- ऋता शेखर 'मधु'
वर्तमान का दरवाजा खोल
निकलता है भविष्य सुनहरा
कैसे निकल पाए भविष्य
लगा हो जब वर्तमान पर पहरा।
जिस बचपन को होना था
ममता की धार से सिंचित
क्यों वह हो रहा है
प्यार की बौछार से वंचित।
उत्साह उमंगों सपनों का
जीवित पुँज है बालक
मजदूरी की बेदी पर क्यों
होम कर देते उनके पालक।
बालकों में होती निहित
सफल राष्ट्र की संभावना
बाल श्रम से यह मिट जाती
कैसी है यह विडम्बना।
असमय छिन जाता है बचपन
बालश्रम है मानवाधिकारों का हनन।
हर वो ऐसा कार्य
बालश्रम की परिधि में आते हैं,
जो बच्चों के बौद्धिक मानसिक
शैक्षिक नैतिक विकास में
बाधक बन जाते हैं।
कहीं लालच कहीं है मजबूरी
करना पड़ता बालकों को मजदूरी।
जिस उम्र को करनी थी पढ़ाई
कारखानों में बुनते कालीन चटाई।
बचपन उनका झुलस जाता
ईंट के भट्टों में
श्वास जहरीली हो जाती
बारूद के पटाखों में।
जिन मासूमों का होना था पोषण
खरीद उन्हें होता है शोषण।
होना था जिस पीठ पर बस्ता
कूड़े के ढेर से वह
काँच लोहे प्लास्टिक है बीनता।
छोटे कंधों पर बड़े बोझ हैं
घरेलू कामों में लगे रोज हैं।
बाल मन है बड़ा ही कोमल
वह भी सपने संजोता है
सुन मालिकों की लानत झिड़की
मन ही मन वह रोता है।
अक्ल बुद्धि उम्र के कच्चे
स्वतंत्र राष्ट्र के परतंत्र बच्चे
जहाँ होती उनकी दुर्गति
वह राष्ट्र करे कैसे प्रगति।
बाल श्रम उन्मूलन दिवस
वर्ष में एक दिन आता है
हर दिन का जो बने प्रयास
दूर हो यह सामाजिक अभिशाप।
मेरे बारे में
3 जुलाई पटना में जन्म, शिक्षा- एमएससी, वनस्पति शास्त्र, बीएड रुचि- अध्यापन एवं लेखन प्रकाशन- अंतर्जाल पर अनेक वेबसाइटों पर रचनाएँ प्रकाशित। जापानी छंदों जैसे हाइकु, ताँका आदि में विशेष रुचि। लघुकथाएँ एवं छंदमुक्त कविताएँ भी प्रकाशित होती रही हैं। स्वयं के दो चिट्ठे- मधुर गुंजन एवं हिंदी हाइगा। ईमेल- hrita.sm@gmail.com
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वर्तमान का दरवाजा खोल
निकलता है भविष्य सुनहरा
कैसे निकल पाए भविष्य
लगा हो जब वर्तमान पर पहरा।
जिस बचपन को होना था
ममता की धार से सिंचित
क्यों वह हो रहा है
प्यार की बौछार से वंचित।
उत्साह उमंगों सपनों का
जीवित पुँज है बालक
मजदूरी की बेदी पर क्यों
होम कर देते उनके पालक।
बालकों में होती निहित
सफल राष्ट्र की संभावना
बाल श्रम से यह मिट जाती
कैसी है यह विडम्बना।
असमय छिन जाता है बचपन
बालश्रम है मानवाधिकारों का हनन।
हर वो ऐसा कार्य
बालश्रम की परिधि में आते हैं,
जो बच्चों के बौद्धिक मानसिक
शैक्षिक नैतिक विकास में
बाधक बन जाते हैं।
कहीं लालच कहीं है मजबूरी
करना पड़ता बालकों को मजदूरी।
जिस उम्र को करनी थी पढ़ाई
कारखानों में बुनते कालीन चटाई।
बचपन उनका झुलस जाता
ईंट के भट्टों में
श्वास जहरीली हो जाती
बारूद के पटाखों में।
जिन मासूमों का होना था पोषण
खरीद उन्हें होता है शोषण।
होना था जिस पीठ पर बस्ता
कूड़े के ढेर से वह
काँच लोहे प्लास्टिक है बीनता।
छोटे कंधों पर बड़े बोझ हैं
घरेलू कामों में लगे रोज हैं।
बाल मन है बड़ा ही कोमल
वह भी सपने संजोता है
सुन मालिकों की लानत झिड़की
मन ही मन वह रोता है।
अक्ल बुद्धि उम्र के कच्चे
स्वतंत्र राष्ट्र के परतंत्र बच्चे
जहाँ होती उनकी दुर्गति
वह राष्ट्र करे कैसे प्रगति।
बाल श्रम उन्मूलन दिवस
वर्ष में एक दिन आता है
हर दिन का जो बने प्रयास
दूर हो यह सामाजिक अभिशाप।
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ऋता शेखर 'मधु' |
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