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May 30, 2012

ब्लॉग बुलेटिन से


राजीव चतुर्वेदी
उदंती में हमने जो नयी श्रृंखला की शुरूआत की है उसके अंतर्गत निरंतर हम किसी एक ब्लॉग के बारे में आपको जानकारी दे रहे हैं। इस 'एकल ब्लॉग चर्चा' में ब्लॉग की शुरुआत से लेकर अब तक की सभी पोस्टों के आधार पर उस ब्लॉग और ब्लॉगर का परिचय रश्मि प्रभा जी अपने ही अंदाज दे रही हैं। आशा है आपको हमारा यह प्रयास पसंद आएगा। तो आज मिलिए...
राजीव चतुर्वेदी के ब्लॉग Shabd Setu से।   - संपादक

 वक्त का सूरज  अभी डूबा नहीं

स्वान्त: सुखाय लिखता है कवि, रहता है अकेला अपने ख्यालों में .... पर अकेला रह नहीं पाता। कभी हवा उसे छू जाती है, कभी किसी बच्चे की मोहक मुस्कान में वह ठिठक जाता है और फडफ़ड़ाते पन्नों के कैनवस पर शब्दों से उसकी मुस्कान को उतनी ही सजीवता देना चाहता है, जिसमें वह ठिठका रहता है। एहसासों से भरे कई कदम उसके कमरे के बाहर चहलकदमी करते हैं, उसे पढऩे के लिए, उसे जानने के लिए...
इन्हीं चहलकदमियों में मुझे मिला राजीव चतुर्वेदी का ब्लॉग-
अंधे को क्या चाहिए दो आँख। मुझे तो वाकई दो आँखें मिलीं और खुदा जानता है कि मैं कभी भी अकेले सारी रौशनी नहीं रखती, सबके साथ पूरी ईमानदारी के संग बांटती हूँ। तो आज बांटने आई हूँ राजीव जी के ब्लॉग की प्रखर रौशनी।
यूँ तो इन्होंने बहुत पहले से लिखना आरम्भ किया होगा पर इनकी ब्लॉग यात्रा फरवरी 2012 से शुरू हुई। हर पृष्ठ कुछ कहता है या हर पृष्ठ में दबी एक चिंगारी है, मंथन आपके समक्ष है -
लोकतंत्र की पृष्ठभूमि की पड़तालों में
तक्षशिला से लालकिला तक पूरक प्रश्न फहरते देखो।
जन-गण-मन के जोर से चलते,
गणपति के गणराज्य समझ लो।
आत्ममुग्धता का अंधियारा और अध्ययन का उथलापन
गूलर के भुनगों की दुनिया,
कोलंबस की भूल के आगे नतमस्तक है।
हर जुगनू की देखो ख्वाहिश सूरज की पैमाइश ही है।
हम कोलंबस हैं हमारे हाथों में
भूगोल की किताबें नहीं होतीं
हम कोलंबस हैं हमारे हाथों में भूगोल की किताबें नहीं होतीं
हमारी निगाहों में स्कूल की कतारें नहीं होती,
हमारे घर से लाता नहीं टिफिन कोई,
तुम्हारी तरह हमको पिता दिशा नहीं समझाता,
तुम्हारी तरह हमें तैरना नहीं सिखलाता,
हमारे घर पर इंतजार करती माँएं नहीं होती।
हम कोलंबस हैं हमारे हाथ में होती हैं पतवारें,
हमारी निगाह में रहती हैं नाव की कतारें,
हमारे पिता ने निगाह दी तारों से दिशा पहचानो,
हमारे पिता ने समझाया तूफानों की जिदें मत मानो,
हमारी मां यादों में बस सुबकती है आंसू से रोटी खाती है,
स्कूलों की छुट्टी के वख्त हमारी मां भी
समंदर तक आके लौट जाती है।
मेरी मां जानती है मैं कभी न आऊँगा
फिर भी मेरी सालगिरह मनाती है।
तुम साहिल पे चले निश्चित वर्तमान की तरह
मैं समंदर पर सहमा अनिश्चित भविष्य था भूगोल में गुम
तुम तो सुविधाओं को सिरहाने रख सोते ही रहे
हमने हवाओं के हौसले की हैसियत नापी
तुमने तोड़ा था उसूलों को जरूरत के लिए
हमने जज्बात की हरारत नापी
तुम तो शराब के पैमाने में ही डूब गए
मैंने समंदर के सीने की रवानी नापी
तुम्हारी काबलियत काँप जाती है नौकरी पाने के लिए
मेरी भूल भी उनवान है धरती पे लिखा
तुम्हारे और मेरे बीच यही है फर्क समझो तो
जिन्दगी की हर पहल में तुम हो नर्वस
और मैं कोलंबस
तुम्हारे हाथ में भूगोल की किताब है पढ़ो मुझको
मुझको है मां से बिछुड़ जाने का गम।
