एक अतीत कथा
का पुनर्जीवन
- विनोद साव
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से निकलने वाली मासिक पत्रिका 'उदंती' को अगर प्रोडक्शन के हिसाब से हम देखें तो लगता है कि यह देश की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका है जिसके हर अंक का कलेवर, चित्रांकन, मुद्रण और संपादन इतना मनोहारी बन पड़ता है कि अपनी पहली झलक में यह पत्रिका एक खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड होने का भान कराती है। ऐसा लगता है कि उदंती हर बार अपने पाठकों के पास अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ पहुंच रही है। छत्तीसगढ़ की अस्मिता के लिए रोज- रोज हल्ला करने वाले बुद्धिजीवी इस बात की ओर भी ध्यान दें कि उनके इस नये राज्य में साहित्य और विचार की पत्रिका का कितना अभाव है... और इन स्थितियों में उदंती जैसी कोई एक पत्रिका अपने नितांत निजी संघर्षों के बल पर इस तरह छटा बिखेर रही है तो यह उसके संपादक का कितना उत्तर-दायित्वपूर्ण उपक्रम है। इसे तो छत्तीसगढ़ के लेखकों-पाठकों और सरकार का पुरजोर समर्थन मिलना चाहिए।
बहरहाल, हम इस बात की चर्चा करें कि अपनी कई कोशिशों के बीच विगत फरवरी माह के अंक में उंदती ने इस बात की कोशिश की है कि छत्तीसगढी़ की पहली फिल्म 'कहि देबे सन्देस' की व्यथा कथा को प्रस्तुत किया जाए। यह संग्रहणीय अंक है जिसने एक अतीत बन चुकी कथा को पुनर्जीवित किया है। इसमें संपादक डॉ. रत्ना वर्मा के साथ मोहम्मद जाकिर हुसैन ने छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म के निर्माण, इतिहास और उसकी जद्दोजहद को आलेखबद्ध किया है। इसमें फिल्म निर्माता मनु नायक, गीतकार डॉ. हनुमंत नायडू, संगीतकार मलय चक्रवर्ती, गायक मोहम्मद रफी, महेन्द्र कपूर, मन्नाडे, सुमन कल्याणपुर आदि पर अलग- अलग आलेखों में अनेक ज्ञानवद्र्धक सामग्रियां दी गई हंै। उस समय निर्देशक मनु नायक को फिल्म की शूटिंग के दौरान होने वाली दुविधाओं से उबारकर किस तरह तत्कालीन सांसद बृजलाल वर्मा ने अपने गांव पलारी में उन्हें सुविधाएं मुहैया करवाई इन सबकी जानकारी दी गई है। बृजलाल वर्मा, खूबचंद बघेल, रामचंद्र देशमुख, मंदराजी साव अपने समय के न केवल समृद्ध मालगुजार थे बल्कि ये बड़े कलाप्रेमी और विचारवान लोग थे जिन्होंने अपने समय की कला का कई तरह से उन्नयन किया, अनेक कलाकारों को परखा समझा और उन्हें मंच दिया।
उदंती के इस अंक ने मुझे भी अतीत के उस दौर में पहुंचा दिया जब इस फिल्म का 1964 में पहला प्रदर्शन हुआ था। तब हर नयेपन के प्रति सचेत रहने वाली अपनी अम्मां उर्मिला साव और शिक्षाविद् बाबूजी अर्जुनसिंह साव के साथ इस फिल्म को दुर्ग में देखा था। तब मैं प्रायमरी स्कूल का छात्र था पर इस फिल्म के 'पोएटिक पिक्चराइजेशन' ने मेरे बाल मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी थी। बड़े होने के बाद जब साहित्य जगत में थोड़ी पहचान बनी तब मनु नायक से रामचंद्र देशमुख के घर बघेरा में भेंट हुई थी। दूसरी बार वे प्रेम साइमन के साथ मिले थे। इस फिल्म के गीतकार डॉ. हनुमन्त नायडू बाबूजी के मित्र थे। वे दुर्ग निवासी थे पर उनसे नागपुर में पहली भेंट उनके घर में हुई थी जब वे वहां प्राध्यापक थे। मैंने उनका साक्षात्कार लिया था जिसे प्रसिद्ध पत्रकार राजनारायण मिश्र ने छापा था।
