-डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
जीवन है ..तो कुछ न कुछ घटता ही रहता है। धीरे-धीरे ये पल कुछ
घटनाओं के साथ बस घटते जाते हैं। भले ही उस समय हम उन बातों, घटनाओं पर अधिक ध्यान न दें ;
लेकिन बाद में विचार करने पर उनकी गम्भीरता समझ आती है। ऐसे कई
किस्से हैं; जिन्हें आज याद करती हूँ तो कभी सिहर उठती हूँ
तो कभी मुस्कुरा देती हूँ। कभी चकित हो जाती हूँ तो कभी सोच में डूब जाती हूँ।
ऐसा ही एक किस्सा है मेरी कॉलेज की पहली और आखिरी होली का...! महिला
महाविद्यालय से स्नातक करने के बाद मैंने और मेरी कई सहेलियों ने एम. ए. संस्कृत
के प्रथम वर्ष के लिए दूसरे कॉलेज में प्रवेश लिया। यहाँ सब लड़के-लड़कियाँ साथ
पढ़ते थे। हमारी कक्षाएँ सुबह 10 बजे से 2 बजे तक
चलती थीं। हम कई सखियाँ साथ-साथ घर से निकलतीं और साथ घर लौटतीं थीं। अन्य विषयों
की अपेक्षा हमारी कक्षा में छात्राएँ अधिक थीं छात्र कम तो राज हमारा था, कोई झिझक या हिचकिचाहट नहीं।
यूँ ही अनुशासित;किन्तु मस्त ज़िन्दगी चल रही थी, जब
कभी मन पढ़ने का न हो तो अन्य सामयिक विषयों पर चर्चा, गीत, अंत्याक्षरी भी हो जाया करती थी। कहिये कि हम बस अपने में मगन ज़िन्दगी जी
रहे थे। उन दिनों त्योहारों पर अक्सर हम दादा जी के पास ही परिवार के साथ गाँव चली
जाया करती थी तो कॉलेज के दशहरा, दीवाली आयोजन का कोई अनुभव
ही नहीं हुआ। न ही इस विषय में कभी सोचा। ऐसे ही मस्ती करते पढ़ते मार्च कब आ गया
पता ही नहीं चला। रंग की एकादशी में भी अभी दो दिन थे। होली की छुट्टियों की घोषणा
होनी बाक़ी थी। महिला महाविद्यालय का कोई ऐसा अनुभव न था कि ज़रा भी विचार करने की
ज़रुरत समझते, न किसी ने रोका न टोका।
बेखुदी में हम छह सहेलियों का समूह जा पहुँचा कॉलेज ! अरे ये क्या कोई दिख
ही नहीं रहा आज! महज ऑफिस के कुछ कर्मचारी इक्का-दुक्का अनजान से चेहरे... दिल की
धड़कनें बढऩें लगीं... संस्कृत विभाग की तरफ पहुँचे ही थे कि रंगों से लिपे पुते
लड़कों का झुण्ड हुल्लड़ मचाता हमारी ओर बढ़ा। दिल धक्क... गलती हो चुकी थी
...कॉलेज नहीं आना चाहिए। ..अब क्या?... भागकर संस्कृत विभाग कक्ष में घुसे और
दरवाजा बंद किया ही चाहते थे कि हुलियारे आ धमके... घबराहट में दरवाजा बंद नहीं हो
रहा था या कुण्डी खराब थी राम जाने... लेकिन खूब धक्कम -धक्का हुई। इधर हम छह
लड़कियाँ उधर ढेर सारे लड़कों का झुण्ड। कितनी देर संभाल पाएँगे नहीं सूझ रहा था
कुछ। जान निकली जा रही थी। दरवाजा अब खुला कि तब खुला...जाने क्या सूझी कि मैं आगे
बढ़ी, जब तक सहेलियाँ समझती और मुझे रोकतीं, मैंने थोड़ा- सा दरवाजा खोला और अपना हाथ बाहर निकालकर कहा... होली
मुबारक! आप अपना रंग मुझे दे दीजिए बस! एकाएक शान्ति छा गई... कोई बोला...क्यों?
जाने किस तरह गले से आवाज़ निकली मेरी... हिम्मत कर कहा हम खुद लगा
लेंगे... आज यहाँ आने का गुनाह हमसे हो गया है! सब चुप... एक आवाज़ आई... अभी जाइए
घर ...और ...होली से पहले बिल्कुल मत आइएगा ! मुँह उठाकर कहने वाले चेहरे को नहीं
देख पाई; लेकिन मन
एक अव्यक्त सम्मान के भाव से भर गया। सोचती हूँ सारी शरारतों, बुराइयों के पीछे एक अच्छा दिल ज़रूर छिपा होता है, यह
बात आज पर भी घटित होती है क्या?
रात ही हिस्से / नहीं, रब सुनाए / दिन के किस्से !
सम्पर्क: टावर एच -604, प्रमुख हिल्स, छरवडा रोड, वापी,
जिला- वलसाड (गुजरात) -396191, Email- jyotsna.asharma@yahoo.co.in.
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3 comments:
ज्योत्सना जी आपका अनुभव पढ़कर अच्छा लगा सच है हर दिल अच्छा होता है ऐसा मेरा मानना है । बस कभी कभी शरारत में कोई घटना घट जाती है और वह मानव बुरा हो जाता है ।आपको शुभकामनाएं ।
बहुत बढ़िया संस्मरण भाभीजी। काश! उद्दंड लड़के इससे कुछ सीख ले सकें और स्वयं के लिए सम्मान की राह बना सकें। वेदस्मृति " कृती "
बहुत बढ़िया संस्मरण ज्योत्स्ना जी हार्दिक बधाई
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