नन्हे कंधों पर भारी बस्ता
-डॉ. रत्ना वर्मा
बचपन वह उम्र होती है, जब बच्चे बगैर किसी तनाव के जिंदगी का आनन्द लेते हैं। लेकिन क्या आज की परिस्थिति में ऐसा है? आज के बच्चों को देखकर आपको नहीं लगता कि उनका बचपन कहीं खो गया है। आप जरा अपना बचपन याद कीजिए क्या आपने कभी अपने कंधों पर अपने बस्ते का भारी बोझ महसूस किया है? या कभी आप अपने बस्ते के वजन से चिड़चिड़ाते हुए घर पंहुचें हैं और अपने माता- पिता से पीठ दर्द की शिकायत की है? नहीं न। बल्कि तब तो मुस्कुराते हुए अपना हल्का बस्ता कंधे पर झुलाते हुए बड़े आराम से घर को लौटा करते थे और वह भी पैदल चलते हुए। जबकि आज तो स्कूलों के लिए बस की सुविधा है, रिक्शा है, आटो है फिर भी गेट से स्कूल तक और बस स्टॉप से घर तक ही बस्ते का भारी बोझ लेकर चल पाना बच्चों के लिए मुश्किल हो गया है।
ऐसा भी नहीं है कि कम बस्ता ले जाने की वजह से या कम- कॉपी किताब होने से आपको कभी यह लगा हो कि आपकी शिक्षा में कुछ कमी रह गई है? बदलते दौर के अनुसार पढ़ाई- लिखाई के तरीकों में आज बदलाव जरूर आया है लेकिन ज्यादा भारी बस्ता होने से पढ़ाई सुधर गई है या आज के बच्चे ज्यादा अच्छी शिक्षा पा रहे हैं ऐसा तो कतई नहीं कहा जा सकता। आज छोटे- छोटे बच्चे, जिनकी उम्र पापा, चाचा और दादा के कंधों की सवारी करने की होती है अपने नन्हे कंधों पर भारी बस्ता टाँगे स्कूल बस की ओर दौड़ लगाते नजर आते हैं।
फिर से आज इस मुद्दे को उठाने का कारण है- अभी हाल ही में बच्चों के बस्ते का भारी बोझ को लेकर एक सर्वेक्षण किया गया है। जिसके आंकड़े चौंकाने वाले हैं। एसोचैम नाम की एक संस्था द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार बस्ते के बढ़ते बोझ के कारण पांच से बारह वर्ष के बीच स्कूल जाने वाले अधिकतर बच्चों को पीठ दर्द जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। जिसके कारण उनकी हड्डियों और उनके शरीर के विकास पर भी विपरीत असर होने का अंदेशा जाहिर किया गया है। दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बंगलूर, मुंबई और हैदराबाद जैसे दस बड़े शहरों में 2000 से ज्यादा बच्चों और उनके अभिभावकों पर मार्च- अप्रैल के दौरान सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण के नतीजों पर यदि गंभीरता से सोचा जाए तो मामला बहुत गंभीर है। तथा इसके सुधार की दिशा में यदि अभी से प्रयास नहीं किए गए तो आने वाली पीढ़ी के स्वास्थ्य के लिए खतरे का संकेत है।
सर्वे के अनुसार बारह वर्ष से कम उम्र के लगभग 1500 बच्चे ठीक तरीके से बैठ भी नहीं सकते। उनमें हड्डी से संबंधित कई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं मसलन पीठ में दर्द, कंधे में दर्द तथा रीढ़ की हड्डी में दर्द आदि। औसतन 82 प्रतिशत बच्चे अपने वजन का 35 प्रतिशत बोझ बैग के रूप में रोजाना पीठ पर ढोते हैं। उसके अलावा उन्हें अपनी रुचि के अनुसार खेलों के भारी सामान भी सप्ताह में एक या दो दिन लाद कर ले जाना पड़ता है। ऐसे में बच्चों का शारीरिक तनाव से प्रभावित होना स्वाभाविक है। यदि सर्वे में प्रमुख महानगरों की ऐसी स्थिति बताई गई है तो अन्य नगरों की क्या हालत होगी इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। सर्वेक्षण में बताया गया है कि औसतन हर स्कूली बच्चे को कम से कम तीन किताबें, कापियां, वर्कबुक और अन्य सामान स्कूल ले जाना होता है। स्कूलों में रोजाना 7-8 पीरियड और उसके बाद भारी होमवर्क दिया जाता है। एसोचैम स्वास्थ्य समिति के अध्यक्ष डॉ. बी.के. राव के अनुसार सर्वेक्षण का उद्देश्य छात्रों पर स्कूल बैग ढोने के प्रभाव के बारे में जानना था। उनके अनुसार अधिकतर अभिभावकों ने शिकायत की है कि एक दिन में सात से आठ कक्षाएं होती हैं और हर विषय में कम से कम तीन किताबें होती हैं।
