भाषा की टूटती मर्यादा...
- डॉ. रत्ना वर्मा
इन दिनों सुबह- सुबह अखबार पढ़ो या टीवी पर समाचार देखो, सब जगह एक ही चर्चा कि अमुख पार्टी के नेता ने दूसरी पार्टी के नेता के लिए अनुचित शब्दों का इस्तेमाल किया। ऐसे शब्दों का प्रयोग करने वालों को हमारे बड़े बुजुर्ग अनपढ़- गँवार, बेअक्ल और न जाने क्या क्या कह कर कोसते हैं, पर आज की राजनीति में नेताओं के एक- दूसरे पर अभद्र भाषा में आरोप- प्रत्यारोप का जैसे दौर ही चल पड़ा है। लोकतंत्र में बोलने की आजादी का यह तो मतलब नहीं होता कि आप अपनी मर्यादा को लाँघ दें और बेलगाम होकर स्तरहीन भाषा का इस्तेमाल शुरू कर दें। दरअसल पिछले कुछ समय से राजनीति में जिस तरह से अमर्यादित भाषा का उपयोग होने लगा है, वह राजनति के स्तर में आ रही गिरावट को इंगित करता है। स्वस्थ राजनीति न जाने कहाँ गुम हो गई है। इसे राजनीतिक पतन का दौर कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
चुनाव के निकट आते ही आरोप- प्रत्यारोप का यह दौर और अधिक भड़कीला हो जाता है। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का जैसे उन्हें लाइसेंस मिल जाता है । विरोधी को नीचा दिखाने के लिए गड़े मूर्दे उखाड़ना आज के नेताओं के लिए चुनावी मुद्दा बन गया है। कभी राजनीति में एक ऐसा भी दौर था, जब किसी भी पार्टी के लिए जनता, प्रदेश और देश का हित सर्वोपरि होता था। जनहित को ध्यान में रखकर चुनाव लड़े जाते थे ; लेकिन आज विकास के मुद्दे हाशिए पर चले गए हैं और व्यक्ति विशेष के विरुद्ध अनर्गल भाषा का प्रयोग आम हो चला है। कुल मिलाकर राजनीति से ‘नीति’ गायब हो गई है। जन- भावनाओं को भड़काकर हंगामा खड़ा करना, चुनाव जीतना और सत्ता हथियाना बस यही मकसद रह गया है।वे राजनेता, जिन्हें जनता अपना अमूल्य वोट देकर सत्ता पर आसीन करती है , कभी जनता के लिए आदर्श और सम्माननीय माने जाते थे ; लेकिन आज स्तरहीन भाषा का प्रयोग करके उन्होंने अपना स्तर गिरा लिया है। संसद में बैठकर पूरे देश के लिए नियम- कायदे बनाने वालों के लिए क्या स्वयं के लिए कोई सीमा रेखा नहीं होती? संसद भवन में होने वाली बहसों में भी अब नेता जिस भाषा का उपयोग एक दूसरे के लिए करते हैं ,वह जग- जाहिर है। सारी मर्यादा को लाँघते हुए संसद में आए दिन होने वाले हंगामे से हम सब परिचित हैं। पर अब समय आ गया कि संसद में और संसद के बाहर इस तरह की आपत्तिजनक भाषा, अमर्यादित व्यवहार पर लगाम लगाई जाए। आलोचना और समालोचना की भी एक मर्यादित भाषा, नियम कानून होने चाहिए।
दुःखद तो यह है कि आजकल मीडिया भी उनकी बातों को स्कूप की तरह अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करती है। ऐसे में समाचार पत्रों और न्यूज चैनल वालों का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है कि अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने वाले बयानों को नजरअंदाज़ करते हुए उनकी आलोचना करें, ताकि आगे से वे अपनी जुबान पर लगाम लगा सकें। अगर किसी पर धोखाधड़ी, कालाबाजारी, भ्रष्टाचार और देशद्रोह का आरोप है, तो सबूत के साथ उसे प्रस्तुत करें ,न कि किसी नेता के एक बयान पर उनके आरोप- प्रत्यारोप को हेडिंग बनाकर सनसनी पैदा करें। झूठ के पाँव ज्यादा दिन नहीं टिकते। न्याय और कानून है, तो उन्हें सजा जरूर मिलेगी। किसी भी संस्था की विश्वसनीयता तभी कायम रहती है, जब आप सच को सामने लाते हैं।
अब तो सोशल मीडिया भी फेक न्यूज फैलाने और एक दूसरे पर छींटाकशी करते हुए चटखारे लेने का बहुत बड़ा माध्यम बन गया है। ऐसे फेक न्यूज पर भी लगाम लगाने की जरूरत है। फेक न्यूज से जनता बहुत जल्दी गुमराह हो जाती है। यह कहावत तो सदियों से प्रचलित है कि एक झूठ को अगर सौ बार बोला जाए ,तो वह सच बन जाता है। सोशल मीडिया का यदि बेहतर तरीके से इस्तेमाल हो, तो यह जन-जाग्रति का सबसे बड़ा माध्यम बन सकता है। वर्तमान स्थिति को युवा पीढ़ी और समाज के लिए आदर्श नहीं कहा जा सकता। जनता को भी सोचना होगा कि वह अपने विवेक और बुद्धि का इस्तेमाल करे, ताकि सही और गलत में अंतर कर सके। अफवाहों पर विश्वास न करे। चुनावी हथकंडों के दाँव-पेंच को समझे।
हमारी भाषा और बोली हमारे व्यक्तित्व का आईना होती है। हम अपनी बातचीत में जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, उससे उसके संस्कारी और व्यावहारिक होने का सबूत मिलता है। गाली गलौच का इस्तेमाल करने वाले और बात बात में तू- तू मैं- मैं करने वाले को कभी भी सम्मान के साथ नहीं देखा जाता। उसे अभद्र, अनपढ़ की संज्ञा दी जाती है। मर्यादा में रहकर की कही गई बात का सभी सम्मान करते हैं।
अब चिंतन करने का समय आ गया है कि राजनैतिक मूल्यों में तेजी से आ रही गिरावट के लिए जो जिम्मेदार हैं, उनको किनारे किया जाए ।
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