- सआदत हसन मंटो
'बच्चे कहां हैं?'
'मर गए।'
'सबके सब?'
'हां, सबके सब। आपको आज उनके बारे में पूछने का क्यों ख्याल आ गया?'
'मैं उनका बाप हूं।'
'आप-ऐसा बाप खुदा करे कभी पैदा ही न हो।'
'तुम आज इतनी $ख$फा क्यों हो- मेरी समझ में नहीं आता। घड़ी में रत्ती, घड़ी में माशा हो जाती हो। दफ्तर से थककर आया हूं और तुमने यह चख-चख शुरु कर दी है। बेहतर था कि मैं वहां दफ्तर में पंखे के नीचे आराम करता।'
'पंखा यहां भी है। आप आरामतलब हैं, यहीं आराम फरमा सकते हैं.'
'तुम्हारा गुस्सा कभी नहीं जाएगा। मेरा ख्याल है कि यह चीज तुम्हें दहेज में मिली थी।'
'मैं कहती हूं कि आप मुझसे इस किस्म की खुराफात न बका कीजिए। आपके दीदों का तो पानी ही ढल गया है।'
'यहां तो सब कुछ ढल गया है। तुम्हारी वह जवानी कहां गई? मैं तो अब ऐसा महसूस करता हूं, जैसे सौ वर्ष का बुड्ढा हूं।'
'आप के कर्मों का नतीजा है। मैंने तो खुद को कभी बूढ़ा महसूस नहीं किया।'
'मेरे कर्म इतने काले तो नहीं, और फिर मैं तुम्हारा शौहर होते हुए क्या इतना भी महसूस नहीं कर सकता कि तुम्हारा हुस्न अब रू-ब-मंजिल है।'
'मुझसे ऐसी जबान में गुफ्तगू कीजिए जिसको मैं समझ सकूं यह रू-ब-न•ाल क्या हुआ?'
'छोड़ो इसे, आओ मुहब्बत-प्यार की बातें करें।'
'आपने अभी तो कहा था कि आपको ऐसा महसूस होता है जैसे सौ वर्ष के बूढ़े हैं।'
'भई, दिल तो जवान है।'
'आपके दिल को मैं क्या कहूं - आप इसे दिल कहते हैं। मुझसे कोई पूछे तो यही कहूंगी कि पत्थर का एक टुकड़ा है जो इस शख्स ने अपने पहलू में दबा रखा है और दावा यह करता है कि उसमें मुहब्बत भरी हुई है। आप मुहब्बत करना क्या जानें, मुहब्बत तो सिर्फ औरत ही कर सकती है।'
'आज तक कितनी औरतों ने मर्दों से मुहब्बत की है, जरा तारीख पढ़कर देखो। हमेशा मर्दों ने औरतों से मुहब्बत की और उसे निभाया। औरतें तो हमेशा बेव$फा रही हैं।'
'झूठ- इसका अव्वल झूठ, इसका आखिर झूठ। बेवफाई तो हमेशा मर्दों ने की है।'
'और वह जो इंग्लिस्तान के बादशाह ने एक मामूली औरत के लिए तख्त-व-ता•ा छोड़ दिया था? वह क्या कोई फर्जी और झूठी दास्तान है।'
'बस एक मिसाल पेश कर दी और मुझ पर रौब डाल दिया।'
'भई, तारीख में ऐसी हजारों मिसालें मौजूद हैं। मर्द जब किसी औरत से इश्क करता है तो वह कभी पीछे नहीं हटता। कम्बख्त अपनी जान कुर्बान कर देगा, मगर अपनी महबूबा को जरा-सी भी हानि पहुंचने नहीं देगा। तुम नहीं जानती हो, मर्द में जबकि वह मुहब्बत में गिरफ्तार हो, कितनी ताकत होती है।'
'सब जानती हूं। आपसे तो कल अलमारी का जमा हुआ दरवाजा भी नहीं खुल सका, आखिर मुझे ही जोर लगाकर खोलना पड़ा।'
'देखो, जानम- तुम ज्यादती कर रही हो। तुम्हें मालूम है कि मेरे दाहिने बाजू में रीह (वायु) का दर्द था। मैं उस दिन दफ्तर भी नहीं गया था और सारा दिन और सारी रात पड़ा कराहता रहा था। तुमने मेरा कोई ख्याल नहीं किया और अपनी सहेलियों के साथ सिनेमा देखने चली गई।'
'आप तो बहाना कर रहे थे।'
'लाहौल विला- यानी मैं बहाना कर रहा था। दर्द के मारे मेरा बुरा हाल हो रहा था और तुम कहती हो कि मैं बहाना कर रहा था, लानत है ऐसी जिंदगी पर।'
'यह लानत मुझ पर भेजी गई है।'
'आप तो हर वक्त रोते ही रहते हैं।'
'तुम तो हंसती रहती हो- इसलिए तुम्हें किसी की परवाह नहीं। बच्चे जाएं जहन्नुम में। मेरा जना•ाा निकल जाए, यह मकान जलकर राख हो जाए। मगर तुम हंसती रहोगी। ऐसी बेदिल औरत मैंने आज तक अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखी। '
'कितनी औरतें देखी है आपने अब तक?'
