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May 10, 2011

लघुकथाएँ

इस्तेमाल- सुभाष नीरव
डोर- बेल बजने पर दरवाजा खोला तो मोहक मुस्कान बिखेरती एक सुन्दर युवती खड़ी मिली। 'आओ, कनक। मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।' जाने- माने वयोवृद्ध लेखक श्रीयुत दीपांकर जी उसे देखकर चहक उठे।
कनक लता ने झुककर दीपांकर जी के चरण छुए और आशीर्वाद पाकर बैठक में पड़े सोफे पर बैठ गई। दीपांकर जी पत्नी को चाय के लिए कहकर सामने वाले सोफे पर आ बैठे।
'आदरणीय, पिछली संगोष्ठी पर आपने जो बात मुझसे कही थी, उस पर मैंने अमल करना आरंभ कर दिया है।' कनक ने बात की शुरुआत की।
'कौन-सी बात?' दीपांकर जी कुछ स्मरण करते-से सिर खुजलाते हुए बोले। फिर, यकायक जैसे उन्हें स्मरण हो आया, 'अच्छा- अच्छा...।' 'त्रिवेदी जी का फोन आया था।' कनक ने सोफे से पीठ टिकाकर बताना आरंभ किया, 'बहुत जोर दे रहे थे कि मैं उनकी पुस्तक पर होने वाली आगामी गोष्ठी का संचालन करुँ। पर मैंने संचालन करने इन्कार कर दिया।'
'त्रिवेदी जी तो नाराज हो गये होंगे?' दीपांकर जी ने कनक के चेहरे पर अपनी नजरें स्थिर करते हुए कहा।
'होते हैं तो हो जाएँ। बहुत बरस हो गये संचालन करते-करते। सचमुच, मेरा अपना लेखन किल होता रहा, इन संचालनों के चक्कर में। दायरा तो बढ़ा, लोग मुझे जानने- पहचानने भी लगे, पर एक संचालिका के रूप में, एक लेखक के रूप में नहीं।' कनक ने भौंहें सिकोड़कर अपना रोष और पीड़ा व्यक्त की। कुछ रुककर फिर बोली, 'आप ही की कहीं बात पर सोचती हूँ तो लगता है, आपने ठीक कहा था कि आखिर कब तक मैं दूसरों का नाम मंच से पुकारती रहूँगी। मुझे एक लेखक के तौर पर अपनी पहचान बनानी होगी लोगों के बीच। कोई मेरा भी नाम स्टेज से पुकारे, एक लेखक के तौर पर।' कनक ने माथे पर गिर आई लट को पीछे धकेला और चश्मे को ठीक करने लगी।
इस बीच चाय आ गई। चाय का कप उठाते हुए दीपांकर जी बोले, 'अच्छा निर्णय लिया तुमने। तुम्हारे अन्दर प्रतिभा है। अच्छा लिखती हो। तुम्हें अपनी ऊर्जा का इन फालतू के कामों में अपव्यय नहीं करना चाहिए। तुम्हें अपनी इस शक्ति और ऊर्जा को अपने लेखन में लगाना चाहिए।' चाय का कप उठाने से पहले, कनक ने झोले में से एक फाइल निकाली और दीपांकर जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, 'इसमें मेरी कुछ नई कहानियाँ है। पुस्तक रूप में देना चाहती हूँ। चाहती हूँ, छपने से पहले आप इन्हें एक बार देख लें... यदि कोई प्रकाशक सुझा सकें तो...'
'क्यों नहीं। ' फाइल उलट- पलटकर देखते हुए दीपांकर जी ने कहा, 'तुम अच्छा लिख रही हो। पुस्तक तो बहुत पहले आ जानी चाहिए थी। खैर, देर आयद, दुरुस्त आयद। मैं देखूंगा।'
कनक ने चाय खत्म की और घड़ी की ओर देखा। बोली, 'आदरणीय, क्षमा चाहती हूँ, मुझे कहीं जाना है। फिर जल्द ही मिलती हूँ। तब तक आप इन्हें पढ़ लें। '
कनक उठकर खड़ी हुई तो एकाएक दीपांकर जी को कुछ याद हो आया। बोले, 'सुनो कनक, 'शब्द-साहित्य' वाले अगले सप्ताह आठ तारीख को मेरा सम्मान करना चाहते हैं। मैंने तो बहुत मना किया, पर वे माने ही नहीं। मैं चाहता हूँ, तुम्हारी भी उस कार्यक्रम में कुछ भागीदारी हो। डरो नहीं, तुम्हें संचालिका के रूप में नहीं, एक नवोदित लेखिका के रूप में बुलाया जाएगा।' बगल के मेज पर से पाँच- छह किताबों का बंडल उठाते हुए वह बोले, 'ये मेरी कुछ किताबें हैं। पढ़ लेना। मैं चाहता हूँ, तुम मेरे व्यक्तित्व और कृतित्व पर पन्द्रह- बीस मिनट का आलेख तैयार करो, समारोह में पढऩे के लिए। समय कम है, पर मुझे विश्वास है, तुम लिख लोगी।' कनक लता ने एक नजर किताबों पर डाली, बेमन-से उन्हें झोले में डाला और प्रणाम कर बाहर निकल आई।

