुष्य जिस उत्फुल्लता के
लिए, जिस मुक्ति के लिए जिस राहत के लिए इस गला-काट व्यापार
में लगा हुआ है, उसी उत्फुल्लता, मुक्ति
और राहत के इन जीते-जागते प्रतिबिम्बों को इस प्रकार नष्ट
करने पर उतारू हो जाए, यह किस प्रकार समझ में आए?
हमारे देश में भी ऐसे सयाने लोग हैं,
जो अपने नाच की अयोग्यता आँगन के टेढ़ेपन के ऊपर थोपने के लिए
ऐसे-ऐसे सुझाव देते हैं कि अन्न इसलिए कम पैदा हो रहा है कि चिड़िया उन्हें खा
जाती हैं। बंदर उन्हें तहस-नहस कर जाते हैं। चूहे उन्हें कुतर जाते हैं और धूप
उन्हें सुखा जाती है। इसलिए पहले इनके ऊपर नियंत्रण होना चाहिए; ताकि खेती अपने-आप बिना मनुष्य के परिश्रम के अधिक उपजाऊ हो जाए। पर चीन
के सयाने तो इस मात्र नियंत्रण तक संतुष्ट नहीं हैं। वे निर्मूलन में विश्वास करते
हैं। सृष्टि के संतुलन बनें-बिगड़े, यहाँ तक कि मनुष्य
जिसलिए यह कर रहा है, वह भी उसे मिले ना मिले, पहले वह अपने दिल का गुबार तो उतार ले, और चीन
प्रज्ञा पारमिता का देश है। बुद्ध की मैत्री का देश है, नए
युग में मनुष्य के उद्धार का दावा करने वाला देश है और है सह-अस्तित्व, परस्पर सहयोग और प्रेम की कसम खाने वाला देश! लगता यह है कि चीन में जैसे
कोई घर में रह गया हो, कोई आँगन न रह गया हो, किसी घर और किसी आँगन के लिए कोई मोहब्बत न रह गई हो, किसी घर और किसी आँगन में मुक्त हँसी न रह गई हो, उसमें
बच्चे न रह गए हों और अगर रह भी गए हों, तो किसी बच्चे के
चेहरे पर विश्वास की चमक न रह गई हो। तभी तो इन गौरैयों के साथ नादिरशाह बदला लिया
जा रहा है। उनका अपराध केवल यही है कि वे निशंक हैं और निःशंक होकर वे हर घर में
आनंद के दाने बिखेर जाती हैं, जितने दाने लेती हैं, उन्हें चौगुना करके आँगन में परिवर्तित कर हर आँगन में मुक्त-हस्त हो कर
लुटा जाती हैं। उनका अपराध है कि गमगीन नहीं है; उनका अपराध
है कि वे कबूतर की तरह दूर तक गले में पाती बाँधकर पहुँचा नहीं सकती; उनका अपराध है कि तोते की तरह हर एक स्तुति और हर एक
गाली दुहरा नहीं सकती; उनका अपराध है कि वे अपने पंखों में
सुर्खी नहीं लगा सकती, उनका अपराध है कि उनके पास वह लाल कलगी नहीं है, जिसको सिर में लगाकर कूड़े की ढेरी पर
खड़े होकर रात के धुँधलके में बाँग दे सकें कि अरुणोदय होने वाला है; उनका अपराध है कि वह सुबह के साथी नहीं है; दोपहर की
साथी हैं, वे गगन की पक्षी नहीं, आँगन
की पंछी हैं।
मुझे लगता है कि गौरैयों के खिलाफ यह अभियान जिन
राहगीरों ने चलाया है, उनको अपने राह की मंजिल
नहीं मालूम। वे बिल्कुल नहीं जानते कि आखिर इस राह का अंत कहाँ है। आज यह गौरैया
है, कल घर की बिल्ली हो सकती है। परसों घर का दूसरा पशु हो
सकता है और फिर चौथे दिन घर के प्राणी भी हो सकते हैं। यह आक्रोश असीम है, उसका अंत नहीं है। संतोष की बात इतनी ही है कि भारत में ऊपर चाहे जो हो,
