माँ वह लफ्ज वह पुकार, जहाँ से रुदन को मुस्कान मिलती है। रिश्तों की पहचान मिलती है, जिन्दगी क्या है, प्रकृति क्या है, सहनशीलता क्या है, अँधेरे में भी धुंधली किरण क्या है- माँ सब कुछ एक धरोहर की तरह जोड़ती जाती है। जब सारी दुनिया सो रही होती है, माँ उस रुदन उस मुस्कान से बातें करती है। माँ जादुई स्पर्श- बिल्कुल अलादीन के चिराग की तरह। माँ एक लोरी, माँ एक कहानी, माँ एक फिरकिनी... माँ सरस्वती, माँ अन्नपूर्णा,... पर विपरीत परिस्थितियों में माँ दुर्गा से चंडिका, रक्तदंतिका, महिषासुरमर्दिनी .... पूरे नौ रूप की यात्रा करती है। इस माँ को कवि विष्णु नागर ने जिस तरह शब्दों में पिरोया है, उसको आप तक पहुँचाने से मैं खुद को रोक नहीं सकी... - रश्मि प्रभा
सर्वगुण संपन्न माँ
मां सब कुछ कर सकती है
रात- रात भर बिना पलक झपकाए जाग सकती है
पूरा- पूरा दिन घर में खट सकती है
धरती से ज्यादा धैर्य रख सकती है
बर्फ से तेजी से पिघल सकती है
हिरणी से ज्यादा तेज दौड़कर
खुद को भी चकित कर सकती है
आग में कूद सकती है
तैरती रह सकती है समुद्रों में
देश- परदेश शहर- गांव
झुग्गी- झोंपड़ी सड़क पर भी रह सकती है
वह शेरनी से ज्यादा खतरनाक
लोहे से ज्यादा कठोर सिद्ध हो सकती है
वह उत्तरी ध्रुव से ज्यादा ठंडी और
रोटी से ज्यादा मुलायम साबित हो सकती है
वह तेल से भी ज्यादा देर तक खौलती रह सकती है
चट्टान से भी ज्यादा मजबूत साबित हो सकती है
वह फांद सकती है ऊंची-से-ऊंची दीवारें
बिल्ली की तरह झपट्टा मार सकती है
वह फूस पर लेटकर महलों में रहने का सुख भोग सकती है
वह फुदक सकती है चिडिय़ा की मानिंद
जीवन बचाने के लिए वह कहीं से कुछ भी चुरा सकती है
किसी के भी पास जाकर वह गिड़गिड़ा सकती है
तलवार की धार पर दौड़ सकती है वह लहुलुहान हुए बिना
वह देर तक जल सकती है राख हुए बगैर
वह बुझ सकती है पानी के बिना
वह सब कुछ कर सकती है इसका यह मतलब नहीं
कि उससे सब कुछ करवा लेना चाहिए
उसे इस्तेमाल करने वालों को गच्चा देना भी खूब आता है
और यह काम वह चेहरे से बिना
कुछ कहे कर सकती है।...
- कवि विष्णु नागर
फिर स्वत: मेरी कलम ने कवि के साथ अपना रिश्ता कायम करते हुए खुद को शब्दों में ढाला-
उसने तुम्हारी नब्ज पकड़ ली है और तीखी दवा बन गई है!
याद रखो जो माँ नौ महीने तुम्हें साँसें देती है
पल- पल बनती काया का आधार बनी रहती है
तुम्हारी नींद के लिए पलछिन जागती है
वह तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकती है
तब तक जब तक नीम का असर
फिर से जीवन न दे जाए!
माँ प्यार करती है, दुआ बनती है, ढाल बनती है
तो समय की माँग पर वह नट की तरह रस्सी पर
बिना किसी शिक्षा के अपने जाये के लिए
द्रुत गति से चल सकती है
अंगारों पर बिना जले खड़ी रह सकती है
वह इलाइची दाने से कड़वी गोली बन सकती है
जिन हथेलियों से वह तुम्हें दुलराती है
समय की माँग पर
वह कठोरता से तुम्हें मार सकती है ...
तुम्हें लगेगा माँ को क्या हुआ!