यह फिल्म निदेशक मनु नायक की पहली प्रस्तुति थी जो एक समाजोत्तेजक फिल्म बन गई थी। इसने समाज की संकीर्ण जातीयता को अपनी कथा के केंद्र में रखा था। अपनी सीमित सुविधाओं, आरंभिक प्रयासों और कुछ अनावश्यक दबावों के कारण फिल्म में कई खामियां उभरकर आई थीं लेकिन मलय चक्रवर्ती के मनमोहक संगीत और मोहम्मद रफी जैसे सुरीले गायकों के कारण यह फिल्म हिट हो गई थी और लम्बे समय तक सिनेमा हालों में बार- बार प्रदर्शित होती रही थीं। मध्य प्रदेश शासन के पंचायत एवं समाजसेवा विभाग द्वारा भी इस फिल्म का प्रदर्शन गांव- गांव में किया जाता था। बरसों पहले दिल्ली दूरदर्शन ने इसे रविवार की महत्वपूर्ण फिल्मों में शामिल कर इसे दिखाया था।
इस फिल्म के लोकेशन्स और उनका फिल्मांकन भी इसके सशक्त पक्ष रहे हैं। बलौदाबाजार से पन्द्रह किलोमीटर पहले पडऩे वाले गांव पलारी में इसकी शूटिंग की गईं। पलारी गांव का बालसमुंद तालाब फिल्मांकन के केंद्र में है। यह समुद्र की तरह दिखने वाला संभवत: छत्तीसगढ़ का सबसे विराट तालाब है। फिल्म में तालाब के हर हिस्से को बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया है। तब तालाब के घाट पर एक विशाल तुलसी चौरा हुआ करता था जिस पर 'बिहनिया के उगत सुरुज देवता' जैसे मधुर गीत को फिल्माया गया था, जिसे सुमन कल्याणपुर ने स्वर दिया था। यह अपने मधुर गीतों और बालसमुन्द तालाब तट के मोहक दृश्यों के कारण एक दर्शनीय फिल्म बन गई थी।
छत्तीसगढ़ शासन को चाहिए कि वह फिल्म डिवीजन या एसोसिएशन जैसे किसी संगठन के माध्यम से इस पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म का रि-प्रिन्ट बनवा का उसे सुरक्षित रखे। साथ ही पलारी के उस विराट तालाब 'बालसमुन्द' और उसके किनारे स्थित 9 वीं सदी के पुरातन सिद्धेश्वर मंदिर की भव्यता को रख उसमें पर्यटन की संभावनाओं को तलाशे।
संपर्क- मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 मो. 09407984014
vinod.sao1955@gmail.com
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से निकलने वाली मासिक पत्रिका 'उदंती' को अगर प्रोडक्शन के हिसाब से हम देखें तो लगता है कि यह देश की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका है जिसके हर अंक का कलेवर, चित्रांकन, मुद्रण और संपादन इतना मनोहारी बन पड़ता है कि अपनी पहली झलक में यह पत्रिका एक खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड होने का भान कराती है। ऐसा लगता है कि उदंती हर बार अपने पाठकों के पास अनेकानेक शुभकामनाओं के साथ पहुंच रही है। छत्तीसगढ़ की अस्मिता के लिए रोज- रोज हल्ला करने वाले बुद्धिजीवी इस बात की ओर भी ध्यान दें कि उनके इस नये राज्य में साहित्य और विचार की पत्रिका का कितना अभाव है... और इन स्थितियों में उदंती जैसी कोई एक पत्रिका अपने नितांत निजी संघर्षों के बल पर इस तरह छटा बिखेर रही है तो यह उसके संपादक का कितना उत्तर-दायित्वपूर्ण उपक्रम है। इसे तो छत्तीसगढ़ के लेखकों-पाठकों और सरकार का पुरजोर समर्थन मिलना चाहिए।
