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Apr 19, 2010

राजा विक्रम और हिंदी का पिशाच

- जवाहर चौधरी
राजा विक्रमादित्य सुबह की सैर के लिए वन से होकर गुजर रहे थे कि अचानक पेड़ से एक पिशाच ठीक उनके सामने टपक पड़ा और उछलकर उनके कंधे पर लटक गया। राजा पहले चौंके लेकिन दूसरे ही क्षण झिड़कते हुए उन्होंने पिशाच को नीचे पटक दिया। चीखते हुए बोले- ये क्या बदतमीजी है, पेड़ पर लटककर सोते नहीं बनता तो नीचे जमीन पर क्यों नहीं सोते हो? इस तरह किसी राहगीर पर गिरते तुम्हें शरम नहीं आती है? पिशाच कहीं के! मार्निंग वाक पर हूं, तलवार नहीं है वरना तुम्हारी गर्दन उड़ा देता। ईडियट!
नाराज न हों राजन, हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है...। पिशाच ने मुस्कराते हुए राजा को याद दिलाया।
तो? राजा ने बेरुखी से पूछा।
मैं हिंदी का पिशाच हूं... ग्लैड टू मीट यू सर। पिशाच ने शेक हैंड के लिए हाथ बढ़ाया।
तुम!! तुम हिंदी के पिशाच कैसे हो? राजा ने हाथ मिलाए बगैर पूछा!
हिंदी के पेड़ पर लटका हूं इसलिए हिंदी का पिशाच हूं... हिस्ट्री के पेड़ पर होता तो हिस्ट्री का पिशाच होता ... हें- हें...हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है... ग्लैड टू मीट यू सर ...! पिशाच ने एक बार फिर हाथ बढ़ाया।
राजा ने एक नजर पेड़ पर डाली। पेड़ काफी पुराना और बड़ा दिख रहा था। पत्तियां कम थीं लेकिन डालियां बहुत। प्राय: हर डाल पर छोटे- बड़े पिशाचगण औंधे लटके सो रहे थे। जो सो नहीं रहे थे वे एक दूसरे की टांगें खींचकर अपनी सक्रियता बनाए हुए थे। चकित राजा के मुंह से बोल फूटे- ओह! तो ये है हिन्दी का पेड़!
मैं इसका सीनियर पिशाच हूं। पिशाच बोला।
सीनियर मोस्ट? राजा ने उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए पूछा।
नहीं, काफी सारे हैं जो मुझसे सीनियर हैं। लेकिन वे तो अब प्राय: सोते रहते है। मैं एक्टिव हूं... ग्लेड टू मीट यू सर। पिशाच ने दोनों हाथ आगे बढ़ाए लेकिन राजा ने इस बार भी अनदेखा कर दिया।
इस पेड़ के लिए कुछ करते हो या यूं ही लटके रहते हो?
मैं इसका पेड़-सेवी हूं... आप रूकें तो मैं ऊपर से फोटो और अखबार की कतरनों वाली फाइल लाकर दिखाता हूं। पिशाच ने राजा को विश्वास दिलाना चाहा।
ठीक है, माना कि तुम पेड़-सेवी हो, पर करते क्या हो इस पेड़ के लिए? राजा को अभी तक माजरा समझ में नहीं आया था।
आप देख रहे हैं राजन, पेड़ काफी सूख गया है... अब इसकी वो शोभा नहीं रही जो पहले थी। नये पत्ते नहीं आ रहे है। लेकिन आप देखिए, अब इस पर बहुत से पत्ते हैं! दरअसल ये पत्ते नहीं पिशाच हैं?
ऐंं! ये पत्ते नहीं पिशाच हैं?
जी हां देखिए हरे पिशाचों से लदा ये पेड़ कितना हरा-भरा लग रहा है। यह मेरी पेड़ सेवा है... ग्लैड टू मीट यू सर। पिशाच ने हाथ बढ़ाया लेकिन राजा ने कोई रिस्पॉन्स नहीं दिया।
इससे तो पेड़ पर बहुत बोझ बढ़ गया होगा?... मैं राज्य की ओर से इस पेड़ के लिए काफी सारा अनुदान देता हूं, उसका क्या होता है? राजा को याद आया।