'हजारों, लाखों-सड़कों पर तो आज-कल औरतें ही औरतें नजर आती हैं।'
'झून न बोलिए, आपने कोई न कोई औरत खासतौर पर देखी है?'
'खासतौर पर से तुम्हारा मतलब क्या है?'
'मैं आपके राज खोलना नहीं चाहती, मैं अब चलती हंू।'
'कहां?'
'एक सहेली के पास, उससे अपना दुखड़ा बयान करूंगी। खुद रोऊंगी, उसको भी रूलाऊंगी- इस तरह कुछ जी हल्का हो जाएगा।'
'वह दुखड़ा जो तुम्हें अपनी सहेली से बयान करना है, मुझे ही बता दो। मैं तुम्हारे $गम में शरीक होने का वायदा करता हूं।'
'आपके वायदे?- कभी पूरे भी हुए हैं?'
'तुम बहुत ज्य़ादती कर रही हो। मैंने आज तक तुमसे जो भी वायदा किया, पूरा किया। अभी पिछले दिनों तुमने मुझसे कहा कि चाय का एक सेट ला दो, मैंने एक दोस्त से रूपए कर्ज लेकर बहुत बढिय़ा सेट खरीदकर तुम्हें ला दिया।'
'बड़ा अहसान किया मुझ पर। वह तो दरअसल आप अपने दोस्तों के लिए लाए थे। उसमें से दो प्याले किसने तोड़े थे, जरा यह तो बताइए? '
'एक प्याला तुम्हारे बड़े लड़के ने तोड़ा, दूसरा तुम्हारी छोटी बच्ची ने।'
'सारा इल्जाम आप हमेशा उन्हीं पर धरते हैं। अच्छा अब यह बहस बंद हो, मुझे नहा-धोकर कपड़े पहनना और जूड़ा करना है।'
'देखो, मैंने आज तक कभी सख्ती नहीं की। मैं हमेशा तुम्हारे साथ नर्मी से पेश आता रहा हूं। मगर आज मैं तुम्हें हुक्म देता हूंं कि तुम बाहर नहीं नहीं जा सकतीं।'
'अजी, वाह- बड़े आए मुझ पर हुक्म चलाने वाले- आप हैं कौन?'
'इतनी जल्दी भूल गई हो - मैं तुम्हारा खाविंद हूं।'
'मैं नहीं जानती खाविंद क्या होता है, मैं अपनी मर्जी की मालिक हूं। मैं बाहर जाऊंगी और जरूर जाऊंगी। देखती हूं मुझे कौन रोकता है?'
'तुम नहीं जाओगी, बस यह मेरा फैसला है।'
'फैसला अब अदालत ही करेगी।'
'अदालत का यहां क्या सवाल पैदा होता है। मेरी समझ में नहीं आता, आज तुम कैसी ऊटपटांग बातें कर रही हो। तुक की बात करो, जाओ नहा लो ताकि तुम्हारा दिमाग किसी हद तक ठंडा हो जाए।'
'आपके साथ रहकर मैं तो सिर से पांव तक बर्फ हो चुकी हूं।'
'कोई औरत अपने खाविंद से खुश नहीं होती। ख्वाह वह बेचारा कितना ही शरीफ क्यों न हो। उसमें कीड़े डालना औरतों की आदत में दाखिल है। मैंने तुम्हारी कई खताएं और गलतियां माफ की हैं।'
'मैंने, खुदा के नाम पर बताओ तो कौन-सी खता की?'
