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Jun 5, 2010

मनोरंजन


मिक्स मसाला का दौर 
जहाँ खबरें बिकती हैंन
-संजय द्विवेदी
खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नजर से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नजरिया बनाए। अब नजरिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है।
भरोसा नहीं होता कि खबरें इतनी बदल जाएंगीं। समाचार चैनलों पर खबरों को देखना अब मिक्स मसाले जैसे मामला है। खबरिया चैनलों की होड़ और गला काट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर का ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी। आज यह कहना मुश्किल है कि आप समाचार चैनल देख रहे हैं या कोई मनोरंजन चैनल। कथ्य और प्रस्तुति के मोर्चे पर दोनों में बहुत अंतर नहीं दिखता।
मनोरंजन चैनल्स पर चल रहे कार्यक्रमों के आधार पर समाचार चैनल अपने कई घंटे समर्पित कर रहे हैं। उन पर चल रहे रियालिटी शो, नृत्य संगीत और हास्य-व्यंग्य के तमाम कार्यक्रमों की पुन: प्रस्तुति को देखना बहुत रोचक है। समाचारों की प्रस्तुति ज्यादा नाटकीय और मनोरंजक बनाने पर जोर है। ऐसे में उस सूचना का क्या हो जिसके इंतजार में दर्शक न्यूज चैनल पर आता है।
खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और खड़ी हो जाती हैं किनारे। खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नजर से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नजरिया बनाए। अब नजरिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस खबर को किस नजरिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। खबर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, खबर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ खबर तक नहीं है। खबर तो कहीं दूर बहुत दूर, खड़ी है... ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप खबर को इस नजर देखिए। वह यह भी बताता है कि इस खबर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं! वह यह भी जोड़ता है कि यह खबर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं। दर्शक को कमतर और खबर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहां खबर अपना असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्ला बोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहां से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर खबर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ में है कोई जादुई निदेशक। खबर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसर्गिक विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं। ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए। समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियां, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रुपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियां, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ?
बॉडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है। एनडीटीवी ने 'मेघा रे मेघा' नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भूत थीं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोडऩा तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन खबर देखी गई और महसूस भी की गई।
कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी का स्वयंवर, करीना सैफ की प्रेम कहानियों से आगे भी जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा। सलमान और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नजर डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आंखों से वे किसी खबरनवीस की आंखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज दे। कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुंचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, मांग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई खबरों ने हमसे मुंह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/ चैनल की ही चर्चा हो।
इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नजरिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई खबर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही। एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहां जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। खबरें भी हमारा मनोरंजन करें, यह एक नया सच हमारे सामने है। खबरें मनोरंजन का माध्यम बनीं, तभी तो बबली और बंटी एनडीटीवी पर खबर पढ़ते नजर आए। टीआरपी के भूत ने दरअसल हमारे आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। इसलिए हमारे चैनलों के नायक हैं- राखी सावंत, बाबा रामदेव और राजू श्रीवास्तव सुनील पाल। समाचार चैनल ऐसे ही नायक तलाश रहे हैं और गढ़ रहे हैं। कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं। 'भोगो और मुक्त हो,' यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे 'मर्द' की आंख का आकर्षण बनें यही टीवी न्यूज चैनलों का मूल विमर्श है।
जीवन शैली अब 'लाइफ स्टाइल' में बदल गयी है। बाजारवाद के मुख्य हथियार 'विज्ञापन' अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं। नग्नता ही स्त्री स्वातंत्रय का पर्याय बन गयी है। मेगा माल्स, ऊंची-ऊंची इमारतें, डिजाइनर कपड़ों के विशाल शोरूम, रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह। इस पूरे परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसते न्यूज चैनल एक ऐसी दुनिया रच रहे है जहां बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग और देहराग। अब तो यह कहा जाने लगा है खबर देखनी है तो डीडी न्यूज पर जाओ, कुछ डिबेट देखनी है तो लोकसभा चैनल लगा लो। हिंदी के समाचार चैनलों ने यह मान लिया है हिंदी में मनोरंजन बिकता है। अंधविश्वास बिकता है। बकवास बिकती है। सौंदर्य बिकता हैं। हालांकि इसके लिए किसी समाचार समूह ने कोई सर्वेक्षण नहीं करवाया है। किंतु यह आत्मविश्वासहीनता न्यूज चैनलों और मनोरंजन चैनलों के अंतर को कम करने का काम जरूर कर रही है। विचार के क्षेत्र में नए प्रयोगों के बजाए चैनल चमत्कारों, हाहाकारों, ठहाकों, विलापों की तलाश में हैं। जिनसे वे आम दर्शक की भावनाओं से खेल सकें। यह क्रम जारी है, जारी भी रहेगा। जब तक आप रिमोट का सही इस्तेमाल नहीं सीख जाते, तब तक चौंकिए मत क्योंकि आप न्यूज चैनल ही देख रहे है।

संपर्क- अध्यक्ष, जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र) मोबाइल नं.- 098935-98888
e-mail- 123dwivedi@gmail.com, Web-site- www.sanjaydwivedi.com

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