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Mar 21, 2009

महिलाओं की हिस्सेदारी


महिलाओं की हिस्सेदारी
- डॉ.रत्ना वर्मा
पिछले दिनों महिलाओं की कार्य क्षमता को लेकर एक रिपोर्ट में बताया गया कि अन्य देशों की तुलना में भारत के कॉरपोरेट जगत में ऊंचे पदों पर बहुत कम महिलाएं पहुंच पाती हैं। यद्यपि रिपोर्ट यह भी कहता है कि पिछले पांच साल में कॉरपोरेट जगत में महिलाओं की हिस्सेदारी 14 फीसदी बढ़ी है। अब यदि इस आंकड़े को देखें तो यह भारत जैसे देश, जहां आज भी बालिका वधू जैसे धारावाहिक के माध्यम से बाल विवाह जैसी समस्या को सामने लाने का प्रयास किया जा रहा है जहां लड़की पैदा होने पर आज भी खुशियां नहीं मनाई जाती, और अगले साल छोरा कहते हुए उसे पैदा होते ही मार दिया जाता है, तथा शिक्षित कही जाने वाली बिरादरी में मेडिकल साइंस ने उन्हें भ्रूण में ही लड़की को मार देने की सुविधा उपलब्ध करा दी है, जहां आज भी प्रति वर्ष पांच हजार से भी अधिक लड़कियां दहेज के नाम पर मार दी जाती हों तथा हर तीसरे मिनट में जहां एक महिला बलात्कार की शिकार होती है वहां के कॉरपोरेट जगत में यदि महिलाओं की संख्या में पांच वर्ष के भीतर 14 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है तो यह तो खुशी की बात हुई । यदि कॉरपोरेट जगत को महिलाओं के लिए सबसे ऊंचा पायदान माना जा रहा है तो विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वह अन्य क्षेत्रो में भी पूर्व के मुकाबले आगे बढ़ी है।

दरअसल हम भारतीय महिलाओं की स्थिति को अन्य देशों के मुकाबले बहुत ही निम्न स्तर की मानते हैं पर ऐसा है नहीं। यूरोपीय संघ के आकड़ों के अनुसार यूरोप में भी महिलाओं और पुरुषों के बीच आय में भारी अंतर है। जर्मनी में यह अंतर गत वर्ष प्रति घंटा 23 प्रतिशत था, अर्थात वहां पुरुषों को महिलाओं से साढ़े सत्तरह प्रतिशत अधिक मिलता है। वैसे आय में लैंगिक विषमता वाले देशों में जर्मनी से भी खराब पांच देश और हैं, आस्ट्रिया, नीदरलैंड, साइप्रस, चेक गणतंत्र और एस्तोनिया। दरअसल भारत की तरह ही अन्य देशों में भी पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण महिलाएं पूर्णकालिक नौकरी नहीं कर पाती, इसके लिए वहां की सामाजिक संस्था ने मांग की है कि वे समान काम के लिए समान वेतन दें और महिलाओं को उच्च पदों पर जाने का अवसर दें।

भारत की कामकाजी जनसंख्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के कब्जे में है, यहां की ग्रामीण महिलाएं जहां खेती से जुड़े व्यवसाय का हिस्सा हैं तो शहर में वे विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी कर रही हैं। यह जरुर है कि कॉरपोरेट सेक्टर के उच्च पदों पर कुछ चुनिंदा महिलाओं ने ही एक विशेष मुकाम हासिल किया है। लेकिन यहां तक पंहुचने के लिए उसे बहुत कुछ खोना भी पड़ा है, अर्थात उसके लिए घर- परिवार और बच्चों के लिए समय निकालना मुश्किल होता है। भारत की सबसे अमीर महिला बायोटेक कंपनी की मालिक किरण मजूमदार शॉ ने अपना व्यवसाय एक गैराज से शुरु किया था, जिन्हें तब एक बैंक ने अपना व्यवसाय शुरु करने के लिए लोन देने से भी मना कर दिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि महिलाओं को पुरुषों की तरह अनुकूल परिस्थितियां दी जाएं तो वह किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से मुकाबला कर सकती हैं।