वर्तमान में हमारे देश में स्कूली शिक्षा के स्तर पर लगभग प्रत्येक राज्य में यहां तक कि एक ही शहर के स्कूलों में भी अलग-अलग शिक्षा- प्रणालियां प्रचलित हैं जिसे एक समान किए जाने की बात तो जब- तब उठाई जाती है परंतु जैसे ही इसे लागू करने का समय आता है कोई एकराय से इस पर सहमत नहीं हो पाता। साथ ही देश में अभी तक स्कूल बैग के वजन को लेकर कभी कोई मानक बनाने का प्रयास नहीं किया गया है। हालांकि स्कूली शिक्षा को दिनोंदिन कम बोझिल तथा अधिक व्यावहारिक बनाने के प्रयास होते रहे हैं। कई शिक्षण संस्थानों ने ऐसी शिक्षण व्यवस्था पर अमल भी प्रारंभ किया है, जहां वे छोटी कक्षाओं के बच्चों के अधिकांश बुक और कॉपियां स्कूल में जमा करने लगे हैं पर ऐसे स्कूलों की संख्या नगण्य ही मानी जाएगी।
ऐसा भी नहीं है कि स्कूली बच्चों पर बढ़ता भारी बस्तों का बोझ इससे पूर्व कभी चर्चा में न रहा हो दशकों पहले आर.के. नारायण ने अपने स्तर पर इस बोझ को लेकर मामला संसद में भी उठाया था। पर तब भी राजनीतिक दल इस पर आमराय कायम नहीं कर पाए थे। जहां लाभ की स्थिति न हो भला वहां एकमत कैसे हुआ जा सकता है। यही वजह है कि इस स्थिति में सुधार को लेकर आज तक कोई बड़ी कोशिश नहीं हो पाई है। शिक्षा के दिन- ब- दिन व्यवसायिक होते जाने का नतीजा है कि बच्चों के कंधे पर यह बोझ बजाय कम होने के बढ़ते ही चले जा रहा है।
लेकिन अब जरूरी हो गया है शिक्षा प्रणाली में सुधार के साथ ही बच्चों के स्वास्थ्य को देखते हुए यह तय कियाजाए कि बच्चों की उम्र के हिसाब से उनके बस्ते का वजन कितना हो। हमारे देश के जनप्रतिनिधियों को भी अब यह जान लेना चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में व्यवसायिक नजरिए को प्रमुखता में रखने की बजाय देश की भावी पीढ़ी की सेहत को प्रमुखता में रखा जाए। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षण संस्थाओं को व्यवसाय न बना कर शिक्षा का केंन्द्र ही बने रहने दिया जाए, जहां बच्चों के बस्ते का वजन तो कम हो ही साथ ही व्यापारिक शिक्षा नहीं बल्कि व्यवहारिक शिक्षा पर जोर दिया जाए। इसके लिए अभिभावकों को भी अपनी मांगों को पुरजोर ढंग से शासन के समक्ष रखते हुए एक मानक बनाए जाने की मांग करनी होगी, साथ ही उन्हें अपने बच्चों के लिए स्कूल तय करते समय उन्हीं स्कूलों का चयन करने पर जोर देना होगा जहां बेहतर शिक्षा के साथ उनकी सेहत का भी ध्यान रखा जाता हो।
शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वोत्तम अलंकरण है एतएव बचपन से ही शिक्षा को रीढ़तोड़ बोझ के रूप में उन पर थोपना एक अमानवीय अत्याचार है।
-डॉ. रत्ना वर्मा
बचपन वह उम्र होती है, जब बच्चे बगैर किसी तनाव के जिंदगी का आनन्द लेते हैं। लेकिन क्या आज की परिस्थिति में ऐसा है? आज के बच्चों को देखकर आपको नहीं लगता कि उनका बचपन कहीं खो गया है। आप जरा अपना बचपन याद कीजिए क्या आपने कभी अपने कंधों पर अपने बस्ते का भारी बोझ महसूस किया है? या कभी आप अपने बस्ते के वजन से चिड़चिड़ाते हुए घर पंहुचें हैं और अपने माता- पिता से पीठ दर्द की शिकायत की है? नहीं न। बल्कि तब तो मुस्कुराते हुए अपना हल्का बस्ता कंधे पर झुलाते हुए बड़े आराम से घर को लौटा करते थे और वह भी पैदल चलते हुए। जबकि आज तो स्कूलों के लिए बस की सुविधा है, रिक्शा है, आटो है फिर भी गेट से स्कूल तक और बस स्टॉप से घर तक ही बस्ते का भारी बोझ लेकर चल पाना बच्चों के लिए मुश्किल हो गया है।
