अतिथि- दीपाली शुक्ला
सांझ ढल रही थी। हवा के साथ भजन-कीर्तन की आवाज़ वातावरण में चहुंओर बह रही थी। देवी मन्दिर में कॉलोनी की सारी महिलाएं सुर से सुर मिलाकर गाने में मगन थीं। सड़क के दूसरी ओर बच्चे खेलने में मस्त थे।
इधर नभ से लालिमा गायब हुई, उधर अन्धकार ने अपनी चादर फैलाई। महिलाओं ने भी अपना कीर्तन समाप्त कर दिया।
मम्मी देखो, एक छोटा बच्चा बोला। कितना सुन्दर बच्चा। सबका ध्यान गाय के नन्हे छौने की ओर गया। वह सड़क के पार खड़ा धीरे-धीरे आवाज़ निकाल रहा था। एक बुजुर्ग महिला कहने लगीं, लगता है बेचारा अपनी मां से बिछुड़ गया है। भूखा होगा। उन्होंने प्रसाद के कुछ फल उसके आगे रख दिए। नन्हे ने सब कुछ जल्दी-जल्दी खा लिया और फिर सड़क पारकर भजन मंडली के पास आ गया।
बड़े और छोटे सभी उसको दुलारने लगे। बछिया है, एक आवाज आई। इसकी मां परेशान हो रही होगी, किसी ने कहा। चलो..चलें वरना देर हो जाएगी, एक महिला बोल पड़ी। सबने हां में हां मिलाई और उनके कदम घरों की ओर बढ़ गए ।
बछिया भी उनके पीछे-पीछे हो ली। सब अपने अपने घरों में चले गए। बछिया वहीं सड़क पर इधर से उधर मंडराने लगी। ज्यों ज्यों समय बीतने लगा बछिया ने जोर-जोर से रम्भाना शुरू कर दिया। आवाज़ सुनकर कुछेक महिलाएं बाहर आर्इं। पेट नहीं भरा है शायद इसलिए परेशान हो रही है। घर से लाकर किसी ने रोटी तो किसी ने उसको सब्जी खिलाई। किसी ने कहा, जाने दो। जानवर है, ऐसा तो होता ही रहता है। इसकी मां आकर इसे ले जाएगी।
रात के सन्नाटे के साथ बछिया की आवाज़ पूरे वातावरण में बढ़ती जा रही थी। उसका रूदन सुनकर दिन भर के काम से फारिग होकर आराम करने की तैयारी कर रही महिलाओं की बैचैनी बढऩे लगी। क्या करें? ...एक बिल्डिंग की तीन-चार महिलाएं बाहर निकल आई। ऐसा करते हैं इसको मन्दिर के आंगन में बांध देते हैं। आसमान बादलों से भरा है। बारिश हुई तो भीग जाएगी। यदि इसकी मां आई तो, एक ने शंका व्यक्त की। आंगन की जाली से बच्चा उसको दिख जाएगा और वो बाहर ही इंतज़ार कर लेगी। ठीक है। बड़ी मशक्कत से महिलाएं बछिया को मन्दिर के आंगन में लाईं । उसे बांधा। उसके लिए पानी रखा और फिर वापस लौट ग्इं। लेकिन उन सबके मन में उस नन्हे से जीव को लेकर चिन्ता बनी रही। बछिया ने पानी पिया होगा या नहीं? उसके पास खाने का रखा है, खा ले तो ठीक रहेगा। यदि उसकी मां उसे ढूंढते हुए नहीं आई तो? न जाने कितनी ही अनगनित बातें मस्तिष्क में कौंधती रहीं। रात बढऩे के साथ ही बछिया की आवाज़ कम होती गई। सुबह पौ फटते ही महिलाएं मन्दिर की ओर ग्इं। बाहर एक गाय को सोते देखकर उन्होंने राहत की सांस ली। जैसे ही दरवाजा खोला, बछिया बाहर निकली और गाय की ओर दौड़ पड़ी । लाड़-दुलाकर के बाद गाय ने अपनी बछिया साथ अपनी राह ली।
उनको जाता देखकर महिलाओं के चेहरे खिल उठे।
तभी उसने देखा कोई सेठानी जलेबी बांट रही हैं। उसके दोस्त जलेबी पाने के लिए एक दूसरे पर गिरे पड़ रहे हैं। उन्हें देखकर उसने सोचा, दिनभर खाने को अच्छा-अच्छा तो मिलता है। यदि स्कूल जाता तो ये ऐश कहां से होते। ये ही जिन्दगी बेहतर है। अगले ही पल वह उठकर दोस्तों की भीड़ में शामिल हो गया।
इधर नभ से लालिमा गायब हुई, उधर अन्धकार ने अपनी चादर फैलाई। महिलाओं ने भी अपना कीर्तन समाप्त कर दिया।
