प्रगति पर कभी पूर्ण-विराम नहीं लगता
उदन्ती का नया अंक मिला। उदंती उन्नत कलेवर में प्रकाशित हो रही है यह प्रसन्नता और परितोष की बात है। विकास और प्रगति पर कभी पूर्ण- विराम नहीं लगता। समय देवता बहुत कुछ सुझाता रहता है। अगले अंक और अधिक आकर्षक होंगे मुझे विश्वास है। यह अंक भी पठनीय व गुणवत्ता से भरपूर है।
- बालकवि बैरागी, मनासा (जिला-नीमच) मध्यप्रदेश मोबाइल- 07423221819
क्या हम 21 वीं सदी में हैं
विडम्बना तो यह है कि खाप पंचायत के कर्ताधर्ताओं पर अभी भी कोई असर नहीं पड़ा है। उन्होंने पंचायत करके यह फैसला किया है कि वे कोर्ट के फैसले को नहीं मानेंगे। यह विचारणीय है कि क्या हम सचमुच 21 वीं सदी में हैं। हरदर्शन जी की आश्वस्त लघुकथा सही मायने में लघुकथा है, जो अंत में ले जाकर पाठक को चौंकाती है बधाई। पहली और तीसरी लघुकथाएं कमजोर हैं। मार्च अंक की कहानी आईटीओ पुल एक क्लाइमेक्स पर पहुंचकर अचानक खत्म क्यों कर दी गई मुक्ता जी यह समझ नहीं आया। और न ही यह कि सोमा अखबारों के दफ्तर की ओर क्यों गई। फिर भी कहानी में एक प्रवाह और बांधने की क्षमता है इसमें कोई शंका नहीं। ...और मैं कुरार गांव का कवि बन गया सचमुच सुंदर कविता हैं। यह कुरार गांव कहीं भी हो सकता है। बीस पचीस साल पहले लिखी गई यह कविता कई मायनों में आज भी उतनी ही मौजू है। मैं यहां बंगलौर में ऐसे कई कुरार गांव देखता हूं। बधाई देवमणि जी।
- राजेश उत्साही, बैंगलोर utsahi@gmail.com
अच्छी शुरुआत
उम्मे सलमा की पेंटिंग बहुत सुंदर है। उनके बनाए फूल कैनवास पर सजीव हो उठे हैं। उन्होंने बहुत अच्छी शुरुआत की है। भविष्य निश्चित ही उज्जवल है। उम्मे की सफलता के लिए शुभकामनाएं।
- राज, नेहा
समस्या से रू-ब-रू
उदन्ती का नया अंक देखा। अनुपम मिश्र जी के सभी लेख किसी न किसी गंभीर समस्या से रू-ब-रू कराते हैं। इस अंक में प्रकाशित समस्या बड़ी गंभीर है लेख तो आने वाली और भयंकर स्थिति की दस्तक देता है। हाथी चिडिय़ा की जानकारी भी मिली। आपका प्रयास सराहनीय है।
-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' rdkamboj@gmail.com
विज्ञान का लाभ समाज को
'विज्ञान का यह वरदान मेरे शहर में क्यों नहीं?' उम्दा लेख है। यादों के बहाने राहुल जी ने बहुत बड़ा सवाल उठाया है। विलासिता के अविष्कार तो बहुत जल्दी हमारी पहुंच में आ जाते हैं, लेकिन समाजोपयोगी तकनीक के आने में बड़ी देर और कभी- कभी तो अंधेर भी हो जाती है। साइंस अगर वरदान भी है, तो उसका लाभ समाज को मिलना ही चाहिए। निजी सुविधाओं के लिए तो धड़ाधड़ अविष्कार हो रहे हैं, पर समाज की चिंता भी कोई करेगा?