'पिछले बरस तुमने शलजम की, रात की सब्जी बड़े ठाठ से पकाने का इरादा किया। शाम को चूल्हे पर हंडिया रखकर तुम ऐसी सोई कि सुबह उठकर जब मैं बावर्चीखाने मेें गया तो देखा कि देगची में सारे शलजम कोयला बने हुए हैं। उनको निकालकर मैंने अंगीठी सुलगाई और चाय तैयार की- तुम सो रही थीं।'
'मैं यह बकवास सुनने के लिए तैयार नहीं।'
'इसलिए कि इसमें झूठ का एक जर्रा नहीं। मैं अक्सर सोचता हूं कि औरत को सच और हकीकत से क्यों चिड़ है। मैं अगर कह दूं कि तुम्हारा बायां गाल तुम्हारे दाएं के मुकाबले कहीं ज्यादा मोटा है, तो शायद तुम मुझे सारी उम्र न बख्शो- मगर यह हकीकत है, जिसे शायद तुम भी अच्छी तरह महसूस करती हो। देखो यह पेपरवेट कहीं रख दो, उठाकर मेरे सिर पर दे मारा तो थाना-पुलिस हो जाएगा।'
'मैंने पेपरवेट इसलिए उठाया था कि यह बिल्कुल आपके चेहरे के समान है। इसके अंदर जो हवा के बुलबुले-से हैं वे आपकी आंखें हैं- और यह जो लाल-सी चीज है, वह आपकी नाक है, जो हमेशा सुर्ख रहता है। मैंने जब आपको पहली बार देखा तो मुझे ऐसा लगा था जैसे आपको आंखों के नीचे जो गाय की आंखें हैं, एक काक्रोच औंधे मुंह बैठा है।'
'तुम्हारा जी हल्का हो गया।'
'मेरा जी कभी हल्का न होगा। मुझे आप जाने दीजिए। नहा-धोकर मैं शायद यहां से हमेशा के लिए चली जाऊंगी।'
'जाने से पहले यह तो बता जाओ कि इस जाने का कारण क्या है?'
'मैं बताना नहीं चाहती, आप तो अव्वल दर्जे के बेशर्म हैं।'
'भई, तुम्हारी इस सारी गुफ्तगू का मतलब अभी तक मेरी समझ में नहीं आया। मालूम नहीं तुम्हें मुझसे क्या शिकायत एकदम पैदा हो गई है।'
'जरा अपने कोट की अंदरूनी जेब में हाथ डालिए।'
'मेरा कोट कहां है?'
'लाती हूं, लाती हूं।'
'मेरे कोट में क्या हो सकता है- व्हिस्की की बोतल- वह तो मैंने बाहर ही खत्म करके फेंक दी थी, लेकिन हो सकता है रह गई हो।'
'लीजिए, यह रहा आपका कोट।'
'अब मैं क्या करूं।'
'इसकी अंदर की जेब में हाथ डालिए और उस लड़की की तस्वीर निकालिए जिससे आप आजकल इश्क लड़ा रहे हैं।'
'लाहौल विला- तुमने मेरे औसान खता कर दिए थे। यह तस्वीर, मेरी जान, मेरी बहन की है, जिसको तुमने अभी तक नहीं देखा। अफ्रीका में है। तुमने यह खत नहीं देखा, साथ ही तो था- यह लो।'
'हाय, कितनी खूबसूरत लड़की है, मेरे भाईजान के लिए बिल्कुल ठीक रहेगी।'
सआदत हसन मण्टो
11 मई 1921 को समराला जिला लुधियाना में जन्म। शिक्षा अमृतसर और अलीगढ़ में हुई। मण्टो ने पहली कहानी 'तमाशा' जलियांवाला बाग की रक्तरंजित घटना से प्रेरित होकर लिखी थी। 1935 में उनका पहला कहानी संग्रह 'आतिशपारे' प्रकाशित हुआ। कहानियों के अतिरिक्त मण्टो ने नाटक, रेडियो वार्ताएं, निबंध, रेखाचित्र और व्यक्तिचित्र भी लिखे, और कुछ अनुवाद भी किये, जिनमें गोर्की की कहानियां उल्लेखनीय है। मण्टो अपने जीवन और साहित्य दोनों में विद्रोही थे, और उनके इस विद्रोही तेवर को समाज ने कभी बर्दाश्त नहीं किया। तथाकथित 'अश्लील' कहानियां लिखने के लिए मण्टो पर पांच मुकदमे चलाये गये, जो अपने आपमें एक रिकार्ड है। यह एक विचित्र संयोग है कि मण्टो ने एक फिल्म 'आठ दिन' में एक पागल मिलिटरी अफसर की छोटी-सी भूमिका की थी, और फिर अपने व्यक्तिगत जीवन में वे दो बार पागल हुए। 18 जनवरी 1955 को उनका निधन हुआ।
'मर गए।'
'सबके सब?'