बहरहाल, हम इस बात की चर्चा करें कि अपनी कई कोशिशों के बीच विगत फरवरी माह के अंक में उंदती ने इस बात की कोशिश की है कि छत्तीसगढी़ की पहली फिल्म 'कहि देबे सन्देस' की व्यथा कथा को प्रस्तुत किया जाए। यह संग्रहणीय अंक है जिसने एक अतीत बन चुकी कथा को पुनर्जीवित किया है। इसमें संपादक डॉ. रत्ना वर्मा के साथ मोहम्मद जाकिर हुसैन ने छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म के निर्माण, इतिहास और उसकी जद्दोजहद को आलेखबद्ध किया है। इसमें फिल्म निर्माता मनु नायक, गीतकार डॉ. हनुमंत नायडू, संगीतकार मलय चक्रवर्ती, गायक मोहम्मद रफी, महेन्द्र कपूर, मन्नाडे, सुमन कल्याणपुर आदि पर अलग- अलग आलेखों में अनेक ज्ञानवद्र्धक सामग्रियां दी गई हंै। उस समय निर्देशक मनु नायक को फिल्म की शूटिंग के दौरान होने वाली दुविधाओं से उबारकर किस तरह तत्कालीन सांसद बृजलाल वर्मा ने अपने गांव पलारी में उन्हें सुविधाएं मुहैया करवाई इन सबकी जानकारी दी गई है। बृजलाल वर्मा, खूबचंद बघेल, रामचंद्र देशमुख, मंदराजी साव अपने समय के न केवल समृद्ध मालगुजार थे बल्कि ये बड़े कलाप्रेमी और विचारवान लोग थे जिन्होंने अपने समय की कला का कई तरह से उन्नयन किया, अनेक कलाकारों को परखा समझा और उन्हें मंच दिया।
उदंती के इस अंक ने मुझे भी अतीत के उस दौर में पहुंचा दिया जब इस फिल्म का 1964 में पहला प्रदर्शन हुआ था। तब हर नयेपन के प्रति सचेत रहने वाली अपनी अम्मां उर्मिला साव और शिक्षाविद् बाबूजी अर्जुनसिंह साव के साथ इस फिल्म को दुर्ग में देखा था। तब मैं प्रायमरी स्कूल का छात्र था पर इस फिल्म के 'पोएटिक पिक्चराइजेशन' ने मेरे बाल मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी थी। बड़े होने के बाद जब साहित्य जगत में थोड़ी पहचान बनी तब मनु नायक से रामचंद्र देशमुख के घर बघेरा में भेंट हुई थी। दूसरी बार वे प्रेम साइमन के साथ मिले थे। इस फिल्म के गीतकार डॉ. हनुमन्त नायडू बाबूजी के मित्र थे। वे दुर्ग निवासी थे पर उनसे नागपुर में पहली भेंट उनके घर में हुई थी जब वे वहां प्राध्यापक थे। मैंने उनका साक्षात्कार लिया था जिसे प्रसिद्ध पत्रकार राजनारायण मिश्र ने छापा था।
यह फिल्म निदेशक मनु नायक की पहली प्रस्तुति थी जो एक समाजोत्तेजक फिल्म बन गई थी। इसने समाज की संकीर्ण जातीयता को अपनी कथा के केंद्र में रखा था। अपनी सीमित सुविधाओं, आरंभिक प्रयासों और कुछ अनावश्यक दबावों के कारण फिल्म में कई खामियां उभरकर आई थीं लेकिन मलय चक्रवर्ती के मनमोहक संगीत और मोहम्मद रफी जैसे सुरीले गायकों के कारण यह फिल्म हिट हो गई थी और लम्बे समय तक सिनेमा हालों में बार- बार प्रदर्शित होती रही थीं। मध्य प्रदेश शासन के पंचायत एवं समाजसेवा विभाग द्वारा भी इस फिल्म का प्रदर्शन गांव- गांव में किया जाता था। बरसों पहले दिल्ली दूरदर्शन ने इसे रविवार की महत्वपूर्ण फिल्मों में शामिल कर इसे दिखाया था।
