उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Dec 2, 2009

सड़क चिंतन


- डॉ. सुरेश कांत
सारी वास्तविकताओं को ध्यान में रखकर अगर परिभाषा बनाई जाए, तो सड़क नाम है, उस सरकारी संपत्ति का, जो अन्य सारी संपत्तियों को आपस में जोडऩे का काम करती है। जिस जगह या जिस चीज पर सरकार पैसा लगा दे, वह जगह या चीज सरकारी हो जाती है। जैसे सरकार कला या साहित्य के लिए इनाम देती है तो सरकार ही तय करती है कि कितने रुपये दिए जाएं। कलाकार या साहित्यकार के कद से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता। और देने के बाद भी वह इनाम सरकारी ही रहता है। सड़क का मामला भी कुछ ऐसा ही है। सरकार के लिए सरकारी लोगों द्वारा सरकारी काम करने के लिए काम कर रहे सरकारी दफ्तरों को जोडऩे वाली सरकारी सड़क पर हम-आप लोग जो चल-फिर लेते हैं, तो यह भूमि पर हमारे उपजने का इनाम ही है। हमारी कद-काठी या जरूरतों से इन सड़कों का कोई संबंध हो, यह सोचने का भी हमें अधिकार नहीं।
आखिर सड़क बनती कैसे है? बड़ा दार्शनिक सवाल है यह। उत्तर शायद यह है कि बहुत सारे गड्ढे लो, उन्हें आपस में मिला दो, सड़क बन जाएगी। चूंकि वह गड्ढों को आपस में मिलाने से बनती है, इसलिए कुछ समय बाद उसमें फिर से गड्ढे हो जाते हैं। सड़क बनाने वाले गड्ढों को फिर जोड़ देते हैं, जो फिर हो जाते हैं। इस प्रकार गड्ढों को सड़क बनाने और सड़कों को गड्ढे बनाने के कारण हमारे इंजीनियरों का दुनिया भर में नाम हो गया है। दुनिया के कई देश हमसे सड़क बनाने की टैक्नोलॉजी लेना चाहते हैं। वे हमसे इंजीनियरिंग के गुर जान लेना चाहते हैं, लेकिन वे यह नहीं जान पाते कि इस देश की सड़कें इंजीनियर नहीं, ठेकेदार बनाते हैं।
सड़क सरकारी है, यह समझने के लिए इतना ही याद कर लेना काफी है कि हम-आप सब उसका जी भरकर दुरुपयोग करते हैं। जिन्हें इतना काफी नहीं, वे यह सोच लें कि सड़क के साथ भी वह सब होता है, जो सरकार के साथ होता है। सरकार में कुछ विभाग होते हैं, जो अलग-अलग काम करते हैं। सड़क बनाने का भी एक विभाग होता है, जो सड़क ही बनाता है। कुछ लोगों में यह भ्रम व्याप्त है कि चूंकि सड़क है, इसलिए सड़क का विभाग है, तो कुछ लोगों में यह भ्रम कि चूंकि विभाग है, इसलिए सड़क है। जबकि सच्चाई यह है कि सड़क है, इसलिए विभाग है और विभाग है, इसलिए सड़क है। सड़क की वजह से विभाग है, तो विभाग की वजह से सड़क है। सड़क बने तो विभाग खाएगा क्या और जीवित कैसे रह पाएगा, और विभाग हो तो सड़क बनाने की जरूरत ही क्या रहेगी?
बहरहाल, सड़क सरकारी है, इसलिए इससे कर्मचारी जुड़े हैं, फाइलें हैं, कार-बंगले हैं, उनके लिए अफसर हैं और अफसरों के प्रमोशन हैं। सड़क सरकारी है, इसलिए इससे भ्रष्टाचार जुड़ा है, दलाल और ठेकेदार जुड़े हैं। तारीफ करने के लहजे में कहा जा सकता है कि सड़क नाम है उस भ्रष्टाचार का, जिसके माध्यम से सारे सरकारी भ्रष्टाचार इक-दूजे से जुड़ते हैं।
पहले सड़क बनी या पहले गड्ढा हुआ? मुर्गी और अंडे की तर्ज के इस शाश्वत सवाल का जवाब उन हातिमताई ठेकेदारों के पास है, जो सड़क बनाते हुए ही जानते हैं कि इस पर कब, कहां-कहां, कितने गड्ढे बन जाएंगे। बल्कि अंडे- बराबर मोती की तलाश में निकले ठेकेदार तो यह व्यवस्था रखते हैं कि इधर सड़क बने और उधर गड्ढे हों, ताकि उन्हें फिर सड़क रिपेयर करने का भी ठेका मिले। कुछ निहायत आम किस्म की पब्लिक भी साइंस के इस सिद्धांत को जानती है कि सड़क पर अगर पानी अटकेगा, उसके आसपास नाली नहीं होगी, तो सड़क बरसात आते ही गड्ढों की संसद बन जाएगी और हर गड्ढा व्यवस्था का प्रश्न बनकर खड़ा हो जाएगा। वैसे ठेकेदार और सरकार भी इस रहस्य को जानते हैं, लेकिन वे जानकार भी अनजान बने रहते हैं, क्योंकि इसी में उनका और अन्य सबका भला है।
आखिर जनता सड़क-कर देती किसलिए है? सड़कें नहीं टूटें तो ठेकेदार और इंजीनियर की रोजी-रोटी कैसे चले? सरकार अपना राजस्व कहां खर्च करे? कमीशन कहां बने, भ्रष्टाचार कहां हो? सड़क पर भ्रष्टाचार है तो जनता भी सड़क को रोती रहती है, वरना अगर ठेकेदार और इंजीनियर अपने पेट बांधकर दस साल तक खराब होने वाली सड़क बना डालें तो लोगों को भ्रष्टाचार की तलाश में सरकारी भवनों की खाक छाननी पड़ जाएगी। अगर हर सड़क रिपेयर हो तो दुनिया को अपनी यह राय बदलनी पड़ जाएगी कि भारतीय श्रेष्ठ मरम्मतकार होते हैं।
और अंत में, सड़क नाम है उस करिश्मे का, जिसके माध्यम से भगवान इनसान को सरकार के मारफत स्वर्ग और नरक का बोध करता है।
संपर्क: 7-बी/बी-2, हार्बर हाइट्स, एन. . सावंत मार्ग
कोलाबा, मुंबई-400 005, मो. 9820426703
व्यंग्यकार के बारे में ...

