ऋतु वसंत की आई
- देवेन्द्रराज सुथार
ये पीले सरसों के खेत
ये लहराता नील गगन
इन्द्रधनुषी छटा छाईं
ये कलकल करती नदी
ये पक्षियों का कलरव
सोलह शृंगार कर घूँघट में
प्रकृति जो हौले से मुस्कुराईं
उठो ! समेटो जाड़े की रजाई
ऋतु वसंत की आई।
दशों दिशाएँ झूम उठीं
नयन हुए पुलकित
मन -मृग में अपार
उत्साह उल्लिखित
कालीघुँघरालीअलकें
कस्तूरी तन,
कचनार कमर
शीतल पवन-सा आँचल
अधरों पर कोयल-सा स्वर
कानों में अमृत घोल
पलाश की सुगंधी संग
देने आई नेह- निमंत्रण
उठो ! समेटो जाड़े की रजाई
ऋतु वसंत की आई।
गर्मी के गर्म एहसासों पर
सर्दी के सुप्त भावों पर
बरसात में भीगे तन पर
जिसने मरहम लगाया
विरह विकल मोरनी को
किसकीयादनेसताया
प्रकृति के यौवन को देख
हर मन को भ्रम हो गया
जैसे फलक से उतरकर
कोई परी आई
उठो ! समेटो जाड़े की रजाई
ऋतु वसंत की आई।
सम्पर्कः गांधी चौक, आतमणावास,
बागरा,
जिला-जालोर, राजस्थान- 343025 , मोबा.- 8107177196
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