ऐसी बानी बोलिए...
- डॉ. रत्ना वर्मा
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय।
कबीर जी ने इस दोहे में बहुत ही सरल
शब्दों में समुचे मानव जगत के लिए वाणी की महत्ता को रेखांकति कर दिया है। सच है-
एक मीठी बोली दुश्मन को भी दोस्त बनाने की ताकत रखती है। कबीर जी का यह दोहा जन जन
में इतना अधिक प्रचलित है कि जब कोई व्यक्ति क्रोध में आकर अप-शब्द बोल देता है तो
आस-पास के लोग तुरंत इस दोहे का प्रयोग करते हैं जिसका त्वरित प्रभाव भी दिखाई
देता है, क्रोध में अप-शब्द बोलने वाला व्यक्ति कबीर
की इस अमर वाणी को सुनते ही तुरंत शांत होते देखा गया है, उसे यह दोहा अहसास करा देता है कि उसने गलती की है।
यह तो हुई आमजन की बात जिनके लिए
हमारे गुरूजन, ऋषि मुनि, ज्ञानी महापुरूषों- कबीर रहीम, रैदास,
सूरदास आदि ने अपने दोहों और वचनों के माध्यम से समाज को
संस्कारवान बनाने और सद्मार्ग पर चलने की राह दिखाई है।
लेकिन हमारे सबसे बड़े लोकतांत्रिक
देश में इधर कुछ बरसों से हमारे जननेता अपनी वाणी पर से सयंम खो बैठे हैं। आज जिस
प्रकार की भाषा शैली का प्रयोग हमारे नेता कर रहे हैं उसमें अहंकार, और दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ नजर आती है। एक दूसरे पर
आरोप-प्रत्यारोप और छीछालेदर का ऐसा दौर चलने लगा है कि लगता है कि नेताओं के बीच
कोई वाद- विवाद प्रतियोगिता चल रही है जिसमें वे दिखाना चाहते हैं कि देखो हम
तुमसे ज्यादा अच्छा अपशब्द बोल सकते हैं। सोचने वाली बात यह है कि ऐसा आचरण करते
समय वे भूल जाते हैं कि सार्वजनिक तौर पर इस तरह की भाषा का प्रयोग करने से समाज
पर क्या असर पड़ेगा। यह समझ से परे है कि अपने प्रतिव्द्ंव्दी के विरूध्द अपशब्दों
का प्रयोग करके वे जनता के सामने कौन सा आदर्श रखना चाहते हैं। मीडिया को भी
नेताओं के इस वाक्युद्ध को खबर बनाकर परोसने में मजा आने लगा है। नेताओं की
बयानबाजी पर बहस कराके एक तरह से मीडिया उन्हें बढ़ावा ही देती है।
इधर चुनाव के समय इस तरह के असंयमित
भाषा के प्रयोग का चलन कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। अपने विरोधी के प्रति अपशब्द या
अभद्र बोली बोल कर राजनीतिक पार्टियाँ शायद यह सोचती हैं कि उन्होंने जनता का दिल
जीत लिया है। वे चुनाव के मूल मुद्दे से ध्यान हटा कर जनता का ध्यान भटकाने की
कोशिश में लगे रहते हैं, पर क्या जनता
इतनी मूर्ख है कि उनके इस बहकावे या इस वाक्युद्ध के भुलावे में आ जाएगी? वास्तविकता तो यह है कि जनता अब भोली नहीं है उनके इस तरह के हथकंडों से वह वाकिफ है।
यह तो सभी जानते हैं कि व्यक्ति के
आचार- विचार और संस्कार उसकी भाषा शैली के माध्यम से परिलक्षित होते हैं, संस्कारवान व्यक्ति अपनी भाषा शैली के माध्यम से भीड़ में
अपनी अलग पहचान छोड़ जाता हैं। राजनैतिक इतिहास में ऐसे कई उदाहरण भरे पड़ें हैं
जहाँ राजनेताओं ने अपनी सुगठित भाषा शैली के माध्यम से जनता के बीच अपनी विशिष्ट
जगह बनाई है- एक वह भी समय था जब राममनोहर लोहिया, सरोजिनी नायडू, जयप्रकाश नारायण और अटल बिहारी
बाजपेयी जैसे राजनेताओं की चुनावी सभा में उन्हें सुनने के लिए भीड़ इकट्ठी करने
की जरूरत नहीं होती थी, लोग स्वयमेव ही दूर-दूर से उन्हें
सुनने के लिए लम्बी-लम्बी यात्रा करके चले आते थे। राजनेताओं के लिए जनता के मन
में आदर और भक्ति का भाव होता था। वे जानते थे कि जिन नेता को वोट देकर उन्होंने
उच्चासन पर बिठाया है वे उनके अपने हैं और उनकी भलाई के लिए ही काम करते हैं। उनकी
जीत इस बात का सबूत है, वे जानते थे कि सुमधुर भाषा किस प्रकार से लोगों पर अपना
असर दिखाती है, क्योंकि वे जो बोलते थे वैसा करके भी
दिखाते थे। उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता था।
कोयल कासे लेत है, कागा काको देय ।
एक मीठी बोली ते, सबका मन हर लेय ॥
पर इन सबसे परे आज की राजनीति और
नेताओं को अपनी कथनी और करनी से कोई मतलब नहीं है। साम दाम दंड भेद से चुनाव जीतना
उनका एकमात्र उद्देश्य हो गया है। कटु भाषा बोलना आज के नेताओं की आदत में शुमार
हो गया है। मीठी वाणी उनके शब्दकोश से गायब हो गई है। राजनीतिक गलियारे में
असयंमित आचरण और अपशब्दों का चलन इतना आम हो चुका है कि चुनावी समर हो या संसद के
भीतर किसी मुद्दे पर कोई बहस, वहाँ भी मर्यादा
की सारी सीमाएँ लाँघी जाती हैं। जिस तरह के दृश्य इन दिनों संसद के सदन में नजर
आते हैं उससे सिर शर्म से झुक जाता है। कुर्सी टेबल फेंकने से लेकर झुमा- झटकी के
साथ जिन अप- शब्दों से हमारे सम्माननीय राजनेता एक दूसरे के साथ व्यवहार करते देखे
जाते हैं वह अब मीडिया के माध्यम से सर्वविदित है।
इन सबको देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि
अब वह समय आ गया है कि सभी दल इस विषय पर आत्मचिंतन करें। अपने-अपने गिरेबान में
झाँककर देखें कि उन्होंने अपना समाज और जनता के चरित्र का कितना उत्थान किया। इसके
साथ ही अब यह सोचने का समय भी आ गया है कि संसद की गरिमा और चुनावी समर को
मर्यादित बनाए रखने के लिए एक गंभीर बहस की जरूरत को समझा जाए। यह तय करने की भी
जरूरत है कि इस तरह के अमार्यादित आचरण पर कौन अंकुश लगायेगा? जिस तरह भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए अपराधी पृष्ठभूमि
वालों को चुनाव में भाग लेने न दिया जाये, इस पर खुल
कर चर्चा आरंभ हो गई है और सख्त नियम कानून बनाए जाने की आवश्यकता महसूस की जाने
लगी है उसी तरह नेताओं की वाणी और आचरण पर लगाम लगाने के लिये भी बहस और चर्चा की
आवश्यकता है।
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