क्योंकि तुम्हें माँ से सिर्फ पाना अच्छा लगता है
यह तुम बाद में समझोगे
कि माँ उन चीजों को बेरहमी से छीन लेती है
जो तुम्हारे लिए सही नहीं
और सही मायनों में
ऐसी माँ ही ईश्वर होती है!
रात- रात भर बिना पलक झपकाए जाग सकती है
पूरा- पूरा दिन घर में खट सकती है
धरती से ज्यादा धैर्य रख सकती है
बर्फ से तेजी से पिघल सकती है
हिरणी से ज्यादा तेज दौड़कर
खुद को भी चकित कर सकती है
आग में कूद सकती है
तैरती रह सकती है समुद्रों में
देश- परदेश शहर- गांव
झुग्गी- झोंपड़ी सड़क पर भी रह सकती है
वह शेरनी से ज्यादा खतरनाक
लोहे से ज्यादा कठोर सिद्ध हो सकती है
वह उत्तरी ध्रुव से ज्यादा ठंडी और
रोटी से ज्यादा मुलायम साबित हो सकती है
वह तेल से भी ज्यादा देर तक खौलती रह सकती है
चट्टान से भी ज्यादा मजबूत साबित हो सकती है
वह फांद सकती है ऊंची-से-ऊंची दीवारें
बिल्ली की तरह झपट्टा मार सकती है
वह फूस पर लेटकर महलों में रहने का सुख भोग सकती है
वह फुदक सकती है चिडिय़ा की मानिंद
जीवन बचाने के लिए वह कहीं से कुछ भी चुरा सकती है
किसी के भी पास जाकर वह गिड़गिड़ा सकती है
तलवार की धार पर दौड़ सकती है वह लहुलुहान हुए बिना
वह देर तक जल सकती है राख हुए बगैर
वह बुझ सकती है पानी के बिना
वह सब कुछ कर सकती है इसका यह मतलब नहीं
कि उससे सब कुछ करवा लेना चाहिए
उसे इस्तेमाल करने वालों को गच्चा देना भी खूब आता है
और यह काम वह चेहरे से बिना
कुछ कहे कर सकती है।...
- कवि विष्णु नागर
फिर स्वत: मेरी कलम ने कवि के साथ अपना रिश्ता कायम करते हुए खुद को शब्दों में ढाला-
माँ जो हूँ
प्यार करनेवाली माँ जब नीम सी लगने लगे तो समझोउसने तुम्हारी नब्ज पकड़ ली है और तीखी दवा बन गई है!
याद रखो जो माँ नौ महीने तुम्हें साँसें देती है
पल- पल बनती काया का आधार बनी रहती है
तुम्हारी नींद के लिए पलछिन जागती है
वह तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकती है
तब तक जब तक नीम का असर
फिर से जीवन न दे जाए!
माँ प्यार करती है, दुआ बनती है, ढाल बनती है
तो समय की माँग पर वह नट की तरह रस्सी पर
बिना किसी शिक्षा के अपने जाये के लिए
द्रुत गति से चल सकती है
अंगारों पर बिना जले खड़ी रह सकती है
वह इलाइची दाने से कड़वी गोली बन सकती है
जिन हथेलियों से वह तुम्हें दुलराती है
समय की माँग पर
वह कठोरता से तुम्हें मार सकती है ...
तुम्हें लगेगा माँ को क्या हुआ!
क्योंकि तुम्हें माँ से सिर्फ पाना अच्छा लगता है
यह तुम बाद में समझोगे
कि माँ उन चीजों को बेरहमी से छीन लेती है
जो तुम्हारे लिए सही नहीं
और सही मायनों में
ऐसी माँ ही ईश्वर होती है!
3 comments:
विश्व का कोई भाव व्यर्थ नहीं है -सही समय पर उचित उपयोग उसे कल्याणकारी बना कर सार्थक कर देता है -माँ से बढ़ कर हितचिन्तक और कौन हो सकता है !
बहुत सुंदर वाह ।
माँ का यह नीम सा लगना भी कितना जरूरी था इसका अहसास बहुत बाद में होता है।
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