- विवेक गुप्ता, भोपाल
सुंदर और मनमोहक चॉकलेट कथा
'चॉकलेट दर्द की दवा !' लेख पढऩे पर यही लगता है कि अब दवाई नहीं सिर्फ चॉकलेट खाकर ही दर्द भगायेंगे पर उन बच्चों का क्या और बड़ों का भी क्या, जो चाकलेट के लालच में झूठे ही दर्द बतलायेंगे और खूब चॉकलेट खायेंगे। निश्चित ही इससे चॉकलेट कंपनियों के वारे- न्यारे हो जायेंगे और दर्द निवारक दवाईयों वालों के सिर में दर्द होगा और वे भी दर्द भगाने के लिए चॉकलेट ही खायेंगे। सुंदर और मनमोहक चॉकलेट कथा।
- बालकवि बैरागी, मनासा (जिला-नीमच) मध्यप्रदेश मोबाइल- 07423221819
क्या हम 21 वीं सदी में हैं
विडम्बना तो यह है कि खाप पंचायत के कर्ताधर्ताओं पर अभी भी कोई असर नहीं पड़ा है। उन्होंने पंचायत करके यह फैसला किया है कि वे कोर्ट के फैसले को नहीं मानेंगे। यह विचारणीय है कि क्या हम सचमुच 21 वीं सदी में हैं। हरदर्शन जी की आश्वस्त लघुकथा सही मायने में लघुकथा है, जो अंत में ले जाकर पाठक को चौंकाती है बधाई। पहली और तीसरी लघुकथाएं कमजोर हैं। मार्च अंक की कहानी आईटीओ पुल एक क्लाइमेक्स पर पहुंचकर अचानक खत्म क्यों कर दी गई मुक्ता जी यह समझ नहीं आया। और न ही यह कि सोमा अखबारों के दफ्तर की ओर क्यों गई। फिर भी कहानी में एक प्रवाह और बांधने की क्षमता है इसमें कोई शंका नहीं। ...और मैं कुरार गांव का कवि बन गया सचमुच सुंदर कविता हैं। यह कुरार गांव कहीं भी हो सकता है। बीस पचीस साल पहले लिखी गई यह कविता कई मायनों में आज भी उतनी ही मौजू है। मैं यहां बंगलौर में ऐसे कई कुरार गांव देखता हूं। बधाई देवमणि जी।
- राजेश उत्साही, बैंगलोर utsahi@gmail.com
अच्छी शुरुआत
उम्मे सलमा की पेंटिंग बहुत सुंदर है। उनके बनाए फूल कैनवास पर सजीव हो उठे हैं। उन्होंने बहुत अच्छी शुरुआत की है। भविष्य निश्चित ही उज्जवल है। उम्मे की सफलता के लिए शुभकामनाएं।
- राज, नेहा
समस्या से रू-ब-रू
उदन्ती का नया अंक देखा। अनुपम मिश्र जी के सभी लेख किसी न किसी गंभीर समस्या से रू-ब-रू कराते हैं। इस अंक में प्रकाशित समस्या बड़ी गंभीर है लेख तो आने वाली और भयंकर स्थिति की दस्तक देता है। हाथी चिडिय़ा की जानकारी भी मिली। आपका प्रयास सराहनीय है।
-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' rdkamboj@gmail.com
विज्ञान का लाभ समाज को
'विज्ञान का यह वरदान मेरे शहर में क्यों नहीं?' उम्दा लेख है। यादों के बहाने राहुल जी ने बहुत बड़ा सवाल उठाया है। विलासिता के अविष्कार तो बहुत जल्दी हमारी पहुंच में आ जाते हैं, लेकिन समाजोपयोगी तकनीक के आने में बड़ी देर और कभी- कभी तो अंधेर भी हो जाती है। साइंस अगर वरदान भी है, तो उसका लाभ समाज को मिलना ही चाहिए। निजी सुविधाओं के लिए तो धड़ाधड़ अविष्कार हो रहे हैं, पर समाज की चिंता भी कोई करेगा?
- विवेक गुप्ता, भोपाल
सुंदर और मनमोहक चॉकलेट कथा
'चॉकलेट दर्द की दवा !' लेख पढऩे पर यही लगता है कि अब दवाई नहीं सिर्फ चॉकलेट खाकर ही दर्द भगायेंगे पर उन बच्चों का क्या और बड़ों का भी क्या, जो चाकलेट के लालच में झूठे ही दर्द बतलायेंगे और खूब चॉकलेट खायेंगे। निश्चित ही इससे चॉकलेट कंपनियों के वारे- न्यारे हो जायेंगे और दर्द निवारक दवाईयों वालों के सिर में दर्द होगा और वे भी दर्द भगाने के लिए चॉकलेट ही खायेंगे। सुंदर और मनमोहक चॉकलेट कथा।
- अविनाश वाचस्पति, avinashvachaspati@gmail.com
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