- प्रमोद भार्गव
जब रीवा के जंगलों में पहली बार सफेद शेर देखा गया था, तब बिना किसी आधुनिक तकनीक और अतिरिक्त राशि खर्च किए रीवा के महाराजा गुलाब सिंह ने इनकी वंश वृद्धि कर ये शेर पूरे भारत और दुनिया के तमाम देशों में पहुंचा दिए थे। किंतु अब करोड़ों की परियोजना बनाई गई है। भारत में सिंह, चीता, बाघ, और हाथी को प्राकृतिक आवास देने की योजनाएं बनाई गई हैं। लेकिन अफसोस अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद एक भी योजना पर सफलतापूर्वक अमल नहीं हो सका है।
पांच दशक बाद दुर्लभ सफेद शेरों की घर वापसी की तैयारी लगभग पूरी है। वन विभाग इनके पुनर्वास के लिए करीब 50 करोड़ रुपए खर्च करने जा रहा है। इस हेतु सफेद और पीले शेरों का एक- एक जोड़ा उड़ीसा के नंदनकानन वन से यहां लाकर बसाया जाएगा। इसका दायित्व नंदनकानन उद्यान को आकार देने वाले सेवानिवृत्त पीसीसीएफ सीपी पटनायक ने संभाला है।
अचरज इस बात पर है कि जब रीवा के जंगलों में पहली बार सफेद शेर देखा गया था, तब बिना किसी आधुनिक तकनीक और अतिरिक्त राशि खर्च किए रीवा के महाराजा गुलाब सिंह ने इनकी वंश वृद्धि कर ये शेर पूरे भारत और दुनिया के तमाम देशों में पहुंचा दिए थे। किंतु अब उन्हीं सफेद शेरों की वंश वृद्धि के लिए करोड़ों की परियोजना बनाई गई है। भारत में सिंह, चीता, बाघ और हाथी आदि को प्राकृतिक आवास देने की योजनाएं भी बनाई गई हैं। लेकिन अफसोस अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद एक भी योजना पर सफलतापूर्वक अमल नहीं हो सका है। इनमें से कूनो- पालपुर अभयारण्य में सिंह और फिर चीता बसाए जाने की नाकाम योजना प्रमुख है। सिंहों के लिए 24 आदिवासी ग्राम एक दशक पहले उजाड़े जा चुके हैं लेकिन उनका उचित पुनर्वास आज तक नहीं हुआ।
एक समय था जब रीवा- सीधी के वन- खण्डों में सफेद शेरों की दहाड़ अक्सर सुनाई देती थी। विंध्याचल की कैमूर पर्वत श्रृंखला के सघन वनों में सफेद शेरों का प्राकृतिक आवास और क्रीड़ा स्थल था, पर अब इस आदिम वन प्रांतर में सफेद शेर का होना एक अतीत बन चुका है। रीवा, सीधी और शहडोल के हजारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इनका आवास था। इसे इन्हीं जंगलों में पहली बार अनायास ही देखा गया था। 1951 में सीधी जिले की गौपद-बनास तहसील में शेर- शेरनी का एक जोड़ा नरभक्षी हो गया था। इस जोड़े का उत्पात कैमूर- केहचुआ के जंगलों के आसपास बसे गांवों में जारी था। प्रजा ने राज- दरबार में गुहार लगाई। तब इन नरभक्षी शेरों का सफाया करने के लिए गुलाब सिंह और उनके पुत्र मार्तण्ड सिंह जूदेव ने बरगडी-शिविर लगाया था।
नरभक्षी शेरों की टोह में भटकते हुए 27 मई 1951 को महाराजा गुलाब सिंह को पीले रंग पर काली पट्टी वाली एक शेरनी मिली थी जिसके साथ नौ माह के चार बच्चे भी थे। इनमें तीन बच्चे तो सामान्य थे, लेकिन एक बच्चा सफेद चमड़ी का था जिस पर भूरी पट्टियां थीं। महाराज ने इस अद्भुत प्राणी को पिंजरे में कैद करवा लिया। इसका नाम मोहन रखा और इसकी वंश वृद्धि के लगातार प्रयास किए गए। किंतु कामयाबी नहीं मिली।
