विविधता से भरा जीवन: मधुप जी का जीवन अपने आप में एक रोचक उपन्यास है, और उसमें ढेरों कहानियाँ भरी पड़ी हैं। कारण? उनके जीवन के अनुभवों की विविधता। आगरा विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद वह लेखन में लगे। 1946 में ही उन का गीत संग्रह प्रकाशित हुआ 'यह पथ अनंत' और 1948 में छपा गद्यगीत संग्रह 'टुकड़े'। फिर पत्रकार बन गए- आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'परख' का संपादन करने लगे। गीत लेखन का शौक उन्हें मुंबई ले गया। 1952-53 में कुछ फिल्मों में गीत लिखे (बाद में उन्होंने अनेक फिल्मों में अभिनय भी किया। (जैसे फिल्म बाबी में उनका प्रिंसिपल वाला रोल)। बँधे- बँधाए रोजगार की तलाश उन्हें विविध भारती ले गई, जहाँ वे 1967 तक रहे। इस के बाद अनेक रेडियो नाटकों और कार्यक्रमों का लेखन, पत्रिकाओं में विविध लेख। इस सदी के अंतिम दशक तक पहुँचते- पहुँचते, जब जीवन में कुछ स्थायित्व आ पाया उन्होंने एक बार फिर साहित्य की ओर रुख किया तो उनके मन की उर्वरता को मानो पंख लग गए । 'फुलमाया' मधुप जी का तीसरा प्रकाशित उपन्यास है, तो 'अनजाने रिश्ते' उन का तीसरा कहानी संग्रह। दोनों में समानताएँ अनेक हैं। उन के पात्र जीवन से उठाए गए हैं, और वे हमारे आसपास के लोगों की सच्ची कहानियाँ कहते प्रतीत होते हैं।
फिल्मों में गीतकार बनने के इरादे से जब मैं बंबई आया, तब मीना कुमारी बहुत-सी फिल्मों में काम कर चुकी थीं। बचपन से कर रही थीं। लेकिन उनकी सबसे पहली फिल्म जो मैंने देखी, वो थी 'बैजू बावरा'। उसी के बाद मैं उन्हें पहचानने लगा था। पर आमने-सामने जो पहचान हुई वो कुछ साल बाद जब एक दिन मोहन स्टूडियो में विमल रॉय यूनिट के श्री पाल महेंद्र ने मुझे उनसे मिलवाया...और वही साधारण-सी जान-पहचान एक दिन अचानक अपनेपन का-सा अहसास छोड़ गई। 1959 या 60 में मैंने विविध भारती के 'हवा महल' में एक मोनोलॉग की अदायगी के लिए उन्हें आमंत्रित किया। रिकॉर्डिंग के बाद उनके इसरार पर मैंने अपनी एक ग़ज़ल सुनाई थी। पहला शेर सुनते ही बेसाख्ता उनके मुँह से निकला था, 'आपने तो यह मेरे दिल की बात कह दी।' चलते- चलते उसी दिन उन्होंने यह वायदा भी ले लिया था कि जब भी किसी कलाकर से मिलने किसी स्टूडियो में आऊँ और वो वहाँ शूटिंग कर रही हों तो मैं उन्हें मिले बिना नहीं आऊँगा।
