- अविनाश वाचस्पति
इस शताब्दी का सबसे बड़ा त्योहार महंगाई है और हर त्योहार पर हावी है। इसने अपनी भरपूर जुगलबंदी से त्योहारों की ऐसी की तैसी कर रखी है बट विद डेमोक्रेसी। बिना डेमोक्रेसी के राष्ट्र में तो पत्ता तक नहीं हिलता, कहना समीचीन नहीं होगा क्योंकि राष्ट्र कोई पेड़ नहीं है बल्कि यूं कहा जाएगा कि नेता और पब्लिक बिन डेमोक्रेसी बेचैन रहती है।
होली से ठीक पहले फिजा में चीनी के ऐसे रंग की बरसात हो रही है जो चीनी को मीठा होने से रोक रही है। रंग भरपूर हों पर मिठास न मौजूद हो तो होली होते हुए भी आनंद नहीं देती है। होली होली होती है। होली डायबिटिक नहीं होती। होली ऐसा रंग है जो बेरंग नहीं है पर हालात यह हैं कि प्रत्येक त्योहार पर बेरंगीनियत भीतर तक रंग कर गई है। बेरंगीनियत का यह जश्न मन के भावों में समाने वाला नहीं है। यह तो मन में जश्ने- रंग की बलात् घुसपैठ है। होली पर मनमाफिक रंग और सिर्फ पसंदीदा ही सुहाते हैं। होली में भरपूर मिठास के समावेश के सबब बनते हैं। रंग ही होली को मिलन बनाता है, इसे अनुभूति के सुखद संसार में ढालता है और इसे अनंत इन्द्रधनुषीय विस्तार देता है।
होली तो मन के रोम- रोम को बींधती है। होली खेलना इसके खुलने के अहसास का उल्लसित होना है, न कि खुजलाहट का सबब बनना है। उल्लास को समेटने के लिए बिखरना और खुलना-खिलना ऐसी शर्तें हैं जिनका पूरा होना नितांत जरूरी है बिना किसी प्रकार के अंत के मतलब बेअंत। होली होली ही रहे- दिवाली न बने। होली का दिवाली होना- भाता नहीं है और दिवाला होना तो दीवाली का भी नहीं सुहाता।
राजनेताओं का तो हर पल होली खेलते हुए बीतता है। किसी भी साथी को किसी भी जानवर का नाम दे देते हैं। अब यहां पर उल्लू और उसके प_ों की बादशाहत डांवाडोल हो गई है और हरे पीले नीले लाल रंग के सांप फनफना रहे हैं, फुफकार रहे हैं। इस मुगालते में रहकर कि आपके इस प्रकार के रहस्योद्घाटन से पब्लिक आपके बारे में भी अपनी वैसी ही राय कायम नहीं करेगी, जबकि ऐसा ही होता है। आप जो चश्मा पब्लिक को पहनाते हो तो फिर उसी चश्मे से आपको भी देखा जाता है। यह कटु सत्य है जिससे बचना संभव नहीं है। आपको अब बस अपने देखने के नजरिये को एक नये संदर्भ में देखना होगा। अगर नजरिया बदलोगे तो राजनीतिज्ञों की हर रात को ही दीवाली सा चमकीन (चमकता हुआ) पाओगे और अपने उजालों को भी अमावस्या के अंधेरों से सराबोर।
इस बात से असहमति नहीं की जा सकती है कि होली और दीवाली की यह प्रवृत्ति दिनोंदिन पब्लिक के लिए घातक बनती जा रही है और उसे छलती जा रही है। दिन दोगुना और रात हजारगुना यानी हर पल यह जोखिम बढ़ रहा है। होली में दिवाली की चमकीनता और दीपावली पर होली की रंगीन पर संगीन उत्सवीय जंग अपनी विशिष्टता में विकसित हो रही है। इस रंग की पहुंच से पब्लिक तो बाहर ही है।
चीनी के साथ होली पहले ही खेली जा रही है। नेताओं के साथ होली तो साल भर चालू रहती है। वही कभी दीवाली बन जाती है कभी होली और अब तो शेयर बाजार भी अपने निवेशकों के साथ होली खेलन में सिद्धहस्त हो गया है। इस बार की होली राजधानी के रिक्शाचालकों के लिए मनमाफिक रंग में आई है। रिक्शावालों पर मस्ती छाई है।