रीवा नरेश ने दूरदृष्टि से काम लेते हुए पीले रंग की सुकेशी नाम की एक शेरनी भी सफेद शेर के साथ गुफ्तगू के लिए छोड़ दी। जल्दी ही इस जोड़े में अंतरंगता कायम हो गई और इस जोड़े ने तीन बार बच्चे जने लेकिन सभी बच्चे साधारण ही निकले। सफेद शेर की नस्ल बचाने के लिए रीवा महाराज गुलाब सिंह और मार्तण्ड सिंह ने सुकेशी को मोहन से अलग कर दिया तथा मोहन और सुकेशी से उत्पन्न एक शेरनी से पैदा शेरनी राधा को मोहन के पास छोड़ दिया। राधा और मोहन के संगम से अक्टूबर 1958 में चार सफेद शावकों का जन्म हुआ। बाद में इसी जोड़े से 1960 में तीन बच्चे और पैदा हुए। इनमें दो सफेद और एक पीला था। 1952 में फिर इनके दो बच्चे हुए और दोनों ही सफेद! इस तरह सफेद शेरों की वंश वृद्धि हुई और ये पूरी दुनिया में पहुंचे। विश्व में पाए जाने वाले सभी सफेद शेर इसी मोहन के वंशज हैं।
रीवा महाराज ने सफेद शेर का एक बच्चा अमरीका के राष्ट्रपति आइजनहॉवर को भेेंट किया था। जून 1963 में सफेद शेरों का जोड़ा इंग्लैंड पहुंचाया गया। कोलकाता के चिडिय़ाघर को भी एक जोड़ा दिया गया। राधा- मोहन से पैदा हुए बाकी शावकों को दिल्ली के चिडिय़ाघर में भेज दिया गया। लेकिन रीवा महाराज ने राधा- मोहन और सुकेशी को जीवनपर्यंत अपने पास रखा। धीरे- धीरे चिडिय़ाघरों में इनकी संख्या बढ़कर 70 हो गई थी, पर वनाधिकारियों की लापरवाही के चलते इनकी संख्या घटने लगी। दुर्लभ सफेद शेर की नस्ल तो इन वनों में बची ही नहीं है, साधारण बाघ के दर्शन होना भी दुर्लभ है।
इन जंगलों से शेरों का विनाश करने की नादानी भी इन्हीं राजा- महाराजाओं ने की। शिकारगंज नौठिया (सीधी) और बांधवगढ़ (शहडोल) के शिकारगाहों में शेरों का शिकार करने की होड़ थी। वेंकट रमणसिंह जूदेव ने 1913 तक 111 शेर मारे थे। गुलाब सिंह ने 1923-24 तक 144 और मार्तण्ड सिंह ने 1952-53 तक 125 शेर मारे।
रीवा राज्य- दर्पण के अनुसार सन 1935 में सीधी के जंगल से महाराजा वेंकटरमण सिंह ने एक सफेद शेर पकड़ा और उसे अंग्रेजों को भेंट किया। 1937 में महाराज गुलाब सिंह द्वारा एक सफेद शेर का शिकार किया जाने का उल्लेख है। 1944 में रीवा के पास प्रशासक जेल्डरिज ने भी एक सफेद शेर का शिकार किया। 1946 में महाराजा मार्तण्ड सिंह ने भी एक सफेद शेर को मारकर अपने शिकार के शौक की पूर्ति की। चुरहट तहसील के जमुनिहा गांव के निकट ही 10 फीट लंबे एक सफेद शेर का शिकार रीवा गजट में दर्ज है। ये शिकारगाह राजाओं, जागीरदारों और उनके विशिष्ट मेहमानों व अंग्रेज अधिकारियों के लिए ही आरक्षित थे। शिकार की इसी खुली होड़ के चलते इन जंगलों से सफेद शेरों का विनाश वन और वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 के अमल में आने से पहले ही हो चुका था।
वंश- विनाश की इन्हीं क्रूरताओं के चलते मध्य प्रदेश में पैदा होकर दुनिया भर में पहुंचे सफेद शेर आज खुद मध्य प्रदेश के लिए ही एक इतिहास बनकर रह गए हैं। प्राणी विशेषज्ञों ने बंदी अवस्था में इनकी वंश वृद्धि के प्रयास लगातार तीन साल किए मगर असफल रहे।