वो अनुदान तो कम पड़ता है सर। सेमीनार, कांफ्रेंस होते हैं, टीए, डीए दिया जाता है, और भी बहुत से खर्च है। इन्हीं सब चीजों का तो आर्कषण है वरना क्या मतलब है, कोई क्यों अपना समय बर्बाद करेगा इस पेड़ पर लटक कर। ... अब हम पेड़ सेवियों का महासंघ बनाना चाहते हैं, उसका बजट काफी है, बताऊं? पिशाच ने योजना पर प्रकाश डालना चाहा।
लेकिन इससे तो पेड़ पर वजन और बढ़ेगा! राजा ने चिंता व्यक्त की।
आप तो सिर्फ अनुदान देते रहिए सर, बाकी काम पिशाचों पर छोड़ दीजिए। कहते हुए पिशाच दोबारा उचक कर राजा के कंधों पर चढ़ गया। बोला- आज हिंदी दिवस है राजन... आपके कंधों पर लटका मैं आपके महल तक जाऊंगा और रास्ते में समय काटने के लिए आपको एक कथा भी सुनाऊंगा।
राजा के पास समय नहीं था। रोज मार्निंग वाक के बाद वे कम्प्यूटर पर अपनी मेल चेक करते हैं। अंग्रेजी के कारण उसमें काफी समय लग जाता है। राजा ने उसे फिर से पटक दिया। अगले हफ्ते ले चलूंगा तुम्हें, अभी मेरे पास समय नहीं। हटो रास्ते से।
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है राजन! मैं आप पर लदकर जाऊंगा तो जनता देखकर यह सोचेगी कि आप मुझे लादकर ला रहे हैं। इससे आपका और मेरा दोनों का सम्मान बढ़ेगा, लोग पूजा करने लगेंगे। आप जानते हैं कि राजा और पिशाच पूजा पर ही जिंदा रहते आए हैं। पिशाच ने राजा को अपने प्रभाव में लिया।
इतनी सी बात के लिए तुम्हें उठाकर ले जाऊं? राजा राजी नहीं हुए।
आज आप मेरा सार्वजनिक अभिनंदन करेंगे, शाल, श्रीफल देंगे, आरती और वंदना भी करेंगे और मुझसे आशीर्वाद लेंगे। आज हिंदी दिवस है, यह सब करवा कर मैं वापस उड़ जाऊंगा और पेड़ पर लटक जाऊंगा। इससे आपको और राज्य को महानता मिलेगी। चलो राजन, अब देर न करो। पिशाच ने राजा का कंधा मजबूती से पकड़ लिया। राजा के पास तलवार नहीं थी, दूसरा कोई रास्ता नहीं देखकर राजा चल पड़ा।
राजा को पता था कि अब पिशाच उसे कथा सुनाकर बोर करेगा, इसलिए उसने पहले दांव मारते हुए कहा- पिशाच हमेशा तुम मुझे कथा सुनाते हो, आज रास्ता काटने के लिए मैं तुम्हें कथा सुनाता हूं, सुनो- बलिहारपुर में एक गरीब ब्राम्हण रहता था। एक वर्ष नगर में अकाल पड़ा, लोगों को खाने के लाले पड़ गये। ब्राम्हण को कई दिनों से भिक्षा भी नहीं मिली। भूखों मरने की स्थिति देख उसने बलिहारपुर से पलायन कर दूसरे राज्य की शरण ली। वहां लोग शिक्षा के आग्रही थे, ब्राम्हण ने हिंदी को एक महान भाषा बताया और पढ़ाना आरंभ किया। शीघ्र ही विद्यार्थी आने लगे साथ में शुल्क और दक्षिणा भी लाने लगे। ब्राम्हण की हालत सुधरने लगी। धन-धान्य आया, भवन बनाया, दूसरे सुख-साधन भी जुटाए। हिंदी की महानता का हर व्याख्यान स्वयं उसे महान बनाता गया। कुछ ही वर्षों में वह हिंदी, देव घोषित कर दिया गया। इस बीच उसके तीन पुत्र बड़े होकर शिक्षा प्राप्त करने के योग्य हुए। ब्राम्हण ने तीनों पुत्रों को चुपके से अंग्रेजी भाषा पढऩे के लिए दूसरे स्थान पर भेजना आरंभ कर दिया। घर में भी वह अपने बच्चों से स्वयं अंग्रेजी में बात करने का प्रयत्न करता। हिन्दी बोलने पर प्राय: बच्चों को फटकार भी लगाता। किंतु इन सबके चलते वह दूसरों को हिंदी की महानता के व्याख्यान देता रहा। हे पिशाच प्रमुख! तुम बताओ कि ब्राम्हण ने जिस भाषा के माध्यम से अपना सब कुछ निर्माण किया उसने अपने पुत्रों को उसी भाषा में शिक्षा क्यों नहीं लेने दी? उसे अपनी सिद्ध और अनुभूत भाषा पर विश्वास क्यों नहीं था? यदि तुमने इस प्रश्न का जवाब जानबूझ कर नहीं दिया तो मैं आज तुम्हें यहीं पटक दूंगा और हिंदी दिवस पर तुम्हारा सम्मान नहीं करूंगा।
