- डॉ. रत्ना वर्मा
15 अगस्त के दिन सुबह- सुबह
लाउडस्पीकर से ऐ मेरे वतन के लोगों...., ये देश है वीर
जवानों का, झंडा ऊँचा रहे हमारा... जैसे ओज़ से भरे गीत
कानों में सुनाई देने लगते हैं। तब मन में सहज ही देश के लिए गर्व की भावना जाग
उठती है। आज़ादी का जश्न मनाते, झंडा फहराते हुए हम सबके हाथ
सलाम के लिए उठ जाते हैं। खुशी, उमंग और उत्साह से लरबरेज़
देशवासी हर साल इस दिन आज़ादी का उत्सव मनाते हैं। आज़ादी
आज़ादी की सुबह रेडियो और टीवी पर भी
आज़ादी के गीतों से भरे कार्यक्रम आते रहते हैं। तब शायद आप सबको भी अपना बचपन याद
आ जाता होगा। खासकर तब और भी जब झंडा -वंदन
के बाद बूँदी और सेव का पैकेट प्रसाद स्वरूप मिलता है। यह खुशी की बात है कि हम आज
भी बचपन की उस मिठास को सँजोए हुए हैं और नई पीढ़ी को भी उस मिठास का स्वाद चखाते
हुए आगे बढ़ रहे है।
यह बात अलग है कि इन 70 सालों में जश्न मनाने के तरीके बदल गए हैं। पहले माता-
पिता भी अपने बच्चों को कलफ़ वाले सफेद कपड़े पहनाकर हाथ में झंडा थमाकर शान से
स्कूल भेजते थे। बच्चे भी अन्य दिनों की अपेक्षा इस दिन अपने को अधिक अपटूडेट करके
चलते थे। अन्य दिन बिना नहाए स्कूल जाने में कोई फर्क नहीं पड़ता था ;पर आज के दिन नहाना अनिवार्य था, मानो भगवान के
मंदिर जा रहे हों। चाहे झमाझम बारिश ही
क्यों न हो रही हो। साफ- सुथरे जूते मोजे पहनें मुस्कुराते हुए प्रभात फेरी में
कदम कदम बढ़ाए जा... गाते हुए, शामिल होना शान की बात मानी
जाती थी। घर वापसी में भले ही बारिश की मिट्टी में सने कपड़ों सहित लौटना पड़े।
अब तो जैसे आज़ादी का जश्न एक
खानापूर्ति भर रह गया है। स्कूलों में भी अब पहले सा माहौल नहीं रहा। बाकी लोग तो
बस एक छुट्टी का मौका देखते रहते हैं। यदि कभी रविवार को 15 अगस्त मनाना पड़े तो यह कहते हुए दुखित होते हैं अरे...
एक छुट्टी मारी गई। कहने का तात्पर्य यही है कि जश्न सब मनाते हैं, हाँ तरीका बदल गया है- कोई फ़िल्म देखकर, कोई पार्टी
करके तो कोई कहीं घूमने जाकर आनंद मनाते हैं। कैसे आज़ादी मिली ,किसने कुर्बानी दी जैसी बातें तो अब किताबी भी नहीं रह गई हैं। बच्चों की
पुस्तकों से इस तरह के पाठ अब धीरे -धीरे गायब ही होते जा
रहे हैं। पाठ्यपुस्तकों में क्या शामिल हो क्या न हो यह भी आज राजनीतिक बहस का
मुद्दा होता जा रहा है।
क्या खोया , क्या पाया का हिसाब लगाने बैठे तो हासिल शून्य ही मिलता
है। बड़े- बड़े कारखाने, बड़े- बड़े बाँध, बड़े बड़े उद्योगपति, पूँजीपति तो हमने इन 70 सालों में पैदा कर लिये। अमीर और अधिक अमीर होते जा रहे हैं और गरीब और
गरीब। विकास के नाम पर विनाश का तांडव ही साल बीतते बीतते नजर आते जा रहा है।
प्रकृति अपना रौद्र रुप दिखाने लगी है। बाढ़, भूकम्प,
सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाएँ साल-दर-साल बढ़ते ही चले जा रहे हैं।
लेकिन मनुष्य स्वार्थ की ख़ातिर प्रकृति को नष्ट करते चले जा रहा है। देश की
जीवनदायिनी नदियाँ प्रदूषण की चपेट में आकर मरती जा रही हैं। पाने के प्राकृतिक
सोते सूखते चले जा रहे हैं। न हम पेड़ों को बचा रहे हैं ,न
पेड़ लगा रहे हैं। भला ऐसे में धरती की प्यास कैसे बूझे। इन सबका अंजाम नहीं पता
ऐसा भी नहीं। हमारे पर्यावरणविद् रोज चेतावनी दे रहे हैं, पर
‘चिकने घड़े पर कुछ असर नहीं होता’की
कहावत को हमारे राष्ट्र के रखवाले!!! चरितार्थ करते आँखें मूँदे चलते चले जा रहे
हैं।
भ्रष्टाचार, अपराध, लूट-खसोट, बढ़ते ही चले जा रहे हैं। आतंकवाद और नक्सल समस्या ने समूचे देश की
व्यवस्था को छिन्न- भिन्न कर दिया है। न्याय व्यवस्था लचर हो गई है। जो पॉवर में
है ,वह चाहे कितना भी बड़ा अपराधी हो सजा से बच जाता है। इस
लचर व्यवस्था में आम आदमी पिस जाता है। चुनावी वादों के झांसे में आकर वह सत्ता
ऐसे व्यक्ति के हाथों सौंप देता है जो वोट पाते ही मुकर जाता है। सारा खेल वोट के
इर्द-गिर्द सिमट गया है। धर्म, जाति, सम्प्रदाय
के चक्रव्यूह में आम आदमी को उलझाकर राजनेता अपनी रोटी सेंक रहे हैं।
हम यह नहीं कहते कि देश ने तरक्की नहीं
की है, की है ;पर
तरक्की की कीमत चुका रहा आम आदमी फिर भी सुखी नहीं है। सोने की चिडिय़ा का खिताब
पाने वाला हमारा देश आज रोटी, कपड़ा मकान और स्वास्थ्य,
शिक्षा जैसी बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित है। आज़ादी के सही मायने
तो तभी कहा जाएगा जब देश का प्रत्येक नागरिक स्वयं को सुखी महसूस करे। दो वक्त का
भोजन, अच्छा स्वास्थ्य और इतनी शिक्षा कि वह अपना भला-बुरा
समझ सके - इतने की दरकार तो हर इंसान को होती है। यदि इस लोकतांत्रिक देश में इतना
भी, आज़ादी के सत्तर दशक में भी हम नहीं दे पाए ,तो क्या अपने आपको हम आज़ाद देश के नागरिक कह
सकते हैं?
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