कैमूर विंध्याचल के वन खंडों से तो सफेद शेर लुप्त हो ही चुके हैं, अंतिम नर सफेद शेर ईशू की मौत के बाद अटकलें लगाई जा रही हैं कि अब वन विहार में इनकी वंश वृद्धि होना असंभव ही है। अच्छी खबर यह है कि इनके मूल निवास स्थल रीवा के जंगलों में इनके पुनर्वास की पहल की जा रही है। यह प्रयास सफल हुआ तो एक बार फिर कैमूर विंध्याचल में सफेद शेर की दहाड़ गूंजेगी। (स्रोत फीचर्स)
अचरज इस बात पर है कि जब रीवा के जंगलों में पहली बार सफेद शेर देखा गया था, तब बिना किसी आधुनिक तकनीक और अतिरिक्त राशि खर्च किए रीवा के महाराजा गुलाब सिंह ने इनकी वंश वृद्धि कर ये शेर पूरे भारत और दुनिया के तमाम देशों में पहुंचा दिए थे। किंतु अब उन्हीं सफेद शेरों की वंश वृद्धि के लिए करोड़ों की परियोजना बनाई गई है। भारत में सिंह, चीता, बाघ और हाथी आदि को प्राकृतिक आवास देने की योजनाएं भी बनाई गई हैं। लेकिन अफसोस अरबों रुपए खर्च करने के बावजूद एक भी योजना पर सफलतापूर्वक अमल नहीं हो सका है। इनमें से कूनो- पालपुर अभयारण्य में सिंह और फिर चीता बसाए जाने की नाकाम योजना प्रमुख है। सिंहों के लिए 24 आदिवासी ग्राम एक दशक पहले उजाड़े जा चुके हैं लेकिन उनका उचित पुनर्वास आज तक नहीं हुआ।
एक समय था जब रीवा- सीधी के वन- खण्डों में सफेद शेरों की दहाड़ अक्सर सुनाई देती थी। विंध्याचल की कैमूर पर्वत श्रृंखला के सघन वनों में सफेद शेरों का प्राकृतिक आवास और क्रीड़ा स्थल था, पर अब इस आदिम वन प्रांतर में सफेद शेर का होना एक अतीत बन चुका है। रीवा, सीधी और शहडोल के हजारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में इनका आवास था। इसे इन्हीं जंगलों में पहली बार अनायास ही देखा गया था। 1951 में सीधी जिले की गौपद-बनास तहसील में शेर- शेरनी का एक जोड़ा नरभक्षी हो गया था। इस जोड़े का उत्पात कैमूर- केहचुआ के जंगलों के आसपास बसे गांवों में जारी था। प्रजा ने राज- दरबार में गुहार लगाई। तब इन नरभक्षी शेरों का सफाया करने के लिए गुलाब सिंह और उनके पुत्र मार्तण्ड सिंह जूदेव ने बरगडी-शिविर लगाया था।
नरभक्षी शेरों की टोह में भटकते हुए 27 मई 1951 को महाराजा गुलाब सिंह को पीले रंग पर काली पट्टी वाली एक शेरनी मिली थी जिसके साथ नौ माह के चार बच्चे भी थे। इनमें तीन बच्चे तो सामान्य थे, लेकिन एक बच्चा सफेद चमड़ी का था जिस पर भूरी पट्टियां थीं। महाराज ने इस अद्भुत प्राणी को पिंजरे में कैद करवा लिया। इसका नाम मोहन रखा और इसकी वंश वृद्धि के लगातार प्रयास किए गए। किंतु कामयाबी नहीं मिली।
रीवा नरेश ने दूरदृष्टि से काम लेते हुए पीले रंग की सुकेशी नाम की एक शेरनी भी सफेद शेर के साथ गुफ्तगू के लिए छोड़ दी। जल्दी ही इस जोड़े में अंतरंगता कायम हो गई और इस जोड़े ने तीन बार बच्चे जने लेकिन सभी बच्चे साधारण ही निकले। सफेद शेर की नस्ल बचाने के लिए रीवा महाराज गुलाब सिंह और मार्तण्ड सिंह ने सुकेशी को मोहन से अलग कर दिया तथा मोहन और सुकेशी से उत्पन्न एक शेरनी से पैदा शेरनी राधा को मोहन के पास छोड़ दिया। राधा और मोहन के संगम से अक्टूबर 1958 में चार सफेद शावकों का जन्म हुआ। बाद में इसी जोड़े से 1960 में तीन बच्चे और पैदा हुए। इनमें दो सफेद और एक पीला था। 1952 में फिर इनके दो बच्चे हुए और दोनों ही सफेद! इस तरह सफेद शेरों की वंश वृद्धि हुई और ये पूरी दुनिया में पहुंचे। विश्व में पाए जाने वाले सभी सफेद शेर इसी मोहन के वंशज हैं।