पिशाच कुछ देर चुप रहा, फिर अपने संकोच को दबाकर उसने जवाब दिया- हे राजन! आपकी कथा का वह ब्राम्हण मैं ही हूं! आज हिंदी का बड़े-से- बड़ा पिशाच अंग्रेजी के भूत से डरता है। एक अकेला भूत पिशाचों के पूरे डिपार्टमेंट पर भारी पड़ता है। अगर हम हिंदी के साथ बीच-बीच में भूतों की भाषा नहीं बोलें तो लोग हमें गंवार समझकर उपेक्षा करते हैं। हर पिशाच के साथ पहचान का संकट पैदा हो गया है। पिशाचहीन- भावना से ग्रसित हैं। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे भूतों की तरह पूरी दुनिया में विचरण करें, पिशाचों की तरह सिर्फ एक पेड़ पर लटके नहीं रहे।
उत्तर सुनकर राजा को बहुत क्रोध आया और उसने पिशाच को पटक देना चाहा। लेकिन पिशाच में आत्मसम्मान भी नहीं था, उसने हंसते हुए कहा- राजन मैंने सही उत्तर दिया है। और अब वादे के अनुसार न तुम मुझे यहां पटक सकते हो और न ही मेरा सम्मान करने से मना कर सकते हो। आज हिंदी दिवस है... हा... हा... हा.... कहते हुए उसने राजा की जेब में हाथ डालकर पर्स टटोला।
संपर्क - 16 कौशल्यापुरी, चितावद रोड, इन्दौर - 452001 , फोन - 098263 61533
व्यंग्यकार के बारे में ...
व्यंग्य की शैली में जब कोई कथा कही जाती है तब वह व्यंग्यकथा कहलाती है। इस तरह की व्यंग्य कथाएं जब फंतासी में कही जाती हैं तब वे और भी सरस व प्रभावकारी हो जाती हैं। ऐसे फंतासी कथा लेखन में शरद जोशी को महारत हासिल थी। यहां जवाहर चौधरी की प्रस्तुत व्यंग्य रचना 'राजा विक्रम और हिंदी का पिशाच' फंतासी में लिखी गई एक ऐसी ही व्यंग्य कथा है। लेखक ने विक्रम और बेताल जैसे चरित्र के माध्यम से कुछ ऐसे संवाद रचे हैं जिसमें अंग्रेजी के अंधड़ में भारतीय भाषाओं की पताकाएं कहां उड़ी जा रही हैं इस दशा का चित्रण है। हिंदी के विज्ञजनों द्वारा अंग्रेजी बोलने का लोभ संवरण नहीं कर पाना, रोजगार जन्य परिस्थितियों के कारण हिंदी हिंदी का हल्ला बोलकर अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाने को विवश होना, हिंदी के नाम पर सरकार से भारी भरकम अनुदान की राशि झोंककर राजभाषा विभागों द्वारा येन-केन-प्रकारेण अपने कर्तव्यों की इतिश्री करना। इस प्रकार हिंदी के पिशाचों पर किस तरह अंग्रेजी का भूत सवार रहता है, इन हास्यास्पद स्थितियों की ओर व्यंग्यकार की भृकुटि तनी हुई है। यहां हाजिर रचना में लेखक की इस अदायगी को बखूबी महसूस किया जा सकता है।
- विनोद साव



2 comments:

rakeshindore.blogspot.com said...

jawahar chudhari hamaare samy ke bahut sashkt wyangkaar hain . hindi keevstvik esthitee pr unhone theek se prkash dala hai .

हर्ष बहल said...

Bahut dukh hota hai ki aaj kal ke mata pita vahi brhamin ban gaye hain.
Mujhe Apane ghar me english medium school me padhney ke bavjood Hindi ke prati atyant laggav ke karan daant sunne padti hai.Hindi sahitya padhne par ghar walon ki bhrikuti tan jati hai.