सोच में दम है तो..
- सुभाष लखेड़ा
“बचाव उपचार से बेहतर है।”यह वाक्य मैं बचपन से सुनता आया
हूँ। बहरहाल, हम भारतीय लोग इस वाक्य का अनुकरण करने में अमेरिकियों
से पीछे हैं यह मुझे तब पता चला ,जब मैं इस पाँच माह अमेरिका में
रहा। यद्यपि मेरे लिए अमेरिका जाने का यह पाँचवा
मौका था, इस बार
मैंने वहाँ के लोगों के जीवन
पद्धति को समझने का प्रयास किया। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि
शोर हमारे स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाता है। बावजूद इसके हम जाने-अनजाने कोई ऐसा
मौका नहीं गँवाते, जब हम शोर पैदा कर अपने आसपास ध्वनि-
प्रदूषण को बढ़ाने में योगदान न देते हों। शादी-जागरण के समय ही नहीं, हम अपने घरों- दफ्तरों में भी ऊँची आवाज में बातचीत अथवा बहस कर इस कार्य
में अपना योगदान देते रहते हैं। यहाँ यह बताना उचित होगा कि शोर से केवल हमारी
सुनने की क्षमता ही नहीं घटती है, यह हमारे रक्तदाब को भी
बढ़ाता है। शोर नींद में खलल डालकर हमारे मानसिक स्वास्थ्य को भी चौपट करता है। हम
शोर पैदा करना अपना मौलिक अधिकार मानते हैं जबकि शोर का दिल की बीमारियों से रिश्ता पाया गया है।
बहरहाल,
मैंने अपने अमेरिका प्रवास के दौरान देखा है कि वहाँ लोग बहुत हल्की
आवाज में बतियाते हैं। आपको यह पता होगा
कि वहाँ किसी घर में यदि शोर हो रहा है तो आजू- बाजू के लोग आनन फानन में पुलिस
बुला देते हैं। बारात में ढोल- नगाड़े
पीटने का रिवाज भी वहाँ नहीं है। यूँ शोर पैदा करने में खर्चा आता है, किन्तु हम गरीब भारतीय लोग ऐसे खर्चे करने में गुरेज नहीं करते हैं। शोर बीमारियों को जन्म देता है, यह जानते हुए भी हम शोर- शराबा करने से बाज नहीं आते हैं। नई कार खरीदने की सूचना हम अपने आस- पड़ोस में रहने
वालों को वक्त बेवक्त हॉर्न बजाकर देते रहते हैं। अमेरिका में हॉर्न की आवाज नहीं
के बराबर सुनने में आती है। वहाँ बेमतलब
होर्न बजाने वाले को असभ्य माना जाता है।
हम यह भी जानते हैं कि स्वच्छता का
हमारे स्वास्थ्य से सीधा सम्बन्ध है ,किन्तु सिर्फ जानने से कुछ नहीं होता है।
गन्दगी फैलाने में हम निरंतर योगदान देते रहते हैं। यहाँ अमेरिकी लोग हमारे
से बहुत पीछे हैं। मैंने वहाँ किसी को भी सड़क पर थूकते, नाक
साफ करते, केले या मूँगफली के छिलके फेंकते नहीं देखा है।
वहाँ रहने वाले भारतीय भी ऐसा नहीं करते हैं। वहाँ कोई केले के छिलके पर कभी नहीं
फिसल सकता ,क्योंकि वहां सड़क पर कोई छिलका होता ही नहीं।
भारत में टीबी अथवा दूसरी संक्रामक रोगों का प्रसार इसलिए भी होता है कि
यहाँ के मरीज जहाँ- तहाँ थूकते - मूतते
रहते हैं। यदि आस- पास कूड़ा- कचरा हो तो बीमारियों की रोकथाम करना कैसे सम्भव है ? अमेरिका में रहने वाले लोग ऐसा नहीं करते। वे खुले सार्वजनिक स्थानों पर मल- मूत्र का त्याग नहीं करते। वहाँ
दूर-दूर के निर्जन स्थानों पर भी शौचालय उपलब्ध हैं। हमारे यहाँ अक्सर समाज को
