1. अकृतज्ञ
बस में बहुत ज़्यादा भीड़ थी। बैठना तो दूर, ठीक से खड़े होने तक की
जगह नहीं थी। कुछ देर बाद बस अगले ठहराव पर रुकी। वहाँ से एक दम्पती चढ़े, उनके साथ एक दुधमुँहा बच्चा
भी था। अपनी सीट पर आराम से बैठे विमल बाबू से न रहा गया और वे उठ खड़े हुए। महिला
उनकी सीट पर बैठ गई। कुछ देर बाद विमल बाबू के घुटनों में असहनीय दर्द होने
लगा...ख़ैर वे किसी तरह खड़े रहे, उन्हें तसल्ली इस बात की थी कि उनकी वज़ह से दुधमुँहे बच्चे को लिये एक औरत
की यात्रा आसान हो गयी। इसी सोच-विचार के बीच एक स्थान पर बस रुकी, शायद कोई गाँव था, उस औरत के ठीक बगल में
बैठा व्यक्ति उतरने के लिये उठ खड़ा हुआ। विमल बाबू जैसे ही बैठने के लिये सीट की
ओर झुके, उस
महिला ने आँखों के इशारे से अपने पति को बैठ जाने के लिये कहा...यद्यपि वह व्यक्ति
विमल बाबू के झुकने से पहले ही उस जगह बैठने की तैयारी में था।
‘अरे बेटा, मुझे बैठ जाने दो, घुटनों...’, विमल बाबू बस इतना ही कह सके थे कि वह आँखें तरेर कर बोला, बाबूजी कुछ तो लिहाज़
कीजिए। बगल में बैठने के लिए आपको मेरी ही औरत मिली है?"
‘नहीं-नहीं, मेरी बात तो सुनो...’ वह धृष्ट पति लाल-पीला होता हुआ
कुछ कहने ही जा रहा था कि उसकी बीवी उसे शान्त कराते हुए बोली- ‘आप चुपचाप बैठ जाइए न, क्यों किसी के मुँह लगते हो। सफ़र में तरह-तरह के लोग मिलते हैं।’ वह आराम से बैठ गया। विमल बाबू अपनी कर्तव्य-परायणता पर कुछ ज़्यादा ही
पछताने लगे।
छंगू भाई का अपने इलाक़े में जलवा था। वे साधन-सम्पन्न तो थे ही, दल-बल से भी कमज़ोर न थे।
गलियों में घूमना और आये दिन झगड़े व मारपीट करना उनकी आदत नहीं, शौक़ थे। दूकानदारों से
सामान लेकर पैसे न देना, धार्मिक एवं सामाजिक आयोजनों के बहाने चंदा वसूली तथा संरक्षण के नाम पर
हफ़्ता वसूली; यही छंगू भाई की आमदनी के ज़रिया थे। रोज़ शाम को अपने चेलों के साथ
रिक्शे की सवारी का आनन्द लेना उनकी नियमित दिनचर्या थी। किसी रिक्शेवाले की मज़ाल,
कि छंगू भाई से पैसे माँग ले। ऐसे ही एक
शाम छंगू भाई ने एक रिक्शेवाले को रोका। शायद वह इलाक़े में नया था, उसने वहीं से पूछा- ‘हाँ बाबूजी, कहाँ चलना है?’ ‘अबे यहाँ आ लाटस्साब, वहीं से बकवास न कर!’ छंगू भाई के दाहिना हाथ पिस्टल बाबा ने आँखें तरेरकर ज़ोर की झिड़की दी। ‘अरे बाबूजी, हम तो पूछे बस थे, बइठ जाओ जहाँ चलना हो।’ छंगू भाई पिस्टल बाबा के साथ सवार होकर रिक्शे की सवारी का आनन्द लेने
लगे। वे सारा इलाक़ा घूम-घामकर वापस अपने अड्डे पर आ गए और
रिक्शे से उतरकर अन्दर जाने लगे, तभी रिक्शेवाले ने टोका- ‘बाबूजी पइसवा तो दे दो।’ ‘किस बात का पइसवा रे, हम तोर चहता हैं का?’ अड्डे में बहुत देर से
अकेले बैठा राजन चमचा अचानक तैश में आ गया था। ‘भ्भाग जा
स्साले, नहीं
तो भून डालेंगे।’ पिस्टल बाबा का गर्म ख़ून और गर्म हो गया
