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May 30, 2012

आज की पत्रकारिता में खतरे तो हैं ही

- रमेश शर्मा
आज के दौर में मीडिया का बूम है। इंटरनेट के विस्तार के साथ  बड़ी संख्या में न्यूज पोर्टल, वेबसाइट, ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साइट आदि की संख्या बढ़ रही है। यही नहीं आज सारे अखबार और चैनलों में भी अपने इंटरनेट संस्करण हैं।
चिरंजीवी साहित्य लिखने का अधिकार तो गिने- चुने लोगों को है मगर जिसे कूड़ा साहित्य कहा जाता है उसे रचने वालों की तादाद भी बढ़ी है।
व्यापक विस्तार के कारण देश मीडिया क्रांति के दौर से गुजर रहा है और खासकर मीडिया उद्योग में आईसीटी के तेजी से विकास के साथ पत्रकारिता और नव मीडिया संचार का एक शक्तिशाली उपकरण बनकर उभरा है।
इतिहास बताता है- विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोम में हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार- पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – "Acta Diurna" (दिन की घटनाएं)। वास्तव में यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे।
आज थोक के भावों में अखबारों के संस्करण हैं, इनके निकलने के बावजूद खबरों का एक बड़ा कोना इन सबसे छूट जाता है। पत्रकारिता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं फिर भी यह सदैव कहा गया है एक  पत्रकार को स्वतंत्र रहना चाहिए, लेकिन  उच्छृंखल नहीं।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने चेतावनी भरे स्वर में मीडिया को अपनी हद में रहने की नसीहत दी। उन्होंने अखबारों के लिये एक लक्ष्मण रेखा भी खींच दी। कहा कि मीडिया अपनी सीमा से बाहर न जाए। इस पर हल्ला मच चुका है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बंगाल के लोगों के लिए यह तय करना चाहती हैं कि उन्हें कौन-सा अखबार पढऩा चाहिए। इसे किसी भी हाल में स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह आम लोगों के मौलिक व संवैधानिक अधिकार के खिलाफ है।
आज देखा जाए तो पत्रकारों पर पूरी दुनिया में हमले हो रहे हैं।  पाकिस्तान की नौसेना में अलकायदा के कथित घुसपैठ के बारे में एक आलेख लिखने के बाद शहजाद का अपहरण कर लिया गया था और फिर उनकी हत्या कर दी गई। इसके बावजूद मीडिया खतरों से खेल रहा है। काले धन के मुद्दे पर मीडिया को आगे आना चाहिए। पिछले कुछ समय में भ्रष्टाचार, काले धन की वापसी, घोटाले और अन्य मुद्दों को उभारने और उठाने का काम मीडिया ने ही किया है।  मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार व रिश्वतखोरी सरीखे विषयों पर मीडिया के कड़े रुख और निष्पक्षता के चलते अनेक लोगों को जेल जाना पड़ा। इस धंधे में खतरे तो हैं ही। मगर जिसे खतरे से डर हो वो यह पेशा ही न चुने।
मीडिया पर अंकुश के भी प्रयास होते रहते हैं, उच्चतम न्यायालय कह चुका है कि अदालती कार्यवाही के कवरेज के बारे में मीडिया के लिए दिशा- निर्देश सूत्रबद्ध करने का प्रयास संवैधानिक योजना के तहत पत्रकारों की सीमाबद्धताओं को स्पष्ट करने पर है। इस मुद्दे पर पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को केन्द्र से समर्थन मिला जिसने कहा कि न्यायिक कार्यवाहियों की मीडिया की रिपोर्टिंग को नियमित करने पर उच्चतम न्यायालय पर कोई संवैधानिक रोक नहीं है। प्रधान न्यायाधीश एस. एच. कपाडिय़ा की अध्यक्षता वाली पीठ कह चुकी है- हम चाहते हैं कि पत्रकार अपनी सीमाबद्धताएं जानें। अदालत ने इन अंदेशों को भी दूर करने की कोशिश की है कि अदालती कार्यवाही के मीडिया कवरेज पर मार्गनिर्देशों में कठोर प्रावधान होंगे। पीठ ने कहा, हम इस पक्ष में नहीं हैं कि पत्रकार जेल जाएं। पीठ ने कहा कि मार्गनिर्देश तय करने के प्रयास किए जा रहे हैं ताकि धारा 19 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार' के तहत प्रेस को प्रदत्त अधिकार और धारा 21 'जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार' को संतुलित किया जाए।
