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Aug 12, 2016

लड़कियों ने रख ली लाज

लड़कियों ने रख ली लाज
      - डॉ.रत्ना वर्मा
हाल ही में सम्पन्न रियो ओलम्पिक में भारत की दो लड़कियों ने पदक जीत कर भारत का मान बढ़ाया। बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु ने रजत और महिला पहलवान साक्षी मलिक ने कांस्य पदक हासिल कर देश की इज्जत रख ली। साक्षी भारत से पहली महिला पहलवान हैं, जिन्होंने पदक जीता है। महिला जिमनास्ट दीपा करमाकर ने फाइनल तक पहुँचकर तो भारत का सर गर्व से ऊँचा कर दिया। थोड़ी सी कसर रह गई थी, अन्यथा हमारी झोली में एक और मेडल होता। किसी ने भी यह नहीं सोचा था कि दीपा फाइनल तक पँहुचेगी।
 खेल हमारी संस्कृति, प्रतिभा को दुनिया भर में प्रसारित करने का, एक दूसरे के प्रति दुश्मनी को भुलाकर भाईचारे का संदेश देते हुए बेहतर रिश्तें निभाने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। खेलों के माध्यम से हम दुनिया में न सिर्फ जीत हासिल करते हैं;  बल्कि खेल हमें सम्मान और गौरव भी दिलाता है। यह खेल- भावना हमें अपने देश से प्रेम करना सिखाती है।
परन्तु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत में खेल और खिलाड़ियों की जो स्थिति है, वह उत्साहवर्धक नहीं कही जा सकती; जबकि इस बार के ओलम्पिक में दावे तो कई मेडल लाने के किए गए थे। खैर ,जो भी हो जब ये दोनों खिलाड़ी जीत कर आईं तो हमारे प्रधानमंत्री जी को एक टास्क फोर्स बनाने की सुध तो आ गई, जो अगले तीन 2020, 2024 और 2028 में होने वाले ओलम्पिक खेलों के लिए बेहतर रणनीति तैयार करेगी। घोषणा की गई है कि इस टास्क फोर्स में देसी और विदेशी विशेषज्ञ शामिल होंगे ,जो खेल सुविधाओं, प्रशिक्षण, चयन प्रक्रिया और इससे जुड़े अन्य मुद्दों पर रणनीति तैयार करेंगे। जाहिर है, हमारे यहाँ अब तक जितने भी खेल से जुड़े विभाग हैं, चाहे वह हमारी सरकार हो, खेल एसोसिएशंस, विभिन्न खेल संस्थाएँ हों अथवा स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया हो? सभी पर प्रश्न चिह्न तो लग ही गया है कि वे ठीक से अपने कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं करती हैं। यदि निर्वाह  करती, तो हमारे प्रधानमंत्री को टास्क फोर्स की जरूरत ही नहीं पड़ती।
 यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जब कोई खिलाड़ी अपने दम पर जीत कर आ जाता है, तो सब उसे सर- आँखों पर बिठाते हैं। उन पर पुरस्कारों और इनामों की बाढ़- सी आ जाती है, जबकि खिलाड़ी की जीत के पहले यह देखने की फुर्सत नहीं होती कि ओलम्पिक में जाने की तैयारी के लिए हमारे खिलाड़िय़ों को कैसी सुविधाएँ मिल रहीं हैं, मिल भी रही हैं या नहीं। जिसके अंदर खेल का जज़्बा होता है ,वह चाहे जैसे भी हो अपने अंदर खेल को जिंदा रखता है, और जहाँ सुविधा मिलती है वहाँ जाकर प्रशिक्षण प्राप्त कर लेता है। यही जज़्बा है जो उसे मेडल भी दिला देता है। खिलाड़ी माता- पिता के परिवार में पैदा हुई पीवी सिंधु की जीत के पीछे उनके कोच पुलेला गोपीचंद का भी बहुत बड़ा हाथ है। बेहतर प्रशिक्षण खेल में बहुत मायने रखता है सिंधु उसकी मिसाल है। साक्षी मलिक निम्न मध्यम वर्ग परिवार से आई है, उसके पिता डीटीसी बस में कंटक्टर हैं और माँ आंगनबाड़ी कार्यकर्ता। इसी प्रकार जिमनास्ट में चौथे नम्बर पर आने वाली दीपा करमाकर के बारे में कहा जाता है कि उसने छ वर्ष की उम्र में ही जिमनास्टिक का अभ्यास शुरू कर दिया था। उसके कड़े प्रशिक्षण का नतीजा है कि 1896 से हो रहे ओलम्पिक में पहली बार है ऐसा हुआ कि किसी महिला जिमनास्ट ने भाग लिया और पहली बार ऐसा भी हुआ कि कोई फाइनल तक पहुँचा है। इससे पहले 11 पुरुष जिमनास्ट ओलम्पिक में जा चुके थे, पर फाइनल में कोई नहीं पहुँच पाया था। 