ऐसा भी नहीं है कि कम बस्ता ले जाने की वजह से या कम- कॉपी किताब होने से आपको कभी यह लगा हो कि आपकी शिक्षा में कुछ कमी रह गई है? बदलते दौर के अनुसार पढ़ाई- लिखाई के तरीकों में आज बदलाव जरूर आया है लेकिन ज्यादा भारी बस्ता होने से पढ़ाई सुधर गई है या आज के बच्चे ज्यादा अच्छी शिक्षा पा रहे हैं ऐसा तो कतई नहीं कहा जा सकता। आज छोटे- छोटे बच्चे, जिनकी उम्र पापा, चाचा और दादा के कंधों की सवारी करने की होती है अपने नन्हे कंधों पर भारी बस्ता टाँगे स्कूल बस की ओर दौड़ लगाते नजर आते हैं।
फिर से आज इस मुद्दे को उठाने का कारण है- अभी हाल ही में बच्चों के बस्ते का भारी बोझ को लेकर एक सर्वेक्षण किया गया है। जिसके आंकड़े चौंकाने वाले हैं। एसोचैम नाम की एक संस्था द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार बस्ते के बढ़ते बोझ के कारण पांच से बारह वर्ष के बीच स्कूल जाने वाले अधिकतर बच्चों को पीठ दर्द जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। जिसके कारण उनकी हड्डियों और उनके शरीर के विकास पर भी विपरीत असर होने का अंदेशा जाहिर किया गया है। दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बंगलूर, मुंबई और हैदराबाद जैसे दस बड़े शहरों में 2000 से ज्यादा बच्चों और उनके अभिभावकों पर मार्च- अप्रैल के दौरान सर्वेक्षण किया गया। इस सर्वेक्षण के नतीजों पर यदि गंभीरता से सोचा जाए तो मामला बहुत गंभीर है। तथा इसके सुधार की दिशा में यदि अभी से प्रयास नहीं किए गए तो आने वाली पीढ़ी के स्वास्थ्य के लिए खतरे का संकेत है।
सर्वे के अनुसार बारह वर्ष से कम उम्र के लगभग 1500 बच्चे ठीक तरीके से बैठ भी नहीं सकते। उनमें हड्डी से संबंधित कई तरह की समस्याएं पैदा हो गई हैं मसलन पीठ में दर्द, कंधे में दर्द तथा रीढ़ की हड्डी में दर्द आदि। औसतन 82 प्रतिशत बच्चे अपने वजन का 35 प्रतिशत बोझ बैग के रूप में रोजाना पीठ पर ढोते हैं। उसके अलावा उन्हें अपनी रुचि के अनुसार खेलों के भारी सामान भी सप्ताह में एक या दो दिन लाद कर ले जाना पड़ता है। ऐसे में बच्चों का शारीरिक तनाव से प्रभावित होना स्वाभाविक है। यदि सर्वे में प्रमुख महानगरों की ऐसी स्थिति बताई गई है तो अन्य नगरों की क्या हालत होगी इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। सर्वेक्षण में बताया गया है कि औसतन हर स्कूली बच्चे को कम से कम तीन किताबें, कापियां, वर्कबुक और अन्य सामान स्कूल ले जाना होता है। स्कूलों में रोजाना 7-8 पीरियड और उसके बाद भारी होमवर्क दिया जाता है। एसोचैम स्वास्थ्य समिति के अध्यक्ष डॉ. बी.के. राव के अनुसार सर्वेक्षण का उद्देश्य छात्रों पर स्कूल बैग ढोने के प्रभाव के बारे में जानना था। उनके अनुसार अधिकतर अभिभावकों ने शिकायत की है कि एक दिन में सात से आठ कक्षाएं होती हैं और हर विषय में कम से कम तीन किताबें होती हैं।
