पहरे पर होता चाँद
-रचना श्रीवास्तव
1
साँवली रात की
सिलवटों में
खोए रहते थे हम
और पहरे पर होता चाँद
खुल चुकी हैं
सिलवटें अब तो ,
और घायल है चाँद
2
सौपके खुशबू
दर्द ने
बढ़ाया
सदा हौसला मेरा
आज जो मुड़के देखा
वो भी
हाथों में काँटे लिये खड़ा था
3
चाँद
जिसे आगोश में ले
जीभर रो लेती थी
अँगुलियों की झिर्री से
कूदकर बोला-
बरसात का मौसम
भाता नहीं मुझे
4
आज फिर
उतरी है
मोहब्बत के दरिया में
आज फिर डूबेगा
नाम कोई
कहते हैं-
प्यार करने वालों को
पक्के घड़े
नहीं मिलते
5
काली आँधी के
गुजरने के बाद
उसने देखा-
चाँद खुद में सिमटा
रात की सिलवटों में पड़ा था
मैने उसे थामने को हाथ बढ़ाया
तो बोला
मुझे मत छुओ
मुझे ग्रहण लगा है
6
प्यार को
मज़बूरी का कफ़न उढ़ा
सुकून से सुलाया था
दुनियादारी की हवा
उस को उड़ा गई
और मेरी गृहस्थी जल उठी
7
वो आया
कुछ शब्द
मेरे हाथों में सौपके चला गया
अँजुरी की झिर्रियों स
निकल गिरे वो ज़मीन पर
एक सोता फूटा
8
और
एक सोच थी
जो मेरी थी
आज तुमने उस पर भी
पहरे लगा दिए
कहकर-
तुमने मुझसे पूछके
सोचा था
हर चीज पर
राज करना तुम्हें क्यों जरूरी है
एक बार किसीको
खुद पर राज करने दो
समझ जाओगे
कितनी घुटन होती
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