77 मेडल (जिनमें से 67 गोल्ड हैं )जीतने वाली दीपा को 2015 में अर्जुन अवार्ड दिया गया था।
 किसी भी खिलाड़ी को एक दिन में तैयार किया भी नहीं जा सकता देश भर में बेहतर खिलाड़ी तैयार करने के लिए प्राथमिक स्कूलों से ही तैयारी शुरू करनी होगी। गाँव से लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी तैयार करने के लिए स्कूल कॉलेज में क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, बैडमेंटन, टेनिस, के साथ अन्य खेलों जैसे एथलेटिक्स, रेसलिंग, शूटिंग, स्विमिंग, जिमनास्टिक जैसे अन्य खेलों को भी बढ़ावा देना होगा। खेल -भावना को ऊँचे स्तर पर रखने के लिए पंचायत स्तर से लेकर जिला और फिर राज्य स्तर पर बेहतर और निष्पक्ष प्रतियोगिताएँ करानी होंगी। साथ ही जो सबसे जरूरी है, वह सभी स्कूलों में खेल ग्राऊंड उपलब्ध हों, सभी खेल सुविधाएँ हों, साथ ही प्रशिक्षित कोच की नियुक्ति हो। स्कूली शिक्षा में खेल विषय सबसे उपेक्षित  क्षेत्र है।स्कूलों में खेल शिक्षकों का नितान्त अभाव है।जहाँ खेल शिक्षक हैं, वहाँ संसाधनों एवं समुचित प्रशिक्षण का अभाव है। किसी प्रतितोगिता के लिए जब चयन होता है, उससे पारदर्शिता विलुप्त हो जाती है। खेलों के प्रोत्साहन के लिए यह बहुत ज़रूरी है।       
ऊँचाई तक पहुँचने वाले किसी भी खिलाड़ी के जीवन में झाँककर देखें, तो उनकी मेहनत, लगन और बेहतर प्रशिक्षण ही है,जो उन्हें उच्च स्तर का खिलाड़ी बनाते हैं।
आम भारतीय मानसिकता है कि खेल में ही सारा ध्यान लगाकर भविष्य नहीं बनाया जा सकताहर लड़का सचिन, धोनी और हर लड़की साइना नहीं बन सकती। इसी सोच के चलते माता-पिता बच्चों को कहते हैं कि खेलो पर पढ़ाई पहले। वे सिर्फ खेल में ही पूरा ध्यान नहीं लगा सकते। जब माता- पिता की उम्मीदें कुछ और हों तो बच्चा कैसे खेल को ही कैरियर बनाने की सोच पागा। फिर खेल में गारंटी भी तो नहीं है कि वह उच्च स्तर का ही खिलाड़ी बनेगा। बच्चा अच्छा पढ़ लिख जाए डॉक्टर इंजिनीयर बन जाए, कमाने लगे तो बस फिर बन गई जिंदगी। ऐसी सोच के चलते कई बार चाहते हुए भी बच्चे खेल में आगे बढ़ नहीं पाते। अत: जरूरी है कि पूरे देश में स्कूली स्तर से ही खेल- संस्कृति का माहौल विसित हो, यह तभी सम्भव है, जब हम बच्चों को उनकी पसंद की पढ़ाई के साथ पसंद के खेल खेलने दें और खेलने का अवसर प्रदान करें।            

3 comments:

सुनीता काम्बोज said...

आदरणीय रत्ना जी बहुत शानदार लेख हार्दिक बधाई

सविता अग्रवाल 'सवि' said...

डॉ रत्ना जी सच में इन लड़कियों ने भारत की लाज रख ली है हमें इनकी लगन और मेहनत को सलाम करना चाहिए इनके कारण भारत का नाम भी खेलों में पीछे नहीं रहा ।रत्ना जी. आपके द्वारा लिखा हुआ यह लेख बहुत पसंद आया आपको बधाई ।

Unknown said...

रत्ना मैम बहुत अच्छा आलेख... सच में बेटियों ने भारत की लाज रख ली वरना...