वैज्ञानिक ढंग से सोचने की सलाह दी जाती है। हम यह भूल जाते हैं कि वैज्ञानिक ढंग
से वही सोच सकता है ,जो वैज्ञानिक ढंग से जीना जानता है। हम
लोग अक्सर पैसों का रोना रोते रहते हैं ,किन्तु क्या कोई यह
बता सकता है कि शोर न करने पर क्या खर्च आता है? गन्दगी न
फैलाने पर क्या खर्च आता है? जबकि शोर युक्त गंदे वातावरण से तरह- तरह के रोग फैलते हैं और उनके उपचार पर
लाखों- करोड़ों का खर्च आता है।
हमारे यहाँ लोग यह विश्वास करते हैं कि अमेरिकी लोग शराब पीने- पिलाने के
शौकीन होते हैं। यह सही है कि वहाँ शराब
को लेकर उस तरह के सामाजिक निषेध नहीं हैं ,जैसे अपने यहाँ। बहरहाल, न्यू जर्सी में
हडसन नदी के किनारे देर रात तक घूमते हुए हमें कभी कोई ऐसा आदमी नहीं दिखा जो शराब
पीकर शांति भंग कर रहा हो अथवा
लडख़ड़ाते हुए यह सन्देश दे रहा हो
कि उसने शराब पी हुई है। वहाँ सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करते हुए भी मैंने किसी को नहीं देखा है। हमारे यहाँ लोगों के मन में अमेरिका को लेकर बहुत सी भ्रांतियाँ हैं और इनका निराकरण होना जरूरी है। खेद की बात
है कि खाने- पीने और पहनावे में हम पश्चिम की नकल करते हैं,
किन्तु उनकी अच्छी आदतों को अपनाने में हमें तकलीफ होती है। दरअसल, हम बिना सोचे समझे बॉलीवुड को हॉलीवुड
बनाने के सपने देखते रहते हैं
किन्तु भूल जाते हैं कि केवल कपड़े उतारने से ऐसा नहीं हो सकता है। 'हम होंगे कामयाब एक दिन’ में यकीन रखना अच्छी बात है
किन्तु उस कामयाबी को पाने के लिए पसीना बहाना पड़ता है। आखिर, विज्ञान हमें यही सब तो बताता है कि 'राष्ट्र का
निर्माण सपनों से नहीं, लहू और लौह से होता है।’
अमेरिकी लोगों के बारे में इधर
अपने यहाँ अधिकांश लोग यह मानते
हैं कि वे आत्मके्न्द्रित होते हैं और
सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं। मेरा अनुभव है कि वे जरूरत पड़ने पर दूसरों
की सहायता करने के लिए तत्परता से आगे आते हैं। वहाँ आपको कोई भी ऐसा कुत्ता या
बिल्ली नज़र नहीं आएगी, जिसका कोई मालिक न
हो। सान डियागो (कैलिफोर्निया) में
हमें ऐसे इश्तिहार अथवा
विज्ञापन देखने को मिले, जिनमे वहाँ किसी वजह से अनाथ हुए कुत्ते-
बिल्लियों को गोद लेने के लिए नागरिकों से
अनुरोध किया गया था। हमारे यहाँ लोग अपने
कुत्तों को सड़कों पर इसलिए घुमाते हैं ,ताकि वे उनके घरों के बजाय सड़कों पर
टट्टी- पेशाब करें। अमेरिकी लोग भी ऐसा ही
करते हैं ,किन्तु जैसे ही उनके कुत्ते ऐसा करते हैं, वे तपाक से उस जगह की सफाई कर अपने कुत्ते के मल को
प्लास्टिक की थैली में भरकर समीप के कचरे के डिब्बे में फेंकते हैं। मैं इसे जीने का वैज्ञानिक तरीका मानता
हूँ। वैज्ञानिक सोच यही है कि आप अपने घर
और आस-पास के सार्वजनिक स्थानों को साफ
सुथरा रखें। हमने वहाँ किसी को किसी जानवर
पर पत्थर अथवा डंडा - लाठी मारते नहीं देखा है। वहाँ प्रात:काल सड़कों पर घूमते लोग सामने पड़ने