इस फिल्म के लोकेशन्स और उनका फिल्मांकन भी इसके सशक्त पक्ष रहे हैं। बलौदाबाजार से पन्द्रह किलोमीटर पहले पडऩे वाले गांव पलारी में इसकी शूटिंग की गईं। पलारी गांव का बालसमुंद तालाब फिल्मांकन के केंद्र में है। यह समुद्र की तरह दिखने वाला संभवत: छत्तीसगढ़ का सबसे विराट तालाब है। फिल्म में तालाब के हर हिस्से को बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया है। तब तालाब के घाट पर एक विशाल तुलसी चौरा हुआ करता था जिस पर 'बिहनिया के उगत सुरुज देवता' जैसे मधुर गीत को फिल्माया गया था, जिसे सुमन कल्याणपुर ने स्वर दिया था। यह अपने मधुर गीतों और बालसमुन्द तालाब तट के मोहक दृश्यों के कारण एक दर्शनीय फिल्म बन गई थी।
छत्तीसगढ़ शासन को चाहिए कि वह फिल्म डिवीजन या एसोसिएशन जैसे किसी संगठन के माध्यम से इस पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म का रि-प्रिन्ट बनवा का उसे सुरक्षित रखे। साथ ही पलारी के उस विराट तालाब 'बालसमुन्द' और उसके किनारे स्थित 9 वीं सदी के पुरातन सिद्धेश्वर मंदिर की भव्यता को रख उसमें पर्यटन की संभावनाओं को तलाशे।
संपर्क- मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 मो. 09407984014
vinod.sao1955@gmail.com
आपके पत्र/ मेल बॉक्स
ब्लॉग बुलेटिन का स्वागत
उदंती
के फरवरी अंक से आरंभ ब्लॉग बुलेटिन स्तंभ स्वागतेय है। 'लहरें... एक नशा
है अहसासों काÓ निसंदेह पूजा जी बेहतरीन लिखती हैं। मैंने हाल ही में उनको
पढऩा शुरू किया है। उनके शब्द बातें करते जान पड़ते हैं। ब्लॉग बुलेटिन
स्तंभ की शुरुआत पूजा जी के ब्लॉग से हुई है यह बड़े संयोग की बात है। एक
शानदार पत्रिका (उदंती) के नए कॉलम में उन्हें जगह मिली इसके लिए पूजा जी
को बधाई।
- लोकेन्द्र सिंह राजपूत, ग्वालियर (मप्र)
lokendra777@gmail.com
दिल को छुने वाली ग़ज़लें
प्राण
जी की ग़ज़लें, जिंदगी की सच्ची दास्तावेज होती हैं.. उनकी गज़लों में कल,
आज और कल का मिश्रण होता है, जो की भावपूर्ण शब्दों के द्वारा दिल में उतर
जाता है।
- विजय कुमार, vksappatti@gmail.com
प्राण जी अपने आस- पास की बातों को सादे लहजे गज़ल में उतारना उन्हीं के बस की बात है...
- समीर लाल, sameer.lal@gmail.com
मर्मस्पर्शी लेख
आपाधापी एवं स्वार्थ- पीडि़त समाज में ऐसे लेखों की बहुत बड़ी भूमिका है, तपते मरुस्थल में शीतल जल की तरह। पूरा लेख मर्मस्पर्शी और प्रवाह पूर्ण है । इस तरह के लेखन को बनाए रखिए। (फरवरी अंक में रफी साहब की दरियादिली देख... शीर्षक से प्रकाशित लेख के बारे में।)
- रामेश्वर काम्बोज, rdkamboj@gmail.com
संग्रहणीय अंक
कहि देबे संदेस फिल्म का नाम बचपन से सुनता रहा हूं, हालांकि देखने का मौका अब तक नहीं मिला है। इसमें अहम किरदार निभाने वाले स्व. रमाकांत बख्शी का पैतृक निवास खैरागढ़ के हमारे मोहल्ले में ही है, इसलिए इस फिल्म से बिना देखे ही एक अलग तरह का लगाव महसूस होता है। गाने जरूर सुने हैं और उनकी मिठास का कायल भी हूं। विशेषांक के माध्यम से फिल्म की पूरी जानकारी मिली। यह एक बढिय़ा अंक था और संग्रहणीय भी।
- विवेक गुप्ता, vivekbalkrishna@gmail.com
--
2 comments:
बढिय़ा और संग्रहनीय अंक, उदंती.कॉम
[charichugli.bligspot.com]
बढिय़ा और संग्रहनीय अंक, उदंती.कॉम
[charichugli.bligspot.com]
Post a Comment