मिलावट की करवट ने जिंदगी के प्रत्येक पायदान को, सेहत तक को पहले ही अपनी चपेट से, अपने चंगुल में कस रखा है और चाहे कितना ही कसमसाया जाये पर मिलावट की यह ऊंटिया करवट हलचलविहीन ही रहती है। उस शिला के माफिक जिसका पब्लिक की सेहत की कीमत पर रोजाना शिलान्यास होता है। पब्लिक बेबसी से इसकी अभ्यस्त हो चुकी है।
कामनवेल्थ गेम्स के आयोजन के मद्देनजर सड़कों पर वाहन हर समय जाम की होली खेलते दिखलाई दे रहे हैं। इस जाम की सरेआम मस्ती से लुटते हुए सब इस पर चिंता तो प्रकट करते हैं पर चिंतित नहीं होते। चिंता प्रकट करना समस्या के उपर से ही बिना सरसराये ही गुजरना है- यहां सरसराहट की आहट भी नहीं होती है। अगर चिंतित होते तो इस जाम का और अधिक विकास न होने देते। जाम का विकास न होने से परोक्ष तौर पर देश का विकास रूकता है जबकि जाम के विकास में राष्ट्र का विकास समाहित है।
इस शताब्दी का सबसे बड़ा त्योहार महंगाई है और हर त्योहार पर हावी है। इसने अपनी भरपूर जुगलबंदी से त्योहारों की ऐसी की तैसी कर रखी है बट विद डेमोक्रेसी। बिना डेमोक्रेसी के राष्ट्र में तो पत्ता तक नहीं हिलता, कहना समीचीन नहीं होगा क्योंकि राष्ट्र कोई पेड़ नहीं है बल्कि यूं कहा जाएगा कि नेता और पब्लिक बिन डेमोक्रेसी बेचैन रहती है। महंगाई एक ऐसा त्यौहार है जो अपनी ऊर्जास्विता से चैन का संचार करता है। न चाहते हुए भी हम सब यही चाहते हैं कि महंगाई का त्योहार मनाया जाता रहे। हर समय हाहाकार करने में तल्लीन रहते हैं। कभी पगार में बेतहाशा बढ़ोतरी की चाह करके और कभी ...।
जिस प्रकार पहले राशन कार्ड पर सस्ती चीनी मुहैया कराई जाती रही है। अब सबकी चाहना है सस्ती चीनी चाहे न मिले पर तनख्वाह भरपूर बढ़े, चाहे ख्वामखाह ही बढ़े पर इतनी बढ़े कि लाखों के सैलेरी पैकेज भी छोटे ही नजर आते रहें। हमारी इन्हीं बलवती इच्छाओं के बलबूते पर महंगाई के फल, फूल रहे हैं और फुला रहे हैं। एक बानगी देखिये सब्जी सेलर (गौर कीजिएगा) सब्जियों का उत्पादन करने वाले मेहनतकश किसान नहीं, उगाने वालों हाथों से उपयोग करने वालों हाथों तक पहुंचाने की एवज में महंगाई अपना त्योहार अपनी विराटता में मनाती है। महंगाई को मसलने- कुचलने के जितने उपक्रम किए जाते हैं उनका असर हमारे जिस्म और जेब पर होता है। जेब हमारी मसली जा रही है और जिस्म कुचला जा रहा है। महंगाई की सभी चालें खूब होली खेल रही हैं और दिवाला निकाल रही हैं। महंगाई के इस त्रिकोणीय मेल से कोई अछूता नहीं रहा। छूत के रोग को छूट (सेल) में तब्दील होने से कोई नहीं रोक सका। महंगाई के उत्सव का यही जलवा हलवे का स्वाद दे रहा है और हलवे को मिठास देने के लिए इसमें डाला गया चीनी का प्रत्येक कण चीख- चीखकर संभवत: यही घोषणा कर रहा है कि कौन कहता है कि चीनी में अंकुर नहीं फूट सकते, आप एक बार हमें गमले में बोकर तो देखो। जब हमारा जिक्र करके वोट बैंक में भी अंकुर फूट आते हैं तो हमारे उपजाऊपन पर संदेह भरी नजर क्यों?
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