था। ‘बाबूजी, अतना गरम काहे होइ रहें हैं, हम अपना महनताना ही तो माँगें हैं, हराम का थोड़े न...।’ तभी छंगू भाई ने उस रिक्शेवाले के गाल पर एक ज़ोर का थप्पड़ रसीद कर दिया- ‘हरामखोर, चुप स्साले...।’ इस थप्पड़ ने रिक्शेवाले के ख़ून में भी जी भर उबाल भर दिया...और छंगू
भाई इससे पहले कुछ समझ पाते, रिक्शेवाले ने उनके थोबड़े पर चार-पाँच तड़ातड़ जड़ दिये। छंगू भाई ने
पीछे मुड़कर अपने साथियों की ओर देखा, वे दोनों नदारद थे और भीड़ खड़े तमाशा देख रही थी। मौके की नज़ाक़त समझते
हुए छंगू भाई बीस का नोट उस रिक्शेवाले को थमाकर चुपचाप वहाँ से चल दिए।
दोनों महिलाएँ अबकी बहुत
दिनों बाद मिली थीं। अपनी-अपनी घर-गृहस्थी की चर्चा के बाद दोनों अपने जवान बच्चों
की बेरोज़गारी और कैरियर की बातों पर आ गई थीं। विमला
देवी ने अचानक पूछ ही लिया- ‘क्यों री सरला, क्या हुआ तेरे विनोद का, कहीं नौकरी लगी?’
सरला बोल पड़ी- ‘अरे विमला, पढ़ाई तो उसने बहुत की।
उसका दोष कहूँ या उसके भाग्य का, अभी तक नौकरी नहीं मिली...और तेरे राजन का क्या हुआ?’
विमला बताने लगी- ‘होगा क्या, बेचारे की क़िस्मत रूठी
है। पक्की सेटिंग हो गई थी साढ़े पाँच लाख में, पर किसी ने
पौने आठ लाख दे दिये और दलाल मुकर गया...पर हमने उम्मीद नहीं छोड़ी, अगली बार जी-जान लगा
देंगे।‘
सरला ने महसूस किया कि उसके बेटे का कोई दोष नहीं। हाँ, पैसे के ज़ोर के आगे उसके
बेटे की क़िस्मत रूठी हुई है।
जैसे ही वह युवा ट्रेन में घुसा। भीड़ देखकर सीट मिलने की उम्मीद छोड़कर दीन-हीन भाव से खड़ा हो गया। ट्रेन में बैठते ही वह संन्यासी वेशधारी व्यक्ति भक्ति-ज्ञान-धर्म के कई प्रसंग एक के बाद एक सुनाने लग गया। नश्वर जीवन का क्या महत्त्व है..., आत्मा देह त्यागने के पश्चात् कहाँ जाती है आदि-आदि। आस-पास बैठे लोग उसे अत्यन्त विनीत भाव से सुन रहे थे। वे उसके ज्ञान के समक्ष नतमस्तक थे। अब स्वामी जी अपनी सीट में आराम से पैर फैलाकर बैठ चुके थे और श्रद्धानत श्रोता, उस गुरु को कोई कष्ट न पहुँचे, इसलिए नीचे बर्थ में बैठ गए थे। अब स्वामी जी का तेज़ और आँखों की चमक देखते ही बन रही थी कि तभी सामने की सीट पर बैठी जीवन के लगभग अस्सी-बयासी वसंत देख चुकी प्रौढ़ा ने स्वामी जी से अचानक प्रश्न किया- ‘स्वामी जी धर्म क्या है?’
धर्म, मनु
ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं- ‘धृतिः क्षमा दमो अस्तेयं, शौचमिनिन्द्रय निग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधी, दशकं धर्म लक्षणम्।।’
अब प्रौढ़ा ने पुनः प्रश्न किया- ‘स्वामी
जी, इन दस में
से आप कितने का पालन करते है।’
स्वामी जी ने घुड़ककर कहा- ‘क्या मतलब?’
‘मतलब यही कि जो हमें बैठने के लिए स्थान दें, उन्हें ही उनके स्थान से
प्रतिस्थापित कर देना धर्म के किस लक्षण में आता है?’ प्रौढ़ा ने अपनी बात पूरी
कर दी। स्वामी जी झुँझला गए और खिड़की से बाहर की ओर झाँकने
लगे।
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1 comment:
बहुत अच्छी लघु कथाएँ.... अन्तिम वाली बहुत शनादार... बधाई
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