वाले लोगों का मुस्कराकर अभिवादन करते हैं। अभिवादन करते समय वे यह नहीं देखते कि
आप उनसे आयु में बड़े हैं या छोटे
अथवा अमीर हैं या गरीब। दिन की शुरुआत करने
का यह तरीका भी एक वैज्ञानिक सोच का परिणाम है। मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने के
लिए मुस्कराना कितना जरूरी है, ऐसा हम हिन्दुस्तानी भी जानते हैं किन्तु अपने से छोटों के सामने
मुस्कराना हमें गँवारा नहीं;क्योंकि हम सोचते
हैं कि उससे हमारा रुतबा घट सकता है।
यहाँ अमेरिकी लोगों में वे सब लोग शामिल हैं ,जो वहाँ रहते हैं। उनमे
भारतीय मूल के लोग भी शामिल हैं। हमारे यहाँ आयुर्वेद में माना गया है कि भोजन
खाने के दौरान पानी नहीं पीना चाहिए; किन्तु हम लोग खाना खाते समय बीच- बीच में
पानी पीते रहते हैं। अमेरिकी लोग भोजन के साथ या तुरंत बाद जूस पीते हैं। मैंने
वहाँ किसी अमेरिकी को खाना खाते समय बीच- बीच में पानी पीते नहीं देखा है।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी पानी खाना खाने के लगभग एक घंटे बाद पीना चाहिए।
हमें अमेरिका में ऐसे लोगों को देखने का मौका मिला ,जो सैकड़ों वर्षों से वहाँ
रह रहे हैं; किन्तु अभी भी रोशनी के लिए
लालटेन का इस्तेमाल करते हैं; कपड़े हाथ से धोते हैं; यात्रा के लिए घोड़ा- गाड़ी रखते हैं और अपने हाथों से सिले वस्त्र पहनते
हैं। ये लोग मैंने अरबाना (शिकागो के समीप
का एक उपनगर) में देखे, ये लोग तथाकथित 'आमिष’ समुदाय से सम्बन्ध रखते हैं और आज भी जीने के
उन तरीकों को अपनाते हैं, जो प्रकृति के अनुकूल माने गए हैं। बीमार पडऩे पर ये
अपना उपचार प्राकृतिक पद्धतियों से करते हैं यानी जहाँ तक सम्भव है, प्रकृति के साथ तालमेल
से रहते हैं। बाद में मालूम हुआ कि इस समुदाय के लोग अमेरिका के कई नगरों के आसपास
रहते हैं और जीविका- उपार्जन के लिए खेती और पशुपालन करते हैं। ये स्वावलम्बीबी
लोग आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर और शारीरिक- मानसिक रूप से चुस्त- दुरुस्त होते
हैं। अमेरिका की तथाकथित 'आधुनिकता’ उन्हें
आज तक प्रभावित नहीं कर पायी है। इससे यह
साबित होता है कि यदि सोच में दम है तो मनुष्य अपनी शर्तों पर भी जी सकता है!
सम्पर्क: सी- 180 , सिद्धार्थ कुंज, सेक्टर-
7, प्लाट नंबर- 17,
द्वारका, नई दिल्ली - 11007
1 comment:
सुभाष जी आपने अमेरिकी लोगों की बहुत सी अच्छी आदतों पर प्रकाश डाला है विशेषकर सफाई पर और पशुओं को गोद लेने पर ।मैं इससे सहमत हूँ बचपन से ही बच्चों को कुत्ता बाहर ले जाते समय सब हिदायतें दे दी जाती हैं और वह सीख जाता है की कुत्ते के मल को सड़क पर नहीं छोड़ना चाहिए । जगह जगह पर फाइन लगाने के नोटिस भी लगे रहते हैं । हम सभी को उनकी अच्छी आदतों से सीखना चाहिए । आपका लेख बहुत अच्छा लगा ।हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ।
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