यात्रा एक लैण्ड लॉक प्रदेश की
- विनोद साव
सामने हरियाली थी। हरियाली निकलती जा रही थी। पता नहीं
यह हरियाली कब से थी। न जाने रात भर में यह हरा भरा संसार कितना निकल गया होगा..
और हम बस सोते रहे होंगे। इन प्राकृतिक छटाओं को देखते हुए तो आँखें वैसे भी नहीं
अघाती हैं और अगर ऐसी ही छटाएँ रही होंगी जैसी मेरी आँखों के सामने घंटे भर से है
तब तो इन छटाओं के एक वृहत्तर क्षेत्र के निकल जाने का मलाल रहेगा।
रात बारह बजे बिलासपुर छोड़ा था तब तक तो कोई खास बात
नहीं थी। वैसे ही मामूली शहर और कस्बे थे जो कहीं भी दिख जाते हैं- हर आते स्टेशन
की एक चिरपरिचित बू, चढ़ते-उतरते मुसाफिरों की धकमपेल, मिनरल
वाटर की अविश्वसनीय बोतलें, डडै़ल तेलों से गंधाते भजिये, पटरी के
किनारे गजब ढाती जिन्दगी! पर यहाँ नजारा बिलकुल भिन्न था। मौसम में जुलाई महीने की
खुशबू थी। फुहारों की तरह हो रही थी बारिश। मझोले पहाड़ों पर थे झूमते पेड़ों के
झुण्ड। हसदो और रिहन्द जैसी सुन्दर नामों वाली नदियाँ मचलती हुई चली जा रहीं थीं
कहीं।
सन्नाटे के साथ
आ जाने वाले एकदम साफ सुथरे स्टेशन थे ,जिनमें
उतरते हुए साफ सुथरे लोग थे। न लोगों को उतरने की कोई जल्दी थी न ट्रेन को उतारने
की। स्टेशन का एक नाम बैकुण्ठपुर रोड है।
एक दिन जाना तो सबको बैकुण्ठ ही है। पर क्या यही वह रोड है जो बैकुण्ठ धाम को जाता
है। मानों उपवनों और सुरम्य स्थलों पर बने स्टेशन थे। आसपास कोई गाँव या कस्बा तो
है नहीं पर इन सेनीटोरियम की तरह बने खूबसूरत स्टेशनों में उतरकर लोग जाते कहाँ
हैं? हर
स्टेशन के बाहर एक टैक्सी स्टैंड है ,जिसमें
कारें हैं, जीप
हैं और ऑटोरिक्शा हैं। जिनमें बैठकर लोग चुपचाप निकल जाते हैं अपने-अपने
ठीहों
की ओर जो इन्हीं सुरम्य पहाडिय़ों के बीच कहीं बसे होंगे।

ऐसे कितने ही पाट हैं यहाँ - मैनपाट, जारंगपाट, सामरीपाट, जशपुरपाट
- पाट का अर्थ उच्च समतल व पठारी स्थल है जो अपने शीर्ष में सपाट और पार्श्व
में सोपान सदृश्य तीव्र ढालदार होता है.. भूगोल की भाषा में इसे
अंतर-पर्वतीय पठार भी कहते हैं जिसमें पहाड़ों के ऊपर
समतल जमीन होती है... और बस ऐसा ही मनभावन दृश्य था
जिसे तीन घंटों से हम देख रहे थे। यह छत्तीसगढ़ का उत्तरी क्षेत्र है जहाँ
छुरी-उदयपुर, चांगभखार
देवगढ़ और रामगढ़ की पहाडिय़ाँ हैं। यह पूरा अंचल सरगुजा कहलाता है जिसमें अब
अम्बिकापुर, जशपुर, कोरिया, सूरजपुर
और बलरामपुर नाम से और भी जिला मुख्यालय बन गए हैं। सरगुजा की अपनी अलग बोली है
सरगुजिया जो छत्तीसगढ़ी से काफी-कुछ मिलती है। इसे भी अलगाने की कोशिश की जाती है,