साहित्य में ऐसे कई लेखक हैं जो कई विधाओं में कलम चलाते हैं पर पहचान उनकी किसी एक विधा में बनती है। परसाई अपने को निबन्धकार कहानीकार मानते थे और श्रीलाल शुक्ल मनोहरश्याम जोशी अपने को उपन्यासकार कहलवाना पसंद करते थे, पर उनके पाठकों ने उन्हें आले दर्जे का व्यंग्यकार माना। सुरेशकान्त भी कहानियां लिखते हैं पर उनकी भी कदर एक व्यंग्यकार के रुप में होती है। सुरेशकान्त बहुत कम उम्र में ही लोकप्रिय हो गए थे जब उन्होंने मात्र उन्नीस वर्ष की उम्र में अपना व्यंग्य-उपन्यास ' से बैंक' लिखा। यह राजकमल प्रकाशन की सबसे अधिक बिकने वाली किताबों में से एक है। सुरेशकान्त की भाषा में बड़ी संवेदनात्मक तरलता है। वे कहानियां लिखें या व्यंग्य, वे निरन्तर अपने पाठक को बांधे रखते हैं। बड़ी घरेलू किसम की आत्मीय भाषा उनके पास है। सम्प्रति सुरेशकान्त भारतीय स्टेट बैंक के कार्पोरेट कार्यालय, मुम्बई में उप महाप्रबंधक (राजभाषा) हैं। वहां से वे त्रैमासिक पत्रिका 'प्रयास' का सम्पादन करते हैं। यहां प्रस्तुत उनकी व्यंग्य रचना 'सड़क चिन्तन' के बहाने उन्होंने निर्माण कार्यों में कोताही बरतने वाले इंजीनियरों और ठेकेदारों की सुधि ली है। किस तरह लोक निर्माण विभाग के क्षेत्र में निर्माण कार्यों में अनियमितता बरतने के कारण निलम्बित हुए इंजीनियरों और बाबुओं का एक गिरोह होता है जो सड़क और पुल निर्माण में घोटाले के आरोप में एक साथ निलम्बित होते हैं, फिर उनकी एक साथ विभागीय जांच होती है और अपने को पाक-साफ साबित करवाकर वे फिर एक साथ अपनी नौकरी में बहाल हो जाते हैं।
- विनोद साव

1 comment:

Jawahar choudhary said...

सुरेष कांत जी हमारे समय के महत्वपूर्ण व्यंग्यकार हैं ।
इनकी षैली, जैसा कि आपके कहा है बहुत सहज-सरल
है । यही विषेषता उन्हें अन्यों से अलग करती है ।

जवाहर चैधरी , 16 कौषल्यापुरी, चितावद रोड़, इन्दौर - 452001
फोन - 98263 61533 , 0731-2401670