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Aug 1, 2021

चार कविताएँ

-सुभाष नीरव

 

1. पढ़ना चाहता हूँ 

मैं पढ़ना चाहता हूँ

एक अच्छी कविता।

कविता

कि जिसे पढ़कर

खुल जाएँ

बाहर-भीतर के किवाड़

मन का कोना-कोना

गमकने-महकने लगे

ताज़ी हवा से।

कविता

कि जिसे पढ़कर

मन के अँधेरों में

उतर आए

रोशनी की लकीर।

पढ़ना चाहता हूँ मैं

एक अच्छी कविता।

एक ऐसी कविता

जो उतरे मेरे भीतर

पहाड़ों पर से

जैसे उतरते हैं घाटियों में

जल-प्रपात

अपने मधुर संगीत के साथ।

कविता

तुम आना

तो आना

इसी तरह मेरे पास।


2-परिन्दे

परिन्दे

मनुष्य नहीं होते।

धरती और आकाश

दोनों से रिश्ता रखते हैं परिन्दे।

उनकी उड़ान में है अनन्त व्योम

धरती का कोई टुकड़ा

वर्जित नहीं होता परिन्दों के लिए।

घर-आँगन, गाँव, बस्ती, शहर

किसी में भेद नहीं करते परिन्दे।

जाति, धर्म, नस्ल, सम्प्रदाय से

बहुत ऊपर होते हैं परिन्दे।

मंदिर में, मस्जिद में, चर्च और गुरुद्वारे में

कोई फ़र्क नहीं करते

जब चाहे बैठ जाते हैं उड़कर

उनकी ऊँची बुर्जियों पर बेखौ!

र्फ़्यूग्रस्त शहर की

खौफदा वीरान-सुनसान सड़कों, गलियों में

विचरने से भी नहीं घबराते परिन्दे।

प्रान्त, देश की हदों-सरहदों से भी परे होते हैं

आकाश में उड़ते परिन्दे।

इन्हें पार करते हुए
नहीं चाहिए होती इन्हें कोई अनुमति


नहीं चाहिए होता कोई पासपोर्ट-वीज़ा।

शुक्र है-

परिन्दों ने नहीं सीखा रहना

मनुष्य की तरह धरती पर।

3. कविता मेरे लिए

कविता की बारीकियाँ

कविता के सयाने ही जाने।

इधर तो

जब भी लगा है कुछ

असंगत, पीड़ादायक

महसूस हुई है जब भी भीतर

कोई कचोट

कोई खरोंच

मचल उठी है कलम

कोरे काग़ज़ के लिए।

इतनी भर रही कोशिश

कि क़लम कोरे काग़ज़ पर

धब्बे नहीं उकेरे

उकेरे ऐसे शब्द

जो सबको अपने से लगें।

शब्द जो बोलें तो बोलें

जीवन का सत्य

शब्द जो खोलें तो खोलें

जीवन के गहन अर्थ।

शब्द जो तिमिर में

रोशनी बन टिमटिमाएँ

नफ़रत के इस कठिन दौर में

प्यार की राह दिखाएँ।

अपने लिए तो

यही रहे कविता के माने

कविता की बारीकियाँ तो

कविता के सयाने ही जाने।

 

4. नदी

पर्वत शिखरों से उतरकर

घाटियों-मैदानों से गुरती

पत्थरों-चट्टानों को चीरती
बहती है नदी।


नदी जानती है

नदी होने का अर्थ।

नदी होना

बेरोक निरंतर बहना

आगे...आगे... और आगे।

कहीं मचलती,

कहीं उद्विग्न, उफनती

किनारे तोड़ती

कहीं शांत-गंभीर

लेकिन,

निरंतर प्रवहमान।

सागर से मिलने तक

एक महायात्रा पर होती है नदी।

नदी बहती है निरंतर

आगे... और आगे

सागर में विलीन होने तक

क्योंकि वह जानती है

वह बहेगी

तो रहेगी।

4 comments:

Sudershan Ratnakar said...

सुंदर अभिव्यक्ति।

शिवजी श्रीवास्तव said...

वाह!सभी कविताएँ अनुपम,सचमुच ही हम पढ़ना चाहते हैं ऐसी कविताएँ जो मन के अंदर आनन्द की सृष्टि करें...कविता की बारीकियाँ तो कविता के सयाने ही जानें पर हर कवि एक सहज कविता लिखना चाहता है...नदी और परिंदे भी अलग ही सन्देश देते है।सुभाष नीरव जी को बधाई।

Sudershan Ratnakar said...

बहुत कुछ कहती सुंदर कविताएँ। हार्दिक बधाई

पूनम सैनी said...

कविता
कि जिसे पढ़कर
खुल जाएँ
बाहर-भीतर के किवाड़
मन का कोना-कोना
गमकने-महकने लगे
ताज़ी हवा से।

सचमुच सभी कविताएंँ बिलकुल ऐसी ही है।पढ़ कर आनंदित महसूस हुआ।बहुत ही सुंदर रचनाएँ वो भी महत्वपूर्ण संदेश के साथ।