-निशांत
एक आदमी को तितली
का एक कोया (कोकून) पड़ा मिला। उसने उसे सँभालकर रख दिया। एक दिन उसमें एक छोटा-सा छेद हुआ। आदमी बहुत देर तक बैठकर कोये से
तितली के बाहर निकलने का इंतजार करता रहा। कोये के भीतर नन्ही तितली ने जी-तोड़
कोशिश कर ली पर उससे बाहर निकलते नहीं बन रहा था। ऐसा लग रहा था कि तितली का कोये
से निकलना सम्भव नहीं है।
उस आदमी ने सोचा कि तितली की मदद की जाए। उसने एक चिमटी उठाई और तितली के निकलने के छेद को थोड़ा सा बड़ा कर दिया। तितली उसमें से आराम से निकल गई; लेकिन वह बेहद कमज़ोर लग रही थी और उसके पंख भी नहीं खुल रहे थे।
आदमी बैठा-बैठा
तितली के पंख खोलकर फडफ़ड़ाने का इंतजार करता रहा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तितली कभी
नहीं उड़ पाई। वह हमेशा रेंगकर घिसटती रही और एक दिन एक छिपकली ने उसे खा लिया।
उस आदमी ने अपनी
दयालुता और जल्दबाजी के चक्कर में इस बात को भुला दिया कि उस कोये से बाहर आने की
प्रक्रिया में ही उस तितली के तंतु जैसे पंखों में पोषक द्रव्यों का संचार होता।
यह प्रकृति की ही व्यवस्था थी कि तितली अथक प्रयास करने के बाद ही कोये से पुष्ट
होकर बाहर निकलती। और इस प्रकार कोये से बाहर निकलते ही वह पंख फडफ़ड़ाकर उड़ जाती।
इसी तरह हमें भी
अपने जीवन में संघर्ष करने की ज़रूरत होती है। यदि प्रकृति और जीवन हमारी राह में
किसी तरह की बाधाएँ न आने दें तो हम
सामर्थ्यवान कभी न बन सकेंगे। जीवन में यदि शक्तिशाली और सहनशील बनना हो तो कष्ट
तो उठाने ही पड़ेंगे। (हिन्दी ज़ेन से )
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