पर इसमें हिन्दी उर्दू की तरह साम्य है- जो बोली पाकिस्तान में बोलते हैं,
वही हिन्दुस्तान में बोलते हैं।
यह पहली ही बार था जब हम किसी ट्रेन में रात आठ बजे
छत्तीसगढ़ के एक शहर से निकले थे और रात भर ट्रेन में यात्रा करने के बाद भी दूसरे
दिन सबेरे आठ बजे हम छत्तीसगढ़ के ही किसी शहर में उतरने वाले थे। वाह! विभाजन के
बाद भी छत्तीसगढ़ कितना बड़ा है। क्षेत्रफल के हिसाब से यह देश का नवाँ बड़ा राज्य
है और अब भी यह देश के सत्रह राज्यों से बड़ा है। मतलब साफ है कि अलग राज्य बनाना
कोई गलत नहीं हुआ.. और अब पहले से बेहतर जा रहा है नहीं
तो इसका सारा रेवेन्यू मध्यप्रदेश को जा रहा था, फिर भी न
मध्यप्रदेश मोटाहो रहा था और न छत्तीसगढ़ फल-
फूल रहा था। अब पानी, बिजली, सड़क और माइन्स के मामलों में यह अग्रिम
पंक्ति पर है। इसके विकास के चरणों में एक चरण यही है कि इस लाइन पर
दुर्ग-अम्बिकापुर एक्सप्रेस की शुरुआत हुई- जिस पर हम सवार थे।
बस्तर और सरगुजा इन दोनों से छत्तीसगढ़ का मान है।
सरगुजा इसके उत्तर में है तो बस्तर दक्षिण में। उत्तर से दक्षिण तक लगभग एक हजार
किलोमीटर का लम्बा भू-भाग फैला हुआ है छत्तीसगढ़ में। इस राज्य का पुराना बस्तर जिला ही केरल राज्य
से बड़ा माना जाता था। विभाजन के बाद छत्तीसगढ़ के नक्शे
को सीधे से आड़ा कर दिया जाए तो यह हूबहू अमेरिका के नक्शे सा नजर आता है। इसकी सीमा
न तो समुद्र को स्पर्श करती है न ही किसी विदेशी राष्ट्र को इसलिए यह एक लैण्ड लॉक
प्रदेश कहलाता है।
ट्रेन के मुसाफिरों में आदिवासियों की संख्या भी कम नहीं
है। यह सुखद है कि इस इलाके की अब वन्य जातियाँ भी आवागमन के सबसे सुगम और आधुनिक
माध्यम रेलगाड़ी को पसंद कर रही हैं। वे भी अब रिजर्वेशन बोगियों में दिखने लगे
हैं सबेरे-सबेरे बोगी में लगे वाशबेसिन में टूथब्रश करते हुए और दाढ़ी बनाते हुए।
उनके पहनाव-ओढ़ाव में आधुनिकता आ गई है। शारीरिक सौष्ठव उन्हें नैसर्गिक रुप से
मिला है उस पर जीन्स और टी-शर्ट में उनकी सुगठित देह खिल उठती है वेस्टइंडीज के
खिलाडिय़ों की तरह। संभव है उनकी जीवनशैली में यह तामझाम उनके मसीहीकरण के बाद आई
हो। सरगुजा में जशपुर नगर है, जिसके
पास स्थित 'कुनकुरी’में
एशिया का दूसरा सबसे बड़ा कैथोलिक चर्च है ,जिनके
पीछे धनुषबाण लेकर मूँछ ऐंठते हुए लोग पड़े है। घर वापसी कार्यक्रम के बहाने। पर
जो हिन्दू किन्हीं परिस्थितियों में ईसाई बन गए हैं ,
वे फिर से हिन्दू अगर बन भी जाते हैं,
तब क्या शेष हिन्दू समाज उन्हें स्वीकारेगा? उनसे रोटी-बेटी का रिश्ता जोड़ेगा?