'हां, सबके सब। आपको आज उनके बारे में पूछने का क्यों ख्याल आ गया?'
'मैं उनका बाप हूं।'
'आप-ऐसा बाप खुदा करे कभी पैदा ही न हो।'
'तुम आज इतनी $ख$फा क्यों हो- मेरी समझ में नहीं आता। घड़ी में रत्ती, घड़ी में माशा हो जाती हो। दफ्तर से थककर आया हूं और तुमने यह चख-चख शुरु कर दी है। बेहतर था कि मैं वहां दफ्तर में पंखे के नीचे आराम करता।'
'पंखा यहां भी है। आप आरामतलब हैं, यहीं आराम फरमा सकते हैं.'
'तुम्हारा गुस्सा कभी नहीं जाएगा। मेरा ख्याल है कि यह चीज तुम्हें दहेज में मिली थी।'
'मैं कहती हूं कि आप मुझसे इस किस्म की खुराफात न बका कीजिए। आपके दीदों का तो पानी ही ढल गया है।'
'यहां तो सब कुछ ढल गया है। तुम्हारी वह जवानी कहां गई? मैं तो अब ऐसा महसूस करता हूं, जैसे सौ वर्ष का बुड्ढा हूं।'
'आप के कर्मों का नतीजा है। मैंने तो खुद को कभी बूढ़ा महसूस नहीं किया।'
'मेरे कर्म इतने काले तो नहीं, और फिर मैं तुम्हारा शौहर होते हुए क्या इतना भी महसूस नहीं कर सकता कि तुम्हारा हुस्न अब रू-ब-मंजिल है।'
'मुझसे ऐसी जबान में गुफ्तगू कीजिए जिसको मैं समझ सकूं यह रू-ब-न•ाल क्या हुआ?'
'छोड़ो इसे, आओ मुहब्बत-प्यार की बातें करें।'
'आपने अभी तो कहा था कि आपको ऐसा महसूस होता है जैसे सौ वर्ष के बूढ़े हैं।'
'भई, दिल तो जवान है।'
'आपके दिल को मैं क्या कहूं - आप इसे दिल कहते हैं। मुझसे कोई पूछे तो यही कहूंगी कि पत्थर का एक टुकड़ा है जो इस शख्स ने अपने पहलू में दबा रखा है और दावा यह करता है कि उसमें मुहब्बत भरी हुई है। आप मुहब्बत करना क्या जानें, मुहब्बत तो सिर्फ औरत ही कर सकती है।'
'आज तक कितनी औरतों ने मर्दों से मुहब्बत की है, जरा तारीख पढ़कर देखो। हमेशा मर्दों ने औरतों से मुहब्बत की और उसे निभाया। औरतें तो हमेशा बेव$फा रही हैं।'
'झूठ- इसका अव्वल झूठ, इसका आखिर झूठ। बेवफाई तो हमेशा मर्दों ने की है।'
'और वह जो इंग्लिस्तान के बादशाह ने एक मामूली औरत के लिए तख्त-व-ता•ा छोड़ दिया था? वह क्या कोई फर्जी और झूठी दास्तान है।'
'बस एक मिसाल पेश कर दी और मुझ पर रौब डाल दिया।'
'भई, तारीख में ऐसी हजारों मिसालें मौजूद हैं। मर्द जब किसी औरत से इश्क करता है तो वह कभी पीछे नहीं हटता। कम्बख्त अपनी जान कुर्बान कर देगा, मगर अपनी महबूबा को जरा-सी भी हानि पहुंचने नहीं देगा। तुम नहीं जानती हो, मर्द में जबकि वह मुहब्बत में गिरफ्तार हो, कितनी ताकत होती है।'
'सब जानती हूं। आपसे तो कल अलमारी का जमा हुआ दरवाजा भी नहीं खुल सका, आखिर मुझे ही जोर लगाकर खोलना पड़ा।'
'देखो, जानम- तुम ज्यादती कर रही हो। तुम्हें मालूम है कि मेरे दाहिने बाजू में रीह (वायु) का दर्द था। मैं उस दिन दफ्तर भी नहीं गया था और सारा दिन और सारी रात पड़ा कराहता रहा था। तुमने मेरा कोई ख्याल नहीं किया और अपनी सहेलियों के साथ सिनेमा देखने चली गई।'
'आप तो बहाना कर रहे थे।'
'लाहौल विला- यानी मैं बहाना कर रहा था। दर्द के मारे मेरा बुरा हाल हो रहा था और तुम कहती हो कि मैं बहाना कर रहा था, लानत है ऐसी जिंदगी पर।'
'यह लानत मुझ पर भेजी गई है।'
'आप तो हर वक्त रोते ही रहते हैं।'
'तुम तो हंसती रहती हो- इसलिए तुम्हें किसी की परवाह नहीं। बच्चे जाएं जहन्नुम में। मेरा जना•ाा निकल जाए, यह मकान जलकर राख हो जाए। मगर तुम हंसती रहोगी। ऐसी बेदिल औरत मैंने आज तक अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखी। '
'कितनी औरतें देखी है आपने अब तक?'