विभिन्न शोधों के जरिए भी यह प्रमाणित हो चुका है कि महिला कर्मचारी, पुरुष की अपेक्षा अपने कार्य के प्रति अधिक गंभीर होती हैं। वह नियत समय पर कार्यालय आती है, अपना कार्य समय पर खत्म करती है और व्यर्थ की गप्पबाजी में समय नहीं गवाती जबकि पुरुष चाय, सिगरेट और गॉसिप के बहाने बाहर निकलते हैं, पान ठेलों पर खड़े होकर घंटों व्यर्थ गंवा देते हैं। फिर भी पुरुषों के मुख से उन्हें यह सुनने को मिलता है कि महिलाएं तो कार्यालय अपना समय काटने आती हैं। इसके विपरीत इस तथ्य से सब वाकिफ हैं कि महिलाओं की वजह से संस्थान में अनुशासन की स्थापना होने के साथ ही लोगों में कार्य करने की क्षमता का विस्तार होता है। बहुत से कार्यालयों में महिलाओं की भर्ती ही इसलिए की जाती है ताकि कार्यालय में शालीनता का वातावरण बना रहे।

सच तो यह है कि कामकाजी महिलाओं की संख्या और भी बढ़ेगी, यदि सरकार उनकी प्रकृति के अनुसार उन्हें उचित सुविधाएं दे। कई देशों में सरकार एक नौकरीपेशा मां को उसके बच्चे के एक वर्ष होने तक सवैतनिक छुट्टी की सुविधा देती है ताकि वह अपने बच्चे की परवरिश ठीक से कर सके। अब कई अन्य सुविधाओं का विस्तार भी किया जा रहा है, जिसमें पिता की भी भूमिका को शामिल किया जा रहा है। हमारे देश में महिला उद्धार एवं महिला अधिकारों को लेकर ढेरों योजनाएं बनायी गयी हैं और नित नई-नई घोषणाएं की जाती रही हैं, पर अभी तक इससे कोई ठोस लाभ उन्हें मिल पाया हो यह नजर नहीं आता। यहां के कई प्राईवेट सेक्टर में तो स्थिति यह है कि गर्भवती महिलाओं को सवैतनिक एक माह की छुट्टी भी नहीं दी जाती, यदि वह इसकी मांग करती है तो उसे नौकरी से ही हाथ धोना पड़ता है। जबकि सरकारी तौर पर छह माह के मातृत्व आवकाश की घोषणा हो चुकी है। शोषण के विरुद्ध आवाज उठाना चाह कर भी वह अकेली पड़ जाती है।

यह भी सत्य है कि स्त्रियों को हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी का अधिकार पाने की प्रत्येक कोशिश में कदम-कदम पर विरोध का सामना करना पड़ता है। यह विरोध पहले तो स्वयं उसके घर परिवार से शुरु होता है फिर समाज से होते हुए, अंतत: उस जगह तक पहुंच जाता है जिसे कोई महिला अपने पसंदीदा कार्यक्षेत्र के रूप में चुनती है। यह विरोध कहीं प्रत्यक्ष और मुखर होता है तो कहीं पर परोक्ष और दबा हुआ, दोनों ही स्तरों पर वह सामाजिक ऊंच-नीच के मनोविज्ञान से प्रेरित होता है। अभी भी हमारे मध्यमवर्गीय परंपरागत परिवारों में लड़की के लिए नौकरी की बात उठने पर उसे स्वयं अपनी इच्छा से क्षेत्र चुनने का अधिकार नहीं दिया जाता। जाहिर है हमारे भारतीय परिवारों में भी बहुत कम परिवार इस बात की स्वीकारोक्ति देते हैंं कि एक मां, एक पत्नी, एक बेटी, एक बहू अपनी नौकरी की खातिर अपने पति, बच्चों और परिवार की उपेक्षा करे। दरअसल आज भी न सिर्फ भारत में बल्कि अन्य देशों में भी काम करने वाली महिला को एक अच्छी मां नहीं माना जाता। इस मानसिकता को बदलने के लिए जरुरी है कि नियोक्ताओं पर कानूनी शिकंजा कसा जाए ताकि उन्हें महिलाओं के साथ भेदभाव करने से रोका जा सके।

फिर भी अनेक मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने के बाद, दोहरी जिम्मेदारी निभाते हुए महिला ने यह साबित कर दिया है कि वह कमजोर नहीं है। बदलते सामाजिक परिवेश और शिक्षा के बढ़ते ग्राफ के कारण स्त्री स्वावलंबन की ओर बढ़ी है इसमें दो मत नहीं।




1 comment:

राजेश उत्‍साही said...

महिलाओं की स्थिति पर आपका यह संपादकीय सटीक है। सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह कि इसे एक महिला ने महिला के नजरिए से ही लिखा है। ‍