रीवा महाराज ने सफेद शेर का एक बच्चा अमरीका के राष्ट्रपति आइजनहॉवर को भेेंट किया था। जून 1963 में सफेद शेरों का जोड़ा इंग्लैंड पहुंचाया गया। कोलकाता के चिडिय़ाघर को भी एक जोड़ा दिया गया। राधा- मोहन से पैदा हुए बाकी शावकों को दिल्ली के चिडिय़ाघर में भेज दिया गया। लेकिन रीवा महाराज ने राधा- मोहन और सुकेशी को जीवनपर्यंत अपने पास रखा। धीरे- धीरे चिडिय़ाघरों में इनकी संख्या बढ़कर 70 हो गई थी, पर वनाधिकारियों की लापरवाही के चलते इनकी संख्या घटने लगी। दुर्लभ सफेद शेर की नस्ल तो इन वनों में बची ही नहीं है, साधारण बाघ के दर्शन होना भी दुर्लभ है।
इन जंगलों से शेरों का विनाश करने की नादानी भी इन्हीं राजा- महाराजाओं ने की। शिकारगंज नौठिया (सीधी) और बांधवगढ़ (शहडोल) के शिकारगाहों में शेरों का शिकार करने की होड़ थी। वेंकट रमणसिंह जूदेव ने 1913 तक 111 शेर मारे थे। गुलाब सिंह ने 1923-24 तक 144 और मार्तण्ड सिंह ने 1952-53 तक 125 शेर मारे।
रीवा राज्य- दर्पण के अनुसार सन 1935 में सीधी के जंगल से महाराजा वेंकटरमण सिंह ने एक सफेद शेर पकड़ा और उसे अंग्रेजों को भेंट किया। 1937 में महाराज गुलाब सिंह द्वारा एक सफेद शेर का शिकार किया जाने का उल्लेख है। 1944 में रीवा के पास प्रशासक जेल्डरिज ने भी एक सफेद शेर का शिकार किया। 1946 में महाराजा मार्तण्ड सिंह ने भी एक सफेद शेर को मारकर अपने शिकार के शौक की पूर्ति की। चुरहट तहसील के जमुनिहा गांव के निकट ही 10 फीट लंबे एक सफेद शेर का शिकार रीवा गजट में दर्ज है। ये शिकारगाह राजाओं, जागीरदारों और उनके विशिष्ट मेहमानों व अंग्रेज अधिकारियों के लिए ही आरक्षित थे। शिकार की इसी खुली होड़ के चलते इन जंगलों से सफेद शेरों का विनाश वन और वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 के अमल में आने से पहले ही हो चुका था।
वंश- विनाश की इन्हीं क्रूरताओं के चलते मध्य प्रदेश में पैदा होकर दुनिया भर में पहुंचे सफेद शेर आज खुद मध्य प्रदेश के लिए ही एक इतिहास बनकर रह गए हैं। प्राणी विशेषज्ञों ने बंदी अवस्था में इनकी वंश वृद्धि के प्रयास लगातार तीन साल किए मगर असफल रहे।
कैमूर विंध्याचल के वन खंडों से तो सफेद शेर लुप्त हो ही चुके हैं, अंतिम नर सफेद शेर ईशू की मौत के बाद अटकलें लगाई जा रही हैं कि अब वन विहार में इनकी वंश वृद्धि होना असंभव ही है। अच्छी खबर यह है कि इनके मूल निवास स्थल रीवा के जंगलों में इनके पुनर्वास की पहल की जा रही है। यह प्रयास सफल हुआ तो एक बार फिर कैमूर विंध्याचल में सफेद शेर की दहाड़ गूंजेगी। (स्रोत फीचर्स)
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