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Feb 17, 2010

जिन्दगी की सुनहरी घड़ी


-बुधराम यादव
सिर्फ रीते कहीं,
फिर से बीते नहीं,
जिन्दगी की सुनहरी घड़ी,
कीमती है ये मानो बड़ी।
ऐसी करतूत हो,
अन्तर्मन शुद्ध हो,
बैर पनपे नहीं,
न कोई युद्ध हो।
स्नेह की हो सलामत कड़ी।
समता की डोर से,
हम बंधे जोर से,
फिर न टूटें कभी,
हम किसी छोर से।
धर लें संकल्पों की वह छड़ी।
धीरज खोयें नहीं,
गम संजोयें नहीं,
हम जहां भी रहें,
खुशियां बोयें वहीं,
जल्दबाजी बिना हड़बड़ी
बोझ जितना हो कम,
चलना होता सुगम,
थकते हैं न कदम,
और भरता न दम,
शीत हो धूप चाहे झड़ी।

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