बिश्रामपुर स्टेशन आ गया था किसी चर्च का घण्टा गूंजा था
और गूंजे थे जीसस के वचन 'हे सब बोझ से थके और दबे हुए लोगों मेरे पास
आओ.. मैं तुम्हें विश्राम दूँगा।‘
स्टेशनों के नामों से भी कुछ-कुछ कौधता है। सवेरे
के आठ बजने जा रहे हैं। सूरजपुर स्टेशन के पार हो जाने के बाद भी सूरज का अता पता
नहीं है। एक स्टेशन का नाम 'कटोरा’था और समूचा छत्तीसगढ़ 'धान का
कटोरा’कहलाता
है। सरगुजा में भी कुछ धान होते हैं ,जिनमें
सबसे स्वादिष्ट चावल होता है जीराफूल चावल। यह बासमती की तरह लम्बा और उससे अधिक
स्वादिष्ट है।

बीस साल पहले आया था इस शहर में ,तब
यह मध्यप्रदेश में था और बिहार सीमा पर होने के कारण यह इलाका पूरा बिहारीमय दिखता
था। नए राज्यों के गठन के बाद अब यहाँ
छत्तीसगढ़ और झारखण्ड राज्यों की सीमा मिलती है। इन राज्यों के अपने स्थानीय
प्रभाव बढ़े हैं और बिहारी प्रभाव धूमिल हुआ है।
पहली बार दीदी के घर यहाँ आया था तब जीजाजी पोस्ट मास्टर
थे अम्बिकापुर में। कुछ दिनों बाद ही वे अवकाश ग्रहण कर चले गए थे। रायपुर में बस
गए थे। अब जीजाजी रहे नहीं। यहाँ पोस्ट आफिस भवन के ऊपर जिस मकान में थे उस मकान
को खोजा, मिल
जाने के बाद दीदी को मोबाइल लगाया 'दीदी! मैं उस मकान के सामने खड़ा हूँ जहाँ
बीस साल पहले आप जीजाजी के साथ थीं।’ तब दीदी
की सिसकारी भरी आवाज सुनाई दी थी।
यह पहली बार देखा जब किसी साहित्य सम्मेलन का आयोजन
केमिस्ट व ड्रगिस्ट भवन में रखा गया है। शायद इसका कारण यह हो कि यहाँ के कुछ लेखक
बन्धु इस व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। वैसे भी इलेक्ट्रानिक मीडिया की मार ने
साहित्य को कुछ बीमार व शिथिल-सा कर दिया है। तब ऐसे में इस तरह के आयोजन स्थल हो
भी सकते हैं। कविता के ग्लूकोस और विचारों के टॉनिक से शायद रुग्ण होती साहित्य की
दुनिया को कुछ आसरा मिले। इस बार यह आसरा मिला था केमिस्ट व ड्रगिस्ट भवन
में।

ज्यादातर महलों की अब यही नियति है कि उसके सामन्त कहीं
पलायन कर जाते हैं और सेवक रह जाते हैं। उनके टूटे- फूटे घर
रह जाते हैं और उनमें रह जाती है फटेहाली और बदहाली की जिन्दगी। एक ऐसी जिन्दगी जो
सामन्तों की देन होती है। यहाँ भी वैसी ही जिन्दगी थी। जहाँ हाड़ मांस के बने
इन्सान थे ,काठ के पुतलों की तरह। मुक्तिबोध की
कहानी की तरह उनके 'काठ के सपने’थे। ऐसे ही किसी महल के अँधेरे
में मुक्तिबोध ने गुजारी थी अपनी बेहाल जिन्दगी और सामन्तों द्वारा छोड़ गए सेवकों
को शायद धीरज बँधाते हुए कहा होगा कि-
'झील
के उस पार हमारा साथी लश्कर मुहैया कर रहा होगा
वह हमारी हार का बदला लेगा और हम जीतेंगे!’
भीतर बेचैनी थी... अच्छा तब लगा जब रामगढ़ की पहाडिय़ों
में जाने का कार्यक्रम बना। यहाँ के लेखक मित्रगण अपने परिजनों को लेकर बस में आ
गए थे। जिसमें दोपहर के भोजन की व्यवस्था कर ली गई थी। साहित्य की गंभीरता हटा दी गई थी और पारिवारिक
वातावरण से बस चहचहा उठीथी। मंच की एक भारी-भरकम कवयित्री
के बैठते ही खिड़की का एक शीशा चकनाचूर हो गया जिससे हास-परिहास की स्थिति बनी। मैं भी
मंचीय अन्दाज में उनसे कह उठा 'मोहतरमा..जरा
सम्हल के बैठिएगा.. मेरा दिल भी शीशे जैसा है।’यह सुनकर
महिलाओं की रुमानी हँसी गूंज उठी। सावन का महीना था बस के हिचकोले से बस में बैठी
भद्र महिलाएँ सावन के झूले को याद कर मंद-मंद मुस्कुरा रहीं थीं। उनकी गोद में
किलकते हुए बच्चे थे ,जिन्हें माँ की गोद के सामने आकाश