कबाड़

बेटे को तीन कमरों का फ्लैट आवंटित हुआ था। मजदूरों के संग मजदूर बने किशन बाबू खुशी- खुशी सामान को ट्रक से उतरवा रहे थे। सारी उम्र किराये के मकानों में गला दी। कुछ भी हो, खुद तंगी में रहकर बेटे को ऊँची तालीम दिलाने का फल ईश्वर ने उन्हें दे दिया था। बेटा सीधा अफसर लगा और लगते ही कम्पनी की ओर से रहने के लिए इतना बड़ा फ्लैट उसे मिल गया।
बेटा आफिस चला गया था। किशन बाबू और उनकी बहू ने दो मजदूरों की मदद से सारा सामान फ्लैट में रखवा दिया था।
दोपहर को लंच के समय बेटा आया तो देखकर दंग रह गया। सारा सामान करीने से सजा-संवारकर रखा गया था। एक बैडरूम, दूसरा ड्राइंगरूम और तीसरा पिताजी और मेहमानों के लिए। वाह !
बेटे ने पूरे फ्लैट का मुआयना किया। किचन, किचन के साथ बड़ा- सा एक स्टोर, जिसमें फालतू का काठ- कबाड़ भरा पड़ा था। उसने गौर से देखा और पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाया... देखो, स्टोर से सारा काठ-कबाड़ बाहर फिकवा दो। वहाँ तो एक चारपाई बड़े आराम से आ सकती है। ऐसा करो, उसकी अच्छी तरह सफाई करवाकर पिताजी की चारपाई वहीं लगवा दो। तीसरे कमरे को मैं अपना रीडिंग- रूम बनाऊँगा।
रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़- सी दुर्गन्ध आ रही थी।

धर्म-विधर्म

जब उन्हें बेटे की करतूत पता चली तो वह आग- बबूला हो उठे। 'नाक कटवा दी इसने तो पूरी बिरादरी में...जाति- धर्म कुछ न देखा! अरे, पढ़ा- लिखा कर इसीलिए बड़ा किया था इसे ?... अपने कुल का, अपने धर्म का नाम डुबा दिया इसने। कहीं मुँह दिखलाने लायक नहीं छोड़ा।'
पास बैठी पत्नी ने उन्हें समझाने की कोशिश की, 'आजकल के पढ़े- लिखे बच्चे जाति- धर्म पर यकीन नहीं करते।
'पर मैं गैर- धर्म की लड़की को अपनी बहू नहीं बना सकता। गैर-धर्म में हमें जाने की जरूरत ही क्या है, जब अपने धर्म में...।'
'यह न भूलो, जब अपने देवी- देवताओं के आगे माथा टेक- टेक कर कुछ न बना था तो इसी औलाद के लिए आप दूसरे धर्म के...।' आगे के शब्द पत्नी ने मुँह में ही दबा लिए।
पत्नी का कहा गया अधूरा वाक्य उन्हें भीतर तक छील गया। उनसे कुछ भी कहते नहीं बना। बस, नि:शब्द पत्नी के चेहरे को देर तक घूरते रहे।

पता- 372, टाइप-4, लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली-110023
मो. 09810534373, ईमेल : subhashneerav@gmail.com

4 comments:

सहज साहित्य said...

सुभाष नीरव जी की लघुकथा 'कबाड़' भीतर तक दहला जाती है तो दूसरी ओर धर्म- विधर्म में जीवन के दोहरे मानदण्डों पर गहरा कटाक्ष किया गया है ।

pran sharma said...

Subhash Neerav kee sabhee laghu
kathaayon mein ythaarth hain .

http://bal-kishor.blogspot.com/ said...

teeno rachnayen achhi hian
pavitra agarwal

http://bal-kishor.blogspot.com/ said...

subhash ji ki teeno laghu kathaye achchi hai .Kabad marmik hai .
pavitra agarwal