-डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री
थी अव्यक्त- सी, कुछ पीड़ाएँ
जीवन- रथ सी कुछ उपमाएँ
गत जीवन के मौन मुखर हो
प्रायः मुझे जगाते हैं रातों में
माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो-
क्या रखा है अब इन बातों में।
जो कुछ अपने थे या सपने थे
जिया विकल क्यों उन्हें पुकारे
निशा का ये जाने कौन प्रहर हो
बालू का घर न टूटे बरसातों में।
माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में।
प्रेम से प्रतिक्षण उसे बिठाया
प्यार से सिर भी था सहलाया
पग पखारे, टीका भोग लगाया
फिर क्रूर घड़ी क्यों आघातों में।
माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में।
क्यों मुझे निरंतर छेड़ रही हैं
गवाक्षों से ये कुटिल वेदनाएँ
द्वार खड़ी ये मुझे ही पुकारें
प्राण पखेरू भौंरे -से पातों में
माँ! तुम मुझसे क्यों कहती हो
क्या रखा है अब इन बातों में ।

बहुत सुंदर कविता । सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteमार्मिक कविता। हार्दिक बधाई
ReplyDeleteबहुत खूब!
ReplyDeleteमॉं के द्वारा जाने दो, कहना कवयित्री की आध्यात्मिक गहराई को प्रदर्शित करती है। आख़िर यह जीवन भी तों चले जाने वाला है चाहे जैसा भी हो।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति 💝
ReplyDeleteबहुत सही ....आज का सच ...
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक कविता। माँ हमारी सोच, हमारे विचार, संवेदनाओं और संस्कारों में जीती है जीवन भर।
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी कविता के लिए बधाई डॉक्टर कविता🌹💐
हृदयस्पर्शी कविता
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण कविता..
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी, मनोरम रचना!
ReplyDeleteबालू का घर न टूटे बरसातों में।
ReplyDeleteमन को छू गई
कितनी सुंदर भावनाएं अभिव्यक्त हुई हैं, बहुत सुंदर कविता, कविता जी। हार्दिक बधाई।
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteशुभकामनायें
बहुत मर्मस्पर्शी कविता
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