उसे मुर्दाघर में डाल दिया गया था और वह वहाँ पहले से पड़े एक मुर्दे पर औंधा जा पड़ा था। उसकी छाती के नीचे पहले का सिर और गर्दन दबी थी। पहले ने कसमसाते हुए कहा–"जरा परे हटो भाई! क्या मरे पर कोदो दल रहे हो!"
नया बोला–"मैं तो मुर्दा हूँ। अपने से हिल-डुल नहीं सकता।"
"यहाँ कैसे आए?"
"दंगे में मारा गया। मेरी बीबी और बच्चे…।" उसका गला भर आया।
"मुर्दे को दुख नहीं होना चाहिए।" पहले ने सान्त्वना दी–"वैसे तुम किस कौम के थे?"
नया मुर्दा हिचकिचाया– सही बोले या नहीं? फिर उसने तसदीक के लिए पूछा–"और तुम? तुम किस कौम के थे?"
पहले ने तहकीकात की–"तुम्हारे पास कोई हथियार तो नहीं है? मुझे डर लगता है। जिसने मुझे मारा, उसने तो मेरी जात भी नहीं पूछी। गोली मार दी।"
"मुर्दे को क्या डर?" नए ने हिम्मत दिलाकर पूछा–"गोली दागने वाला किस कौम का था?"
"मैं तो अंधा हूँ भाई! सड़क पर भीख माँग रहा था।"
"अच्छा हुआ तो मारे गए। एक गंदे काम से फुर्सत मिली।"
अंधा मुर्दा चुप्पी मार गया।
नया मुर्दा बोला–"मुझे अंधों से नफ़रत है, जिन्हें कौम तो दिखलाई पड़ती है, लेकिन इनसान नहीं दिखलाई पड़ता।"
अंधा हँसा–"शायद ख़ुद कत्ल होने के बाद ऐसी आँखें मिलती हैं।"
तभी कोई समाजसेवी मुर्दाघर में शिनाख्ती के लिए आया। उसके आगे मुर्दो का सिर उघाड़–उघाड़ बतलाया गया। समाजसेवी सिर हिला– हिलाकर कहता गया–"नहीं, यह मेरी कौम का नहीं है।"
दोनों मुर्दे एक– साथ हँस पड़े– "साला अंधा।"
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