भीतर एक दूसरी ही शक्ति का प्रवाह है, जो
मनुष्य को सृष्टि से ऊँचा बनाने पर बल नहीं देती बल्कि मनुष्य को सृष्टि के साथ
एकरस बनाने में ही उसका गौरव मानती है। गौरैया के प्रति हमारी प्रीति हमारे निजी
स्वार्थ से प्रेरित है। हम उस गौरैया की उच्छलता अपनी संतान में पाना चाहते हैं।
उस गौरैया का सहज विश्वास अपनी आने वाली पीढ़ी को देना चाहते हैं, जो हमसे ढिठाई के साथ हमारी विरासत छीन कर हँसते-हँसते और हँसाते-हँसाते
हमसे आगे बढ़ जाएगी। हम तुलसी का पौधा इसलिए नहीं लगाते कि तुलसी को वन में कहीं
जगह नहीं है और सबसे पहले दिया तुलसी की वेदी पर इसलिए नहीं जलाते कि उस दिए की लौ
के बिना तुलसी को अपने जीवन में कोई गर्मी नहीं मिलेगी; बल्कि
हम तुलसी की खेती अपने दर्द के निवेदन के लिए रचाते हैं। और तुलसी को दीप अपने
सर्द दिल को गरमी पहुँचाने के लिए जलाते हैं। हम जिस पारिवारिक जीवन के अभ्यस्त
हैं उसमें राग-रंग और तड़क-भड़क के लिए कोई स्थान नहीं है। केवल एक -दूसरे से मिल-जुलकर एक- दूसरे के प्रति बिना किसी अभिमान की तीव्रता के सहज भाव से समर्पित
होने ही में हम जीवन की अखंडता मानते हैं। हमारा सांस्कृतिक जीवन भी इस पारिवारिक
प्रेम से आप्लावित है, देवी-देवताओं की कल्पना, कुल-पर्वतों, कुल-नदियों की कल्पना, तीर्थ-धाम की कल्पना और आचार्यों-मठों की कल्पना पारिवारिक विस्तार के ही
विविध रूपांतर हैं। यही नहीं पारिवारिक साहचर्य भाव ही हमारे साहित्य की सबसे बड़ी
थाती है। यह कुटुंब-भाव ही हमें चर-अचर, चेतन-जगत् के साथ कर्तव्य-शील बनाता है। हम इसी से देश-काल की सीमाओं की तनिक भी
परवाह न करके, अरबों प्रकाश वर्ष दूर नक्षत्रों से और युगों
दूर उज्ज्वल चरित्रों से उसी प्रकार अपनापा जोड़ते हैं,
जिस प्रकार अपने घर के किसी व्यक्ति से। ग्रहों की गति से अपने जीवन
को परखने का विश्वास कोई अर्थ-शून्य और अंधविश्वास नहीं है, वह
कुटुंब-भावना का ही हमारे विराटदर्शी भाव-जगत पर प्रतिक्षेप है। जैसे परिवार में
छोटे से-छोटा और बड़े से-बड़ा एक सा ही समझा जाता है, वैसे
ही सृष्टि में हम ‘अणोरणीयान्’और ‘महतो महीयान’ को एक-सी नजर से देखने के आदी हैं।
गौरैया मेरे लिए छोटी नहीं है,
बहुत बड़ी है, वैसे ही जैसे मेरी दो साल की
मिनी छोटी होती हुई भी मेरे लिए बहुत बड़ी है। ‘बालसखा’ के संपादक मित्रवर सोहनलाल
द्विवेदी ने एक बार मुझसे बालोपयोगी रचना माँगी। मैंने उन्हें मिनी का फोटोग्राफ
भेज दिया और लिखा कि इससे बड़ी रचना मैं आज तक नहीं कर पाया हूँ। मिनी बड़ी है,
मेरे अर्जित परिष्कार से, मेरे अर्जित विद्या
से और मेरे अर्जित कीर्ति से, क्योंकि उसकी मुक्त हँसी में
जो मोगरे बिखर जाते हैं, उनकी सूरभि से बड़ी कोई परिस्कृति,
सिद्ध या कीर्ति क्या होगी? वही मिनी जब
गौरैयों को देख कर नाचती है, उन्हें बुलाती है, उनके पास आते ही खुशी से ताली बजाती है, उन्हें
