१. पिता का कुरता
-डॉ.आरती स्मित
घड़ी की
टिक -टिक
अतीत
के पन्नों की फड़फड़ाहट
यादों
की सुलगन
और
पलों का भीगना
अच्छा
लगा उसे
याद आई
उसे
वह
साँवली किशोरी
ख़ुशी
से छलछलाता उसका चेहरा
कि
उसने
पाई थी आज
पिता
की कमीज़
ढीली-ढाली
तन पर
बेढब कमीज़ के
रेशे-रेशे
से आ रही थी
पिता
की ख़ुशबू
मलियाते
रंग में बसी थी
उनकी
ईमानदारी की दमक!
पिता
का उतरन नहीं थी
यह
कमीज़
उसने
माँगी थी हसरत से
वह ख़ुश
थी, बहुत
ख़ुश
मानो
मेडल मिला हो उसे
पिता
नहीं है
वह
कमीज़ भी नहीं
उसके
हाथ में है कुरता
पिता
की ख़ुशबू से लक़दक़
पिता
की ख़ामोशी
और
दर्द
के बीच के बुने
ख़ुशनुमा
पलों का साक्षी
कुरता
आज भी लंबा है
ढीला-ढाला
भी
वह
लिपट गई हैं उससे
... ...
एक बार
फिर
पिता
ने बाहों में भरकर
सीने
से लगाया है
सिर
सहला कर पूछ रहे हैं
ख़ैर-ख़बर!
२. मुस्कुराने लगे हैं पिता
एक बार
फिर
मुस्कुराने
लगे हैं पिता!
खिल
उठी है हँसी
पोपले
गालों के बीच
सूनी
आँखों में
तैरने
लगी है
उम्मीद
की नाव
एक बार
फिर
वे
विचरने लगे हैं
स्वप्नलोक
में
बसने
लगी है भीतर
उजास
की अनगढ़ दुनिया
बजने
लगे हैं सितार
साँसों
में
एक बार
फिर
वे
खिलने लगे हैं
खुलने
लगी हैं पंखुरियाँ
गुंच-ए-गुल
की
... नन्हा शिशु
चहकने
लगा है
झुर्रियों
के बीच
एक बार
फिर
माँ की
माँग में
दमकने
लगी है
सूरज
की लालिमा
मुख पर
रक्ताभ गगन!
जीवन
की साँझ
कितनी
सुंदर, सतरंगी
मनभावन
हो चली है!
email- dr.artismit@gmail.com
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