चीखो तुम भी ...चीखूँ मैं भी-- यह ...
'चुप हैं चिडिय़ाँ गिद्धों की आहट पा कर।
बस्ती भी चुप है सिद्धों की आहट पा कर
अंदर के सन्नाटे से सहमा हूँ मैं पर बाहर शोर बहुत है।
संगीत कभी सुन पाओ तो मुझको भी बतला देना,
 ...कैसा लगता है?'
विस्मित हूँ ..... राजीव जी का रचना संसार सत्य के ओज से दमक रहा है और मुझे अपना आप एथेंस के सत्यार्थी सा प्रतीत हो रहा है-
'कठिन है सत्य बोलना,
हनुमान जी की बातें करो
तो वेश्याओं के मोहल्ले में हाहाकार मच जाता है
कि यह व्यक्ति हमारी दुकान ही ठप्प कर देगा'
कविता पन्नों पर उकेरे भाव ही नहीं होते .... कभी बालू के घरौंदों में होते हैं, कभी समंदर की लहरों में, कभी छोटे से बच्चे की आँखों के अन्दर उमड़ते चॉकलेट की चाह में, कभी आंसुओं के सिले धब्बों में ...
शायद कविता उसको भी कहते हैं
'मेरी बहने कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से
कविता बुनना नहीं जानती
वह बुनती हैं हर सर्दी के पहले स्नेह का स्वेटर
खून के रिश्ते और वह ऊन का स्वेटर
कुछ उलटे फंदे से कुछ सीधे फंदे से
शब्द के धंधे से दूर स्नेह के संकेत समझो तो
जानते हो तो बताना वरना चुप रहना और गुनगुनाना
प्रणय की आश से उपजी आहटों को मत कहो कविता
बुना जाता तो स्वेटर है, गुनी जाती ही कविता है
कुछ उलटे कुछ सीधे शब्दों से कविता जो बुनते हैं
वह कविताए दिखती है उधड़ी उधड़ी सी
कविता शब्दों का जाल नहीं
कविता दिल का आलाप नहीं
कविता को करुणा का क्रन्दन मत कह देना
कविता को शब्दों का अनुबंधन भी मत कहना
कविता शब्दों में ढला अक्श है आहट का
कविता चिंगारी सी, अंगारों का आगाज किया करती है
कविता सरिता में दीप बहाते गीतों सी
कविता कोलाहल में शांत पड़े संगीतों सी
कविता हाँफते शब्दों की कुछ साँसें हैं
कविता बूढ़े सपनो की शेष बची कुछ आशें हैं
कविता सहमी सी बहन खड़ी दालानों में
कविता बहकी सी तरूणाई
कविता चहकी सी चिडिय़ा, महकी सी एक कली
पर रुक जाओ अब गला बैठता जाता है यह गा-गा कर
संकेतों को शब्दों में गढऩे वालो
अंगारों के फूल सवालों की सूली
जब पूछेगी तुमसे...
शब्दों को बुनने को कविता क्यों कहते हो?
तुम सोचोगे चुप हो जाओगे
इस बसंत में जंगल को भी चिंता है
नागफनी में फूल खिले हैं शब्दों से
शायद कविता उसको भी कहते हैं।'
आँधियों की तरह इन्हें नहीं पढ़ा जा सकता! इन्हें क्या .... किसी भी एहसास को वक्त न दो तो आप उसके स्पर्श से वंचित रह जायेंगे। वक्त दीजिये, रुकिए... यह मात्र अभिव्यक्ति नहीं एक आगाज है !
मार्च के आँगन में राजीव जी ने कहा है
लेकिन समझ लो ऐ जयद्रथ वक्त का सूरज अभी ...
'समंदर की सतह पर एक चिडिय़ा ढूंढती है प्यास को
अब तो जन- गण- मन के देखो टूटते विश्वास को
बर्फ से कह दो जलते जंगलों की
तबाही की गवाही तुम को देनी है।
और कह दो साजिशों से सत्य का चन्दन
रगड़ कर अपने माथे पर लगा ले और
जितना छल सको तुम छल भी लो
लेकिन समझ लो ऐ जयद्रथ वक्त का सूरज
अभी डूबा नहीं है
एक भी आंसू हमारा आज तक सूखा नहीं है.'
इससे आगे -
मैंने कुछ शब्द खरीदे हैं बाजार से खनकते से हुए....
अभी तो सूरज निकला है, तेज सर चढ़कर बोलेगा
.... मेरी शुभकामनायें हैं शब्द सेतु को।

प्रस्तुति- रश्मि प्रभा, संपर्क: निको एन एक्स,
फ्लैट नम्बर- 42, दत्त मंदिर, विमान नगर,
पुणे- 14, मो. 09371022446  http://lifeteacheseverything.blogspot.in

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