...और वो वायदा उनके अंतिम दिनों तक निभता रहा। शायद इसलिए कि हमारे खयालात काफी मिलते- जुलते थे। हमारी शायरी में एक- दूसरे का दर्द झाँकता था और हमारी हैसियतों का फर्क हमारे व्यवहार या बातचीत में कभी आड़े नहीं आया। न उनकी आँखों में कभी अहंकार की झलक देखी, न मेरे मन में कभी कमतरी का अहसास आया।
अनोखी अदाकारा, बहुत अच्छी शायरा और एक बेहतरीन इंसान। हमदर्दी और अपनेपन की मिसाल। लाखों- करोंड़ों दिलों की मलिका। इस तरह की नामी हस्ती के बारे में कुछ कहना या लिखना बड़ी जिम्मेदारी का काम है। बहुत- सी जानकारी होनी चाहिए, जो या तो आपने उस व्यक्ति के साथ निजी संपर्क से प्राप्त की हो या उसके करीबी रिश्तेदारों और दोस्तों के जरिए।
आज इस रचना को तो अपना कहते हुए भी मुझे संकोच हो रहा है। शब्द भले ही मैंने इकट्ठे किए हैं, पर भाव और विचार मीना जी के ही हैं और कागज पर उन्हें लाते वक्त मैंने पूरी ईमानदारी से काम किया है। कोशिश की है कि शब्द भी लगभग उन्हीं के हों। लिखते वक्त मैं निरंतर यह महसूस करता रहा हूँ कि मैं नहीं, मीना कुमारी ही अपनी उन बातों को दोहरा रही हैं, जो कभी उन्होंने कही थीं या महसूस की थीं।
शायद इसीलिए यह आलेख आत्मकथा के अंश का-सा रूप बन गया है। अंश इसलिए कि पूरी आत्मकथा होती तो जिंदगी के और भी पहलू उसमें आते। इसमें जिंदगी का वही हिस्सा उभरकर आया है जो मीना जी के दिल के बहुत करीब था। ...नि:स्वार्थ प्यार और अपनेपन की प्यास, मातृत्व के लिए छटपटाती रूह, पुरुष के साथ समान अधिकारों की लालसा।...
...पर कहाँ मिल पाया उन्हें यह सब! नाम, शोहरत, इज्जत, पैसा, सभी कुछ मिला, पर वही नहीं मिला जो उन्होंने सबसे ज्यादा चाहा। उसी को पाने की कोशिश में वो बटोरती रहीं दर्द...दर्द....दर्द...दर्द, जो शदियों से लगभग हर भारतीय नारी का नसीब बना हुआ है। आद के तरक्की पसन्द आधुनिक जमाने में भी लगभग वहीं का वहीं।
...बेटे- बेटी का फर्क, बेटी को अनचाही औलाद मानकर एक बोझा- सा समझते हुए, उसके लिए सही परवरिश और प्यार में भी भेदभाव। बड़ी होकर वो कमाने लगे तो पहले पिता और फिर पति का अधिकार। सिर्फ उसकी कमाई पर ही नहीं, उसके व्यक्तित्व पर भी...नारी तो अबला है। उसे कोई अधिकार देकर फायदा ही क्या! कहाँ रक्षा कर पाएगी उन अधिकारों की भी बेचारी! पति है न उसका परमेश्वर, उसका खुदा।...
अपने बाहुबल पर इतराने वाले पुरुष का यह अहम् स्वार्थ और सदियों पुरानी वह सामंती सोच, कहाँ बदल पाई है आज भी! खैर...नारी की यह कहानी तो शायद और सदियों तक यूँ ही चलती रहेगी। आइए, इसी कहानी को मीना जी से सुनें, आँखों से पढ़ें और दिल से महसूस करें।...
