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Nov 1, 2021

छत्तीसगढ़ की दीवालीः लोक संस्कृति में ग्वालिन पूजा

दीपावली पर्व की तैयारी तभी से दिखाई देने लगती है,  जब कुम्हारों के घर चाक पर मिट्टी के दीये बनने शुरू हो जाते हैं। आपने देखा होगा,  मिट्टी के दीयों के साथ – साथ कुम्हार ग्वालिन की मूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में बनाते हैं। दीयों के साथ- साथ  विभिन्न रंगों से रँगी तरह – तरह की ग्वालिन की मूर्तियाँ  बाजार में नज़र आने लगती हैं। क्या आप जानते हैं कि दीपावली पर्व में इन ग्वालिनों का क्या महत्व है। ग्वालिन मात्र एक दीये का प्रकार नहीं है;  बल्कि यह ग्वालिन के रूप में लक्ष्मी का प्रतीक है। जिसको दीपावली के दिन  पूजा जाता है। 
छत्तीसगढ़ में अधिकतर गाँव के घर आँगन वाले होते हैं, जहाँ प्रत्येक आँगन में तुलसी चौरा रखने की परम्परा है। इसी तुलसी चौरा में दीये वाली एक मूर्ति आपको अवश्य दिखाई दे जाएगी। दीप धारण की हुई यह मूर्ति ही ग्वालिन कहलाती है। यह मूर्ति  तीन, पाँच, सात या नौ दियों वाली बनाई जाती है।  नौ दिये वाली ग्वालिन को नौ ग्रहों से जोड़कर देखा जाता है। प्रत्येक दीपक को एक ग्रह का सूचक माना जाता है। इस मिट्टी की मूर्ति को लक्ष्मी के समकक्ष ही पूजा जाता है।  मिट्टी के दियों के साथ- साथ कुम्हार हर साल दीपावली के समय मिट्टी की ग्वालिन की मूर्तियाँ  भी बनाते हैं। तुलसी चौरा में रखी इस मूर्ति को दूसरी दीवाली आने तक रखा  जाता है। पहली वाली मूर्ति  विसर्जित कर दी जाती है। ऐसा माना जाता है कि यह ग्वालिन घरों में क्लेश, विघ्न-बाधाओं और दोष को दूर कर खुशहाली लाती हैं।

आधुनिकता के साथ परिवर्तन स्पष्ट दिखाई दे  रहा है। फिर भी कुछ पुरानी परम्पराएँ आज भी किसी न किसी रूप में हमारे समाज में विद्यमान हैं। लक्ष्मी यानी  ग्वालिन का पूजा भी उन्हीं परम्पराओं में से एक है ग्वालिन पूजा। कई  दीपों को धारण करने वाली यह ग्वालिन धन-धान्य व समृद्धि की प्रतीक मानी जाती है। ऐसा मान्यता है कि ग्वालिन घरों से कलह, दोष आदि को दूर करती हैं। छत्तीसगढ़ी लोक में दीवाली के जो प्रतीक हम देखते हैं, वह कृषि आधारित श्रमिक वर्ग के उत्सव के अधिक करीब हैं। इस लिहाज से ग्वालिन पूजा का महत्त्व ग्रामीण क्षेत्रों में बहुतायत से दिखाई देता है।

लक्ष्मी के वैसे तो हजारों रूप हैं, लेकिन मूल अठारह रूपों में इनकी पूजा होती है। महालक्ष्मी इनकी प्रधान देवी कही गई हैं। इन रूपों में एक दरिद्र लक्ष्मी भी हैं, जो कि समूचे बुंदेलखंड, महाकोशल, छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र सहित अनेक हिन्दी भाषी राज्यों में पूजी जाती हैं।

ग्वालिन पूजा के संदर्भ में इतिहासकारों का मत है कि-  ‘ग्वालिन पूजन की परंपरा कल्चुरी काल से भी पुरानी है। मूल रूप से यह परंपरा बुंदेलखंड की मानी जाती है, जो आस-पास के दूसरे प्रदेशों में भी प्रचलित होती चली गई।  पहले सम्पन्न लोग सोने- चाँदी और पीतल से बने लक्ष्मी-गणेश का पूजन करते थे, लेकिन गरीब व निचला तबका इस पूजन के योग्य नहीं माना जाता था, या कह सकते है उनकी हैसियत इतनी नहीं होती थी कि वे सोने- चाँदी की मूर्तियाँ बनवा सकें।  संभवतः इसके बाद ही  दरिद्र लक्ष्मी या ग्वालिन के पूजन का प्रचलन प्रकाश में आया होगा। और इसे दरिद्र लक्ष्मी का नाम दे दिया गया। दरिद्र लक्ष्मी गरीबों व निचले तबकों को सुख समृद्धि प्रदान करने वाली मानी। इस तरह ग्वालिन की पूजा करने की यह परम्परा चली आ रही है।’

समाजशास्त्री और ज्योतिष शास्त्रियों का भी यही कहना है कि लक्ष्मीपूजन के दिन ग्वालिन की पूजा करने की परम्परा इसलिए शुरू हुई; क्योंकि प्राचीन काल में लक्ष्मी पूजा सिर्फ सम्पन्न वर्ग ही अपना अधिकार मानता था । इसलिए, सामाजिक - आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग ने मिट्टी के दीयों के साथ ग्वालिन बनाकर उसको ही लक्ष्मी का प्रतिरूप मान कर पूजा करना शुरू किया होगा; जो कालान्तर में एक परम्परा के रूप में  विकसित हो गई।

इसमें कोई दो मत नहीं कि लोक की दीवाली का अपना अलग ही महत्त्व है । समय के अनुसार बदलाव आते जा रहे हैं परंतु कुछ परम्पराएँ आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिल जाती हैं ।  छत्तीसगढ़ में लक्ष्मी पूजा के दिन को ‘सुरहुती’ के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद गोवर्धन पूजा और फिर ‘मातर’ मनाया जाता है। इन तीनो दिनों में गौपालक यानी रावत समाज की सबसे बड़ी भूमिका होती है। हैं। यही ग्वाला समाज समाज दीवाली के दिन मिट्टी की बनी ग्‍वालिनों को लाकर पूजते है।

पारंपरिक रूप से ग्वालिन पूजा का महत्त्व अब कम होते जा रहा है। जिसे आज बचाए रखने की आवश्यकता है। जिस प्रकार मिट्टी के दीपक का महत्त्व कम होता जा रहा है और उसी प्रकार ग्वालिन बनने में कम होते जा रहे है । आज लोग सिर्फ परम्परा के नाम पर मिट्टी के कुछ दीये खरीदकर ले आते हैं और  अपने पूरे घर को बिजली के लट्टूओं से रोशन करते हैं  और मिट्टी का दिया किसी एक कोने में टिमटिमाता जलते रहता है। ऐसे में भला हमारे पारम्परिक कला और व्यवसाय समाप्त तो होंगे ही।

यह खुशी की बात है कि राज्य सरकारें वर्तमान में लोक कला और पारंपरिक कला को बढ़ावा देने के लिए लोक व्यवसायों के संरक्षण, संवर्धन  की दिशा में काम कर रही हैं। पर यह सिर्फ पर्यटकों को लुभाने के लिए मात्र न होकर पूरे देश के लिए उन्नति में सहायक हो और हमारी सांस्कृतिक पहचान को जिंदा रखने के लिए हो । ( उदंती फीचर्स) 

1 comment:

Ashwini Kesharwani said...

बहुत सुंदर जानकारी । इसके लिए साधुवाद रत्न जी।
प्रो अश्विनी केसरवानी