धमकाती है, फिर मनाती है, तब मुझे लगता
है कि सृष्टि के दो चरम आनंदमयी अभिव्यक्तियाँ ओत-प्रोत हो गई हैं। गीता की
ब्राह्मी स्थितियाँ एकाकार हो गई हैं और
मुक्ति की दो धाराएँ मिल गई हैं। इसीलिए
गौरैयों के विरुद्ध अभियान मुझे लगता है- मेरी और न जाने कितनों की मिनियों के
विरुद्ध अभियान है। गौरैये और मिनियाँ राजनीति से कोई सरोकार नहीं रखतीं, सो मैं राजनीति की सतह पर इनके बारे में नहीं सोचता। परन्तु मनुष्य की
राजनीति का जो चरम ध्येय है उसको जरूर सामने रखना पड़ता है और तब मुझे बहुत आक्रोश
होता है कि भले आदमी मनुष्य बनने चले हो तो पहले मनुष्य के विश्वास की रक्षा तो
करो। बंधुता बाँधने चले हो पर ममताओं के बाँध तो बने रहने दो। मुक्ति पर्व मनाओ
बड़ा अच्छा है, पर मुक्ति कि जीती-जागती तस्वीरें क्यों
फाड़ते हो। इनका आर्थिक और नैतिक अभ्युदय चाहते हो, ठीक है,
पर उसके सहज आनंद का क्षण क्यों छीनते हो?
अपनी चित्रकला में बांस के झुरमुट बनाकर उस पर चिड़ियों को बिठलाने
वाले चितेरे, उन चिड़ियों को उनके बसेरों से क्यों उजाड़ते
हो? चिड़ियों से चहचहाती लोक-कथाओं के रंग-बिरंगे अनुवाद छपवाते हो, छपवाओ, पर उन चिड़ियों की चहचहाट हमेशा के लिए क्यों खत्म
किए दे रहे हो? तुम अपने घर आने वाली खुशी के लिए फरमान
निकाल कर गमी मनाओ, पर तुम मेरे घर की खुशी, मेरी मिनी और उसकी सहेली गौरैयों की खुशी पर गमी की गैस क्यों छिड़क रहे
हो?
मन में यह आक्रोश आता है पर फिर सोचता हूँ यह
आक्रोश प्रतिगामिता है। मुझे धरती और धरती की परम्परा की बात-भर करनी चाहिए, धरती के आनंद के
उत्तराधिकारीयों की बात करने पर आनंदवादी कहा जाता हूँ। मेरे एक मार्क्सवादी मित्र
ने मुझे यही संज्ञा दे रखी है। पर क्या करूँ, गँवार आदमी हूँ,
क्या कहने से क्या समझा जाएगा, यह जानता ही
नहीं, केवल जब कहे बिना रहा नहीं जाता,
तभी कहता हूँ। गौरैयों ने विवश किया, तुलसी ने विवश किया,
मिनी ने विवश किया, तब मुझे कहना पड़ा। इन
तीनों में मुझे सीता की सुधि आती है। इन तीनों में मुझे धरती का दुलार छलकता नज़र आता है। इसलिए मुझे उस दुलार के नाम पर यह गुहार लगानी पड़ती है कि
धरतीवासियों, धरती वही नहीं है, जो
तुम्हारे पैरों के नीचे है। धरती तुम्हें अपने और असंख्य शिशुओं के साथ अपनी गोद
में भरने वाली व्यापक सत्ता है। धरती की विरासत सँभालना आसान
नहीं, उस विरासत के असंख्य साझीदारों को मिलाए बिना तुम घर के कर्ता नहीं बन सकते। यह गौरैया, यह
तुलसी, यह मेरी- और यह मेरी ही नहीं, तुम्हारी
भी- मिनी तो उस विरासत की असली मालिक हैं, यही है कि वे बिना
माँगे अपनी मिल्कियत लुटा देती हैं। उनके प्रति कृतज्ञ बनों, अपने आप तुम्हारी बढ़ती होगी। क्योंकि-
“अकृत्वा परसन्तापमगत्वा खलमन्दिरम्।
अनुल्लङ्घ्य सतां मार्गं यत्स्वल्पमपि तद् बहु।।”
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