तुच्छ नजर आ रहा था।
कहते हैं कि कालीदास के 'मेघदूत’में कुछ ऐसी पहाडिय़ों की चर्चा है जो रामगढ़
से मिलती हैं जिससे इस स्थान को मेघूदत के रचनाकाल से भी जोड़कर देखा जाता है।
पहाडिय़ों में इसकी एक खोह को विश्व की सबसे प्राचीन नाट्यशाला के रुप में भी
प्रचारित किया गया है। प्राकृतिक खोह आकर्षक बन पड़ी है। खोह के सामने का विशाल
प्रस्तर चौरस है जिससे देखने में लगता है कि वह दर्शक दीर्घा के बैठने की जगह रही
होगी। खोह के भीतर दाँये- बाँये और
भी खोह बने हैं जिस तरह मंचों के अगल बगल में ग्रीन रुम होते हैं। सुतानुका नामक
किसी देवदासी और मूर्तिकार देवदत्ता की प्रणय गाथा भी यहाँ प्रचलित है। किवदंतियां
चाहे जो भी हों पर यह जगह बड़ी रुमानी और रमणीय जान पड़ती है और इसलिए अब यहाँ
सरकारी महोत्सव होने लगे हैं। 'हिन्दुस्तान की खोज’में नेहरू
ने इस स्थान का जिक्र छोटा नागपुर के पठार के करीब बताते हुए किया है।

सरगुजा, बस्तर की तरह का प्राकृतिक सौन्दर्य लिये
हुए है, बावजूद
इसके यह छत्तीसगढ़ की मुख्यधारा में बस्तर की तरह शामिल नहीं हो पाया है। पर्यटन के
नाम पर पूरा छत्तीसगढ़ और शेष भारत बस्तर की तरफ भागते हुए दिखते हैं पर सरगुजा की
ओर बिरले ही पहुँच पाते हैं। पर्यटन की कुछ सुविधाएँ बस्तर में हैं। औद्योगीकरण का
फैलाव बस्तर की ओर ज्यादा है। केन्द्र व राज्य सरकारों के भारी भरकम प्रशासनिक
अमले बस्तर में भरे पड़े है। इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज बस्तर में खोले जा रहे
हैं पर सरगुजा की नयी पीढ़ी के लिए उच्च शिक्षा एक समस्या है। इन इलाकों में
प्रगति की आकुलता मुखरित नहीं हुई होगी ,तो एक
कारण यह भी रहा होगा कि सरगुजा की सीमा में एम.पी, यू.पी और बिहार जैसे बीमार पड़ोसी राज्य रहे
हैं। जबकि बस्तर की सीमा में महाराष्ट्र, आन्ध्र और उत्कल प्रदेश रहे हैं,
जो अपेक्षाकृत ज्यादा जाग्रत और कलाबोध से भरे पड़ोसी राज्य रहे हैं। यद्यपि
नक्सलवाद की समस्या बस्तर और सरगुजा दोनों में रही है - एक तरफ आन्ध्र-तेलंगाना के
कारण और दूसरी ओर बिहार-झारखण्ड के कारण पर इनमें बस्तर का नक्सलवाद ज्यादा
अनियंत्रित और भयावह हो गया है। यह सवाल उठता है कि देश के आदिम जन-जातियों वाले
जितने राज्य हैं ,वे सब के सब आतंकवाद के साये में
कैसे आ गए हैं? चाहे
उत्तरांचल हो या पूर्वांचल, बस्तर हो या सरगुजा! जवाब केवल एक है-
जनजातियों के अनुकुल विकास की अनदेखी। इन पर विचार कौन करे? क्योंकि
नियामक शक्तियाँ तो धर्म और राजनीति हैं। कभी अपने अंतिम समय से कुछ पहले रायपुर
पहुँचे यायावर कथाकार निर्मल वर्मा ने अपनी स्वप्निल आँखों से झरते उद्बोधन में
कहा था कि 'जब
धर्म और राजनीति अपने रचनात्मक अभिप्राय से चूक जाते हैं,
तब साहित्य की अकेली आवाज होती है।’शोर मचाता
इलेक्ट्रानिक मीडिया तथाकथित धर्म गुरुओं और राजनेताओं का प्रचारक बन रहा है,
जबकि यह साहित्य ही है जो मनुष्य को जोड़ने और देश के हर अलगाव वाद के खिलाफ
आवाज उठाने में निरन्तर जुटा हुआ है।
सरगुजा की सरजमीं भौगोलिक दृष्टि से लैण्ड लॉक प्रदेश
भले ही हो पर विकास की दृष्टि से लैण्ड लॉक प्रदेश न हो। अवरुद्धता का ताला टूटे और कोई रास्ता खुले..
ऐसी कामना तो है।
सम्पर्क: मुक्तनगर, दुर्ग 491001, मो. 9407984014
Email-
vinod.sao1955@gmail.com
1 comment:
शुक्रिया रत्ना जी .. आपने अच्छा डिस्प्ले किया है.
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