फिल्मों में गीतकार बनने के इरादे से जब मैं बंबई आया, तब मीना कुमारी बहुत-सी फिल्मों में काम कर चुकी थीं। बचपन से कर रही थीं। लेकिन उनकी सबसे पहली फिल्म जो मैंने देखी, वो थी 'बैजू बावरा'। उसी के बाद मैं उन्हें पहचानने लगा था। पर आमने-सामने जो पहचान हुई वो कुछ साल बाद जब एक दिन मोहन स्टूडियो में विमल रॉय यूनिट के श्री पाल महेंद्र ने मुझे उनसे मिलवाया...और वही साधारण-सी जान-पहचान एक दिन अचानक अपनेपन का-सा अहसास छोड़ गई। 1959 या 60 में मैंने विविध भारती के 'हवा महल' में एक मोनोलॉग की अदायगी के लिए उन्हें आमंत्रित किया। रिकॉर्डिंग के बाद उनके इसरार पर मैंने अपनी एक ग़ज़ल सुनाई थी। पहला शेर सुनते ही बेसाख्ता उनके मुँह से निकला था, 'आपने तो यह मेरे दिल की बात कह दी।' चलते- चलते उसी दिन उन्होंने यह वायदा भी ले लिया था कि जब भी किसी कलाकर से मिलने किसी स्टूडियो में आऊँ और वो वहाँ शूटिंग कर रही हों तो मैं उन्हें मिले बिना नहीं आऊँगा।
...और वो वायदा उनके अंतिम दिनों तक निभता रहा। शायद इसलिए कि हमारे खयालात काफी मिलते- जुलते थे। हमारी शायरी में एक- दूसरे का दर्द झाँकता था और हमारी हैसियतों का फर्क हमारे व्यवहार या बातचीत में कभी आड़े नहीं आया। न उनकी आँखों में कभी अहंकार की झलक देखी, न मेरे मन में कभी कमतरी का अहसास आया।
अनोखी अदाकारा, बहुत अच्छी शायरा और एक बेहतरीन इंसान। हमदर्दी और अपनेपन की मिसाल। लाखों- करोंड़ों दिलों की मलिका। इस तरह की नामी हस्ती के बारे में कुछ कहना या लिखना बड़ी जिम्मेदारी का काम है। बहुत- सी जानकारी होनी चाहिए, जो या तो आपने उस व्यक्ति के साथ निजी संपर्क से प्राप्त की हो या उसके करीबी रिश्तेदारों और दोस्तों के जरिए।
आज इस रचना को तो अपना कहते हुए भी मुझे संकोच हो रहा है। शब्द भले ही मैंने इकट्ठे किए हैं, पर भाव और विचार मीना जी के ही हैं और कागज पर उन्हें लाते वक्त मैंने पूरी ईमानदारी से काम किया है। कोशिश की है कि शब्द भी लगभग उन्हीं के हों। लिखते वक्त मैं निरंतर यह महसूस करता रहा हूँ कि मैं नहीं, मीना कुमारी ही अपनी उन बातों को दोहरा रही हैं, जो कभी उन्होंने कही थीं या महसूस की थीं।
शायद इसीलिए यह आलेख आत्मकथा के अंश का-सा रूप बन गया है। अंश इसलिए कि पूरी आत्मकथा होती तो जिंदगी के और भी पहलू उसमें आते। इसमें जिंदगी का वही हिस्सा उभरकर आया है जो मीना जी के दिल के बहुत करीब था। ...नि:स्वार्थ प्यार और अपनेपन की प्यास, मातृत्व के लिए छटपटाती रूह, पुरुष के साथ समान अधिकारों की लालसा।...
...पर कहाँ मिल पाया उन्हें यह सब! नाम, शोहरत, इज्जत, पैसा, सभी कुछ मिला, पर वही नहीं मिला जो उन्होंने सबसे ज्यादा चाहा। उसी को पाने की कोशिश में वो बटोरती रहीं दर्द...दर्द....दर्द...दर्द, जो शदियों से लगभग हर भारतीय नारी का नसीब बना हुआ है। आद के तरक्की पसन्द आधुनिक जमाने में भी लगभग वहीं का वहीं।
...बेटे- बेटी का फर्क, बेटी को अनचाही औलाद मानकर एक बोझा- सा समझते हुए, उसके लिए सही परवरिश और प्यार में भी भेदभाव। बड़ी होकर वो कमाने लगे तो पहले पिता और फिर पति का अधिकार। सिर्फ उसकी कमाई पर ही नहीं, उसके व्यक्तित्व पर भी...नारी तो अबला है। उसे कोई अधिकार देकर फायदा ही क्या! कहाँ रक्षा कर पाएगी उन अधिकारों की भी बेचारी! पति है न उसका परमेश्वर, उसका खुदा।...
अपने बाहुबल पर इतराने वाले पुरुष का यह अहम् स्वार्थ और सदियों पुरानी वह सामंती सोच, कहाँ बदल पाई है आज भी! खैर...नारी की यह कहानी तो शायद और सदियों तक यूँ ही चलती रहेगी। आइए, इसी कहानी को मीना जी से सुनें, आँखों से पढ़ें और दिल से महसूस करें।...
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