अगर समूचे मीडिया की बात करें तो प्रिंट में आज भी परम्परावाद है। अमूमन लोग स्वयं पर काबू रखते हैं। टीवी पर यह अंकुश नजर नहीं आता। भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने सरकार से अनुरोध किया है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के तरीके तलाशने के लिहाज से विशेषज्ञों का एक दल बनाया जाना चाहिए। काटजू ने कहा, 'प्रसिद्ध हस्तियों, समूहों, धर्म और समुदाय को बदनाम करने के लिए सोशल मीडिया का दुरुपयोग किया जाना इन दिनों आम हो गया है। हाल ही में एक सीडी के प्रसारण का मामला इसका उदाहरण है। इस सीडी को बनाने वाले ने स्वीकार किया है कि सुप्रीम कोर्ट के एक प्रतिष्ठित वरिष्ठ वकील और संसद सदस्य को बदनाम करने और एक केंद्रीय मंत्री को धमकाने के लिए इसमें छेड़छाड़ की। काटजू ने खेद जताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीडी के प्रसारण पर रोक के आदेश को नजरअंदाज करते हुए सोशल मीडिया में इस सीडी को लगातार अपलोड किया जा रहा है। उन्होंने अपने पत्र में लिखा, 'जब तक सोशल मीडिया पर कुछ प्रतिबंध नहीं लगाए जाते, भारत में किसी की प्रतिष्ठा सुरक्षित नहीं रह पाएगी। मैं आपसे कानून और तकनीकी विशेषज्ञों की एक टीम का गठन किए जाने का आग्रह करता हूं, जो सोशल मीडिया के दुरुपयोग से निपटने के उपाय खोज सके। मीडिया की स्वतंत्रता के मुद्दे पर काटजू ने लिखा कि मैं हमेशा से कहता आया हूं कि कोई भी आजादी बिना जिम्मेदारियों के नहीं मिलती। अगर मीडिया को भारत में आजादी चाहिए तो उसे कुछ जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ेंगी। किसी व्यक्ति की इज्जत उसकी बहुत बड़ी संपत्ति होती है। इसे कुछ शरारती तत्वों द्वारा नष्ट किए जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
अमूमन काटजू साहब की बात से सहमत हुआ जा सकता है मगर सच दिखाना भी मीडिया की मजबूरी है। यह सच कितना कैसे और किस रूप में दिखाया जाए। यह सवाल है। मसलन खबर में बलात्कार पीडि़ता का नाम नहीं लिखा जाता। ऐसा ही अन्य मामलों में भी होना चाहिए। फेसबुक पर मैं देखता हूं कि कुछ भी लिखने की मानों छूट है। यह गलत है। यह सोशल मीडिया का दुरूपयोग है। अमूमन सब गलत नहीं हैं मगर कुछ लोगों के कारण सब गलत समझ लिए जा रहें हैं। सोशल मीडिया को सामाजिक सरोकारों से जुड़कर कार्य करना होगा। गांवों का रुख करना होगा। देश में 70 करोड़ लोग 6 लाख गांवों में रहते हैं। ऐसे में समस्त मीडिया के सामने कड़ी चुनौती है।
हाल ही प्रकाश में आया है कि सुकमा के अपहृत जिलाधिकारी एलेक्स पॉल मेनन यदि नौकरशाह नहीं होते तो शायद वह पत्रकार होते। मेनन के एक पुराने मित्र का बयान है- कि कैसे उन्होंने दबे कुचले लोगों के कल्याण के लिए पत्रकारिता के करियर को छोड़कर नौकरशाही में कदम रखा। 2006 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी (32 वर्ष) मेनन 21 अप्रैल से नक्सलियों के कब्जे में हैं । मेनन कॉलेज के दिनों में आनंद विकातन पत्रिका समूह में पत्रकारिता के छात्र थे और तमिलनाडु के डिंडीगुल में रिपोर्टिंग करते थे। महानायक अमिताभ बच्चन ने भी ऐसी ही इच्छा जताई थी। कहने का आशय है कि यह पेशा आज भी अपनी चमक कायम रखे हुए है मगर वर्तमान में पेशागत गंभीरता नहीं होने के कारण इस पेशे के लोगों का भी अन्य वर्गों की तरह अवमूल्यन हुआ है। यह खेद की बात है।
संपर्क-  75 जे, नार्थ एवेन्यू, ब्रह्मा कुमारी आश्रम के पास, चौबे कालोनी, रायपुर, छत्तीसगढ़- 492 001
         Email- sharmarameshcg@gmail.com

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