कविता- नूतनता के विभ्रम में
नूतनता के विभ्रम में
भोर जागी, तम सो गया,
काल की अथक चक्की में...
जो दल गया, सो खो गया।
साल आया व साल गया,
नूतनता के विभ्रम में...
ठग हमको हर साल गया।
फिर आया है साल नया,
दिन बदला, दिनांक बदला...
मानो बहुत कुछ बदल गया।
वर्ष-मास-दिन, नया-नया,
मात्र अंकों के फेर में...
मानव का मन बदल गया।
दिसम्बर माह बीत गया,
जनवरी के आगमन में...
परिणति का स्वनन, गीत नया।
शपथ नई, संकल्प नया,
उन्मेष नया, उत्कर्ष नया...
आँखों में प्रकल्प नया।
उत्साह नया, भाव नया,
मन के पाखी में उमड़ा...
उड़ जाने का चाव नया।
कक्षा नई, बस्ता नया,
बच्चों का उल्लास नया,
बड़ों में उच्छ्वास नया।
विगत वर्ष कुछ सिखा गया,
भविष्य सुखद बनाने का...
अवसर आया- साल नया।
बजट नया, फिर गज़ट नया,
भत्तों का फिर गणित नया,
आय-व्यय का झंझट नया।
फ़सलों के साथ तृण नया,
श्रम नया, परिश्रम नया,
किसानों का भी ऋण नया।
राजनीति का रंग नया,
जनता का इरादा नया,
नेताओं का ढंग नया।
झूठ नया और सच नया,
जीवन की समरभूमि में...
कृपाण नई व कवच नया।
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Labels: कविता, डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
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