वर्तमान में हमारे देश में स्कूली शिक्षा के स्तर पर लगभग प्रत्येक राज्य में यहां तक कि एक ही शहर के स्कूलों में भी अलग-अलग शिक्षा- प्रणालियां प्रचलित हैं जिसे एक समान किए जाने की बात तो जब- तब उठाई जाती है परंतु जैसे ही इसे लागू करने का समय आता है कोई एकराय से इस पर सहमत नहीं हो पाता। साथ ही देश में अभी तक स्कूल बैग के वजन को लेकर कभी कोई मानक बनाने का प्रयास नहीं किया गया है। हालांकि स्कूली शिक्षा को दिनोंदिन कम बोझिल तथा अधिक व्यावहारिक बनाने के प्रयास होते रहे हैं। कई शिक्षण संस्थानों ने ऐसी शिक्षण व्यवस्था पर अमल भी प्रारंभ किया है, जहां वे छोटी कक्षाओं के बच्चों के अधिकांश बुक और कॉपियां स्कूल में जमा करने लगे हैं पर ऐसे स्कूलों की संख्या नगण्य ही मानी जाएगी।
ऐसा भी नहीं है कि स्कूली बच्चों पर बढ़ता भारी बस्तों का बोझ इससे पूर्व कभी चर्चा में न रहा हो दशकों पहले आर.के. नारायण ने अपने स्तर पर इस बोझ को लेकर मामला संसद में भी उठाया था। पर तब भी राजनीतिक दल इस पर आमराय कायम नहीं कर पाए थे। जहां लाभ की स्थिति न हो भला वहां एकमत कैसे हुआ जा सकता है। यही वजह है कि इस स्थिति में सुधार को लेकर आज तक कोई बड़ी कोशिश नहीं हो पाई है। शिक्षा के दिन- ब- दिन व्यवसायिक होते जाने का नतीजा है कि बच्चों के कंधे पर यह बोझ बजाय कम होने के बढ़ते ही चले जा रहा है।
लेकिन अब जरूरी हो गया है शिक्षा प्रणाली में सुधार के साथ ही बच्चों के स्वास्थ्य को देखते हुए यह तय कियाजाए कि बच्चों की उम्र के हिसाब से उनके बस्ते का वजन कितना हो। हमारे देश के जनप्रतिनिधियों को भी अब यह जान लेना चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में व्यवसायिक नजरिए को प्रमुखता में रखने की बजाय देश की भावी पीढ़ी की सेहत को प्रमुखता में रखा जाए। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षण संस्थाओं को व्यवसाय न बना कर शिक्षा का केंन्द्र ही बने रहने दिया जाए, जहां बच्चों के बस्ते का वजन तो कम हो ही साथ ही व्यापारिक शिक्षा नहीं बल्कि व्यवहारिक शिक्षा पर जोर दिया जाए। इसके लिए अभिभावकों को भी अपनी मांगों को पुरजोर ढंग से शासन के समक्ष रखते हुए एक मानक बनाए जाने की मांग करनी होगी, साथ ही उन्हें अपने बच्चों के लिए स्कूल तय करते समय उन्हीं स्कूलों का चयन करने पर जोर देना होगा जहां बेहतर शिक्षा के साथ उनकी सेहत का भी ध्यान रखा जाता हो।
शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वोत्तम अलंकरण है एतएव बचपन से ही शिक्षा को रीढ़तोड़ बोझ के रूप में उन पर थोपना एक अमानवीय अत्याचार है।
3 comments:
ये बस्ते का बोझ और आजकल के ४५ डिग्री तापमान में समर कैम्प के नाम पर नन्हे नन्हे बच्चों के साथ जो खिद्वाद करने का रिवाज इन पब्लिक स्कूलों में चलना शुरू कर दिया है वह कभी ही बच्चे के स्वस्थ मानसिकता या विकास के लिए जरूरी नहीं है. बच्चों पर बस्ते और मोटी मोटी किताबों के बोझ से बच्चे अपना बचपन खो चुके हें. उन्हें गर्मियों में भी इतना होम वर्क दिया जाता है कि वे नहीं जानते कि छुट्टियाँ क्या होती हें? इसमें परिवर्तन होना जरूरी है.
सच है बचपन ही छीन रहा है ये बोझ ... इस विचारणीय विषय पर आपके सार्थक विचार पढ़कर अच्छा लगा .....
जब ताड़पत्रों के सहारे गुरुकुलों में पढ़ायी होती थी तब विध्यार्थी का सर्वांगीण विकास हुआ करता था, आज ढेरों पुस्तकों के बाद भी शिक्षा के स्तर में वह बात दिखायी नहीं देती । यह इस बात का प्रमाण है कि शिक्षा के लिए पुस्तकों का बोझा ढोना अनिवार्य नहीं है । आज हमारे बच्चों के पास पुस्तकीय जानकारियाँ तो बहुत सी हैं लेकिन उन सूचनाओं की जीवन के लिए उपयोगिता कितनी है ..इस प्रश्न को भुला दिया गया है ।
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