- पूनम कतरियार
1. लम्हें
फुरसत से लिखे
लम्हों की दास्ताँ,
दत्तचित्त हो उकेरे
रेत पर एक नाम
तीर धँसे एक दिल के साथ,
और लेटकर छाप ले,
रेत बन जानेवाले इस तन पर
रेत पर लिखी इन इबारतों को।
या फिर,
आलती-पालथी बैठ जाएँ
इन इबारतों के बाजू में,
एक ही डाभ में दो स्ट्रोक्स डाल
संग-संग सिप भरे और
भटकती प्यासी समुद्री लहरें
इन रूखी रेतों में जब
आएँगी प्रेम को तलाशती,
दिल में फँसा तीर भीतर तक धँस,
कर जाएगा रेत को स्नेहसिक्त
तब तुम्हारे घुँघराले बाल
ठठाकर हँस-बिखरेंगे
और तुम झुके- झुके
सँवार रहे होगे हौले- से
मेरे कपोल पर झूलती
बेपरवाह लटों को
या फिर
रेत पर छपे मेरे
लौटते कदमों की कुछ तस्वीरें
तुम्हारे कैमरे की कैद से आजाद हो
फेसबुक के फलक पर,
छा जाने को आतुर होंगे!
और ठीक उसी समय
चुपके से कुछ लाड़ली लहरें
समुद्र से इतराकर निकलेंगी
और तुम्हें चिकोटी काट छेड़ेंगी।
काश हो पाता ऐसा
सब कुछ सोचे जैसा!
लड़खड़ाते पैर
पथरीले राह पर पड़ते ही,
औचक जब गिरते है,
वहाँ यथार्थ की धार
कतरने को पर,
हर पल रहते हैं तैयार
शनै:शनै: अनजाने-अनबोले,
दूर होते जाते है एहसासों से
वे प्रेमिल-रोमिल लम्हें
जिन्हें जीने की चाहत लिए
हम फुरसत तलाश रहे थे।
2. तलाश
हाँ, हर क्षण ढूँढती हूँ,
पर तुम मुझे कभी
नजर ही नहीं आते हो !!
अपलक नैन
तकते नभ
सुनहले-रुपहले
बादलों की ओट
है रहता कौन
करता सम्मोहन मौन!
चील- चिड़ियाँ
समस्त खग-वृंद को
बाँधता है निज पाश में
क्या तुम वहीं पास हो?
हवाएँ चेता रही हैं
कि एक झोंका ही काफी है
बिखराने को वजूद तुम्हारा,
जरा सहमकर रहाकर।
पर मेरे भीतर 'कोई' है,जो
कभी मुझे डरने नहीं देता
कहीं वह 'तुम' तो नहीं!!
अदम्य चाहत कि
असीम हो जाऊँ
छा जाऊँ वितान - सी
पर अब तुमने
जब समेट लिया
फलक अपना
वह चाहत सिकुड़ने लगी है
क्योंकि मेरा फलक
तुम ही हो न !!
No comments:
Post a Comment