मम्मी देखो, एक छोटा बच्चा बोला। कितना सुन्दर बच्चा। सबका ध्यान गाय के नन्हे छौने की ओर गया। वह सड़क के पार खड़ा धीरे-धीरे आवाज़ निकाल रहा था। एक बुजुर्ग महिला कहने लगीं, लगता है बेचारा अपनी मां से बिछुड़ गया है। भूखा होगा। उन्होंने प्रसाद के कुछ फल उसके आगे रख दिए। नन्हे ने सब कुछ जल्दी-जल्दी खा लिया और फिर सड़क पारकर भजन मंडली के पास आ गया।
बड़े और छोटे सभी उसको दुलारने लगे। बछिया है, एक आवाज आई। इसकी मां परेशान हो रही होगी, किसी ने कहा। चलो..चलें वरना देर हो जाएगी, एक महिला बोल पड़ी। सबने हां में हां मिलाई और उनके कदम घरों की ओर बढ़ गए ।
बछिया भी उनके पीछे-पीछे हो ली। सब अपने अपने घरों में चले गए। बछिया वहीं सड़क पर इधर से उधर मंडराने लगी। ज्यों ज्यों समय बीतने लगा बछिया ने जोर-जोर से रम्भाना शुरू कर दिया। आवाज़ सुनकर कुछेक महिलाएं बाहर आर्इं। पेट नहीं भरा है शायद इसलिए परेशान हो रही है। घर से लाकर किसी ने रोटी तो किसी ने उसको सब्जी खिलाई। किसी ने कहा, जाने दो। जानवर है, ऐसा तो होता ही रहता है। इसकी मां आकर इसे ले जाएगी।
रात के सन्नाटे के साथ बछिया की आवाज़ पूरे वातावरण में बढ़ती जा रही थी। उसका रूदन सुनकर दिन भर के काम से फारिग होकर आराम करने की तैयारी कर रही महिलाओं की बैचैनी बढऩे लगी। क्या करें? ...एक बिल्डिंग की तीन-चार महिलाएं बाहर निकल आई। ऐसा करते हैं इसको मन्दिर के आंगन में बांध देते हैं। आसमान बादलों से भरा है। बारिश हुई तो भीग जाएगी। यदि इसकी मां आई तो, एक ने शंका व्यक्त की। आंगन की जाली से बच्चा उसको दिख जाएगा और वो बाहर ही इंतज़ार कर लेगी। ठीक है। बड़ी मशक्कत से महिलाएं बछिया को मन्दिर के आंगन में लाईं । उसे बांधा। उसके लिए पानी रखा और फिर वापस लौट ग्इं। लेकिन उन सबके मन में उस नन्हे से जीव को लेकर चिन्ता बनी रही। बछिया ने पानी पिया होगा या नहीं? उसके पास खाने का रखा है, खा ले तो ठीक रहेगा। यदि उसकी मां उसे ढूंढते हुए नहीं आई तो? न जाने कितनी ही अनगनित बातें मस्तिष्क में कौंधती रहीं। रात बढऩे के साथ ही बछिया की आवाज़ कम होती गई। सुबह पौ फटते ही महिलाएं मन्दिर की ओर ग्इं। बाहर एक गाय को सोते देखकर उन्होंने राहत की सांस ली। जैसे ही दरवाजा खोला, बछिया बाहर निकली और गाय की ओर दौड़ पड़ी । लाड़-दुलाकर के बाद गाय ने अपनी बछिया साथ अपनी राह ली।
उनको जाता देखकर महिलाओं के चेहरे खिल उठे।
जि़न्दगी
भैया..दो ना। मैंने सुबह से कुछ भी नहीं खाया है। चेहरे पर दीनता के भाव, बदरंग घिसे कपड़े पहने हुए बच्चे को खाने की ओर ललचायी नजऱों से घूरते देखकर नौजवान का दिल पिघल गया। उसने पोहे का दोना उसकी ओर बढ़ाया और चलता बना। बच्चे ने जल्दी- जल्दी पोहा मुंह में डाला और दोना खाली कर दिया। दीदी...थोड़ी चाय....कितनी ठंड है। उसकी कांपती देह पर दृष्टि डालकर युवती ने भी दोने में चाय डाल दी। चाय की चुस्की लेते ही जैसे उसे ताजग़ी का अनुभव हुआ। वह सुस्ताने के लिए सड़क किनारे फुटपाथ पर पसर गया। वहां पहले से ही उसके दोस्त मौजूद थे। उसके हमउम्र दो-चार बच्चे कंधें पर स्कूल बैग टांगे उसके सामने से गुजर गए। एक क्षण के लिए उसके मन में टीस उठी, काश मैं भी इनके साथ जा सकता।तभी उसने देखा कोई सेठानी जलेबी बांट रही हैं। उसके दोस्त जलेबी पाने के लिए एक दूसरे पर गिरे पड़ रहे हैं। उन्हें देखकर उसने सोचा, दिनभर खाने को अच्छा-अच्छा तो मिलता है। यदि स्कूल जाता तो ये ऐश कहां से होते। ये ही जिन्दगी बेहतर है। अगले ही पल वह उठकर दोस्तों की भीड़ में शामिल हो गया।
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