‘साझा संस्कृति,
साझा विरासत और साझा जिम्मेदारी’ जी हाँ यही विषय था 18
अप्रैल विश्व विरासत दिवस 2020 का। पर कोविड जैसी वैश्विक महामारी के समय में
संगठन ने इस साझा संस्कृति को साझा करने का प्रयास तो किया;
पर साझा करने का माध्यम बदल दिया, तब इस समझ में न आने वाली
बीमारी और लॉकडाउन के चलते, इस दिवस को इंटरनेट के माध्यम से मनाने का निर्णय लेना
पड़ा था। विश्व भर के जाने माने पुरातत्त्वविदों ने,
इतिहासकारों ने, वैज्ञानिकों नें, तथा विचारकों, विशेषज्ञों आदि ने इंटरनेट के
माध्यम से अपनी धरोहर, अपनी संस्कृति और अपनी विरासत को बचाए रखने का साझा प्रयास
तो किया; पर अपने
-अपने घरों में रहते हुए।
सबसे बड़ी बात
विरासत में प्राप्त अपनी संस्कृति की साझा जिम्मेदारी को पिछले साल सबने भरपूर
निभाया;
परंतु सोशल मीडिया के माध्यम से विचारों के आदान- प्रदान का यह
शुरूआती दौर था; अतः
लोगों को समझने में, जुड़ने में समय लगा। बड़े शहर के बड़े आलीशान पाँच सितारा
होटलों में सेमिनार और गोष्ठियाँ आयोजित करके लाखों करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा देने वाले हमारे विश्व भर के आकाओं के लिए भी इस तरह
के माध्यम को समझना आसान नहीं था। पर टेक्नॉलॉजी के इस युग में वह सबकुछ संभव है।
हम और हमारे वैज्ञानिक फंतासी की दुनिया
में विचरते हुए कभी ऐसा कुछ करने की सोचा करते थे, उसे आज साकार कर दिखाया है। आप
सब भी उस दौर को याद कीजिए न,
जब टीवी पर हम और आप स्टारवार नामक विज्ञान फंतासी को बड़े चाव से देखा करते थे।
एक जगह से दूसरी जगह सशरीर कैसे पहुँचा जा सकता है, तब यह
काल्पनिक भले ही था; पर आज विज्ञान ने इसे संभव कर दिखाया
है। आप दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न बैठे हों,
इंटरनेट की दुनिया ने सबको बहुत पास ला दिया है। आप अपने देश में बैठे बैठे कई
दुनिया के लोगों के साथ जुड़कर सेमिनार आयोजित कर सकते हैं,
जहाँ लोग आपको देख सकते हैं, सुन सकते हैं और आपसे सवाल- जवाब भी कर सकते हैं।
आज के दौर में वेबिनार नाम से प्रचलित इस नए शोसल मीडिया ने
सबकी राह आसान कर दी है, वह भी बगैर यातायात का खर्च उठाए।
यही नहीं पाँच सितारा होटल में ठहराने,
खाने आदि का खर्चा तो अपने आप ही कम हो गया।
विज्ञान ने भले
ही यह सब पहले ही हासिल कर लिया था, पर अमल में लाना सिखाया कोरोना नामक इस माहामारी
ने। हमारे देश ने और दुनिया ने तरक्की तो हासिल कर ली है; पर तरक्की का सही उपयोग कैसे करना है, यह या तो वे जानते नहीं थे या
जानना नहीं चाहते थे या जानबूझकर लोगों में एक भ्रमजाल फैलाकर रखना चाहते थे;
ताकि सबकी रोजी- रोटी चलती
रहे। परंतु कहते हैं न- समय सबकुछ सिखा
देता है, तो इस जानलेवा माहामारी ने मनुष्य को वह सब कुछ सिखा दिया, जो वो हमेशा से जानते तो थे; पर उसपर अमल करना नहीं चाहते थे।
अब जबकि इस महामारी के साथ जीते हुए हमने
पूरा साल बिता दिया। अतः अब अतीत मात्र को सँजोकर रखने का समय नहीं
रह गया है, अतीत के साथ साथ वर्तमान को भी बचाकर रखने का समय आ गया है। तो अब
मामला केवल पुरखों द्वारा निर्मित इमारतों, सदियों से चली आ
रही कला- संस्कृति जैसी अमूल्य विरासत को ही बचाए रखने का नहीं है; बल्कि अब तो समूची मानव- विरासत को ही बचाकर रखने का समय आ गया है। यदि हम अपने को ही सुरक्षित