'हजारों, लाखों-सड़कों पर तो आज-कल औरतें ही औरतें नजर आती हैं।'
'झून न बोलिए, आपने कोई न कोई औरत खासतौर पर देखी है?'
'खासतौर पर से तुम्हारा मतलब क्या है?'
'मैं आपके राज खोलना नहीं चाहती, मैं अब चलती हंू।'
'कहां?'
'एक सहेली के पास, उससे अपना दुखड़ा बयान करूंगी। खुद रोऊंगी, उसको भी रूलाऊंगी- इस तरह कुछ जी हल्का हो जाएगा।'
'वह दुखड़ा जो तुम्हें अपनी सहेली से बयान करना है, मुझे ही बता दो। मैं तुम्हारे $गम में शरीक होने का वायदा करता हूं।'
'आपके वायदे?- कभी पूरे भी हुए हैं?'
'तुम बहुत ज्य़ादती कर रही हो। मैंने आज तक तुमसे जो भी वायदा किया, पूरा किया। अभी पिछले दिनों तुमने मुझसे कहा कि चाय का एक सेट ला दो, मैंने एक दोस्त से रूपए कर्ज लेकर बहुत बढिय़ा सेट खरीदकर तुम्हें ला दिया।'
'बड़ा अहसान किया मुझ पर। वह तो दरअसल आप अपने दोस्तों के लिए लाए थे। उसमें से दो प्याले किसने तोड़े थे, जरा यह तो बताइए? '
'एक प्याला तुम्हारे बड़े लड़के ने तोड़ा, दूसरा तुम्हारी छोटी बच्ची ने।'
'सारा इल्जाम आप हमेशा उन्हीं पर धरते हैं। अच्छा अब यह बहस बंद हो, मुझे नहा-धोकर कपड़े पहनना और जूड़ा करना है।'
'देखो, मैंने आज तक कभी सख्ती नहीं की। मैं हमेशा तुम्हारे साथ नर्मी से पेश आता रहा हूं। मगर आज मैं तुम्हें हुक्म देता हूंं कि तुम बाहर नहीं नहीं जा सकतीं।'
'अजी, वाह- बड़े आए मुझ पर हुक्म चलाने वाले- आप हैं कौन?'
'इतनी जल्दी भूल गई हो - मैं तुम्हारा खाविंद हूं।'
'मैं नहीं जानती खाविंद क्या होता है, मैं अपनी मर्जी की मालिक हूं। मैं बाहर जाऊंगी और जरूर जाऊंगी। देखती हूं मुझे कौन रोकता है?'
'तुम नहीं जाओगी, बस यह मेरा फैसला है।'
'फैसला अब अदालत ही करेगी।'
'अदालत का यहां क्या सवाल पैदा होता है। मेरी समझ में नहीं आता, आज तुम कैसी ऊटपटांग बातें कर रही हो। तुक की बात करो, जाओ नहा लो ताकि तुम्हारा दिमाग किसी हद तक ठंडा हो जाए।'
'आपके साथ रहकर मैं तो सिर से पांव तक बर्फ हो चुकी हूं।'
'कोई औरत अपने खाविंद से खुश नहीं होती। ख्वाह वह बेचारा कितना ही शरीफ क्यों न हो। उसमें कीड़े डालना औरतों की आदत में दाखिल है। मैंने तुम्हारी कई खताएं और गलतियां माफ की हैं।'
'मैंने, खुदा के नाम पर बताओ तो कौन-सी खता की?'