नहीं रख पाएँगे, तो बाकी सबको कैसे बचा पाएँगे। अब जबकि
मनुष्य ही खतरे में है तो जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।
पिछले वर्ष जब
कोरोना वायरस ने हमला किया तब लोग बेहद घबराए हुए थे और अपने जीवन के प्रति वे सजग
हो गए थे। देश की सरकार ने इससे बचाव के जो भी निणर्य लिये, सबने उसका पालन किया। सबने अपनी जीवन -शैली बदल ली।
खान-पान से लेकर रहन-सहन सबमें चमत्कारिक रूप से बदलाव आया। सम्पूर्ण लॉकडाउन के दौरान न केवल पूरा परिवार;
बल्कि पूरा मोहल्ला, पूरा
शहर और पूरा देश एकजुट हो गया। लोग सच कहते हैं संकट की घड़ी में ही सच्ची मानवता
के दर्शन होते हैं।
एक सत्य यह भी है
कि मनुष्य में धैर्य की कमी होती है जैसे- जैसे समय बीतता गया और नियमों में ढील
मिलती गई वैसे- वैसे लोगों का इस भयानक बीमारी के प्रति खौफ़ भी जाता रहा। साल
बीतते बीतते इससे बचाव के वेक्सिन भी आ गए, फिर तो लोगों को लगा- जैसे वे पूरी तरह सुरक्षित हो गए। पहला टीका लगते ही उन्हें लगने लगा कि
अब उन्हें कोरोना छू भी नहीं सकता, लेकिन यह उनकी बहुत बड़ी
गलतफहमी थी। जब एक से एक धुरंधर विकासशील और आधुनिक कहलाने वाले देश बचाव का कोई
कारगर रास्ता नहीं तलाश पाए, तो फिर धीरे धीरे विकास की ओर
बढ़ते देशों की कौन कहे। यह बात अलग है कि जनसंख्या में इतना विशाल होते हुए भी
भारत ने संयम का दामन नहीं तोड़ा और वे आज भी इससे डटकर लड़ रहे हैं। धैर्य रखने
की एक सीमा होती है, तो भारतवासियों का भी धैर्य का बाँध
टूटते नजर आ रहा है। पर उम्मीद है दूसरे दौर के इस हमले को भी हम सब समझेंगे और
पिछले वर्ष की तरह आगे आने वाले इस मुसीबत का भी
शांति के साथ मुकाबला करेंगे। जब तक पूरा देश और विश्व इस बीमारी माहामारी
से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक एक दूसरे का सम्बल बने रहकर अपनी साझा जिम्मेदारी को निभाएँगे।
कुछ दशकों से यह महूसस किया जाने लगा था
कि मनुष्य की संवेदनशीलता अब मरती जा रही है, वह सिर्फ मैं बनकर जीवन
जी रहा है, स्वार्थ, धनलोलुपता, ईर्ष्या - द्वेष मानवता पर
हावी होते जा रहे हैं; लेकिन इस संकट के दौर ने इस धारणा को गलत साबित
कर दिया और यह बता दिया कि जब तक धरती पर मनुष्य है , उसकी संवेदनाएँ
मर नहीं सकती।
तो आइए 18 अप्रैल विश्व विरासत दिवस के दिन अपने
स्मारकों और विरासत स्थलों को बचाने के साथ- साथ मानव विरासत को बचाने का प्रण
लेते हुए कुछ ऐसा करें कि सदियों तक यह दशक मानवीय संवेदना के उच्चतम रूप के लिए
याद किया जाए।
4 comments:
बहुत सुंदर विचार।
बिल्कुल सही कहा आपने. आदमी जब स्वयं को प्रकृति से ऊपर समझने लगता है तो वह भी उसे एक पल में उसकी औकात दिखा देती है.
लहर दो लापरवाही का ही नतीजा है जिसने सबके प्राण संकट में डाल दिये. पर आदतें फिर भी वही हैं.
अब विज्ञान भी क्या कर लेगा. सबको सन्मति दे भगवान. सामयिक सोच तथा संपादकीय दोनों के लिये हार्दिक बधाई. सादर
सुंदर आलेख,निःसन्देह अपनी विरासत को बचाने के लिये हमें विवेकपूर्ण ढंग से अपने आचरण व्यवहार को नियंत्रित करना होगा।
'विश्व विरासत दिवस' के साथ समसामयिक संदर्भों पर चिंतनपरक सुन्दर, सारगर्भित आलेख, हार्दिक बधाई।
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