'पिछले बरस तुमने शलजम की, रात की सब्जी बड़े ठाठ से पकाने का इरादा किया। शाम को चूल्हे पर हंडिया रखकर तुम ऐसी सोई कि सुबह उठकर जब मैं बावर्चीखाने मेें गया तो देखा कि देगची में सारे शलजम कोयला बने हुए हैं। उनको निकालकर मैंने अंगीठी सुलगाई और चाय तैयार की- तुम सो रही थीं।'
'मैं यह बकवास सुनने के लिए तैयार नहीं।'
'इसलिए कि इसमें झूठ का एक जर्रा नहीं। मैं अक्सर सोचता हूं कि औरत को सच और हकीकत से क्यों चिड़ है। मैं अगर कह दूं कि तुम्हारा बायां गाल तुम्हारे दाएं के मुकाबले कहीं ज्यादा मोटा है, तो शायद तुम मुझे सारी उम्र न बख्शो- मगर यह हकीकत है, जिसे शायद तुम भी अच्छी तरह महसूस करती हो। देखो यह पेपरवेट कहीं रख दो, उठाकर मेरे सिर पर दे मारा तो थाना-पुलिस हो जाएगा।'
'मैंने पेपरवेट इसलिए उठाया था कि यह बिल्कुल आपके चेहरे के समान है। इसके अंदर जो हवा के बुलबुले-से हैं वे आपकी आंखें हैं- और यह जो लाल-सी चीज है, वह आपकी नाक है, जो हमेशा सुर्ख रहता है। मैंने जब आपको पहली बार देखा तो मुझे ऐसा लगा था जैसे आपको आंखों के नीचे जो गाय की आंखें हैं, एक काक्रोच औंधे मुंह बैठा है।'
'तुम्हारा जी हल्का हो गया।'
'मेरा जी कभी हल्का न होगा। मुझे आप जाने दीजिए। नहा-धोकर मैं शायद यहां से हमेशा के लिए चली जाऊंगी।'
'जाने से पहले यह तो बता जाओ कि इस जाने का कारण क्या है?'
'मैं बताना नहीं चाहती, आप तो अव्वल दर्जे के बेशर्म हैं।'
'भई, तुम्हारी इस सारी गुफ्तगू का मतलब अभी तक मेरी समझ में नहीं आया। मालूम नहीं तुम्हें मुझसे क्या शिकायत एकदम पैदा हो गई है।'
'जरा अपने कोट की अंदरूनी जेब में हाथ डालिए।'
'मेरा कोट कहां है?'
'लाती हूं, लाती हूं।'
'मेरे कोट में क्या हो सकता है- व्हिस्की की बोतल- वह तो मैंने बाहर ही खत्म करके फेंक दी थी, लेकिन हो सकता है रह गई हो।'
'लीजिए, यह रहा आपका कोट।'
'अब मैं क्या करूं।'
'इसकी अंदर की जेब में हाथ डालिए और उस लड़की की तस्वीर निकालिए जिससे आप आजकल इश्क लड़ा रहे हैं।'
'लाहौल विला- तुमने मेरे औसान खता कर दिए थे। यह तस्वीर, मेरी जान, मेरी बहन की है, जिसको तुमने अभी तक नहीं देखा। अफ्रीका में है। तुमने यह खत नहीं देखा, साथ ही तो था- यह लो।'
'हाय, कितनी खूबसूरत लड़की है, मेरे भाईजान के लिए बिल्कुल ठीक रहेगी।'
सआदत हसन मण्टो
11 मई 1921 को समराला जिला लुधियाना में जन्म। शिक्षा अमृतसर और अलीगढ़ में हुई। मण्टो ने पहली कहानी 'तमाशा' जलियांवाला बाग की रक्तरंजित घटना से प्रेरित होकर लिखी थी। 1935 में उनका पहला कहानी संग्रह 'आतिशपारे' प्रकाशित हुआ। कहानियों के अतिरिक्त मण्टो ने नाटक, रेडियो वार्ताएं, निबंध, रेखाचित्र और व्यक्तिचित्र भी लिखे, और कुछ अनुवाद भी किये, जिनमें गोर्की की कहानियां उल्लेखनीय है। मण्टो अपने जीवन और साहित्य दोनों में विद्रोही थे, और उनके इस विद्रोही तेवर को समाज ने कभी बर्दाश्त नहीं किया। तथाकथित 'अश्लील' कहानियां लिखने के लिए मण्टो पर पांच मुकदमे चलाये गये, जो अपने आपमें एक रिकार्ड है। यह एक विचित्र संयोग है कि मण्टो ने एक फिल्म 'आठ दिन' में एक पागल मिलिटरी अफसर की छोटी-सी भूमिका की थी, और फिर अपने व्यक्तिगत जीवन में वे दो बार पागल हुए। 18 जनवरी 1955 को उनका निधन हुआ।
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