बस अड्डा। मैं खड़ा इंतज़ार कर रहा था बस का। एक महाशय कहीं से आकर रुके। बार-बार घड़ी की ओर देख रहे थे। शायद उन्हें भी इंतज़ार था बस का।
कुछ ही मिनटों में
उन्हें अपना एक पुराना मित्र वहीं आता दीख पड़ा। शायद काफी दिनों बाद उन्हें यह
मित्र नज़र आया था। उन्होंने ऊँचे स्वर में पुकारा-
‘ओ...
विपिन...’
'अरे
जतिन...’
उनका मित्र भी उन्हें बहुत समय के बाद मिलने पर बड़ी
गर्मजोशी से बोला और फिर दोनों ने झटके से हाथ मिलाया और कस कर गले मिले।
‘विपिन
भाई,
कहाँ रहता है यार? कितने अरसे के बाद मिला है!’
'क्या
बताऊँ जतिन भाई, गृहस्थी
में फँसे हैं, अब
इधर उधर निकल पाना बहुत मुश्किल होता है। और ऊपर से कोई पक्का रोजग़ार भी तो नहीं
है...’
‘तो
आजकल क्या कर रहा है, भाई?’
‘करना
क्या है?
एँजीनियरिंग का डिप्लोमा किया था,
पर छोटी-मोटी ठेकेदारी कर रहा हूँ...’
‘ठेकेदारी
में तो ख़ूब कमाई है मेरे भाई...’
‘काहे
की कमाई... ठेकेदारों के भी कई वर्ग हैं; बड़े काम के लिए लागत भी बहुत होती है। बड़े-बड़े मगरमच्छ
बैठे हैं,
हम जैसी छोटी मछलियों को जीने कहाँ देते हैं?
किसी जुगाड़ से अगर कोई टेंडर अपने नाम निकल भी आए तो जो
थोड़ी-बहुत आमदनी होती है, उसमें से एक बड़ा हिस्सा तो लोक-निर्माण विभाग की कमीशन में
चला जाता है। तुझे तो इस सरकारी तंत्र के बारे में सब मुआलूम ही होगा। तुझे भी तो
लोक-निर्माण विभाग में काम करते हुए चार-पाँच साल हो गए होंगे...’
‘अरे
भाई,
मैं तो क्लेरिकल साईड से हूँ, पर इतना सुना है कि कमीशन तो देना पड़ता है और यह नीचे से
ऊपर तक बँटता है। पर एक बात कहूँगा- ठेकेदारी करनी हो तो थोड़ी राजनीतिक पैठ भी
चाहिए,
भाई, ताकि टेंडर मिलते रहें...’
‘नेताओं
के अपने रिश्ते-नाते वाले क्या कम हैं जो हम जैसे छोटे-मोटे लोगों के लिए कुछ
करें...’
‘हाँ,
यह तो सच है। पर यह तो बता आज इस शहर में कैसे आना हुआ?’
‘
एक सरकारी प्रोजेक्ट में कॉन्ट्रेक्ट पर जूनिअर एँजीनियर के पद के लिए लिखित परीक्षा मैंने पास कर ली है; आज मेरा यहाँ इंटरव्यू है। पद आठ हैं, पर आवेदक चालीस हैं...’‘तेरा
इंटरव्यू कितने बजे है’?
‘इंटरव्यू
अभी लंच के बाद दो बजे शुरू होंगे, मेरा नम्बर 36वाँ है, शायद साढ़े चार-पाँच बजे के आस-पास ही पड़ेगा। देरी भी हो
सकती है... अभी यहाँ से बस लेकर सीधा वहीं जा रहा हूँ।’
‘वापसी
क्या आज ही है?’
‘हाँ,
अगर वक्त रहते निपट गए तो... शाम साढ़े छ: की बस पकडऩी
होगी। वही आखिऱी बस है।’
'देर
हुई तो ठहरने का इंतज़ाम है कहीं?’
‘अभी
सोचा नहीं है, यार...
ठहर जाऊँगा कहीं रैन- बसेरे में। वैसे मैं आज वापिस निकलना ही चाहता हूँ। बस
इंटरव्यू से जल्दी फ्री हो जाऊँ...’
‘अरे
भाई को भी तो सेवा का मौ$का दे। इंटरव्यू के बाद तू मेरे यहाँ आ जाना। आजकल मैं भी छड़ा ही हूँ। तेरी
भाभी मायके गई हुई है।’
‘नहीं,
नहीं, यार, आज तो वापिस जाना होगा, फिर कभी आऊँगा...’
‘कमाल
की बात करता है, यार...
तू सीधे मेरे पास आ जाना। कुछ गप्प-शप्प हो जाएगी, कुछ खाना-पीना भी हो जएगा। कितने दिनों बाद तो मिला है
तू...’
‘ठीक
है,
जतिन भाई, तू इतना बोल ही रहा है तो आ जाऊँगा। वैसे तेरा डेरा है कहाँ?’
‘मेरा
डेरा तो यहाँ से दस-ग्यारह किलोमीटर की दूरी पर है। थोड़ा दूर तो पड़ेगा,
पर तू आ जाना।‘
‘चल
कोई बात नहीं। दूरी का क्या है...यहाँ से कोई बस-वस तो मिल जाएगी न?’
‘हाँ,
हाँ, बस तो जाएगी। पर एक बात है, यार...शायद आज तेरी भाभी भी वापिस आ रही होगी। और मेरे पास
है सिर्फ वन-रूम सेट। पर तू फिक्र न कर... तू आ जाना,
कुछ न कुछ इंतज़ाम कर लेंगे। पर पहले फोन कर लेना...’
‘अरे
भाभी आ रही है, तो
रहने देता हूँ। तंगी हो जाएगी...’
‘नहीं,
नहीं... ऐसी कोई बात नहीं है... तंगी कैसी?
जगह हो जाएगी... जगह तो दिल में होती है,
यार!... पर तू फोन कर लेना...’
‘अच्छा
फोन नम्बर तो बता।‘
जतिन ने फोन नम्बर
लिखवाया और तभी विपिन की बस आ गई और वह ‘आऊँगा... फोन करूँगा...’ कहते हुए बस पर चढ़ गया । बस पर चढ़ते-चढ़ते,
'एड्रेस तो दिया ही नहीं?
’
‘फोन करना,
बता दूँगा...’
और इधर जतिन ने बस
के जाते ही अपना सेल-फोन निकाला और स्विच-ऑफ कर दिया।
5 comments:
कलयुग की मित्रता।
अच्छी कहानी
समय के साथ बदलते रिश्ते की मनोवैज्ञानिक कहानी।बातों की मित्रता और हृदय की मित्रता में बहुत अंतर होता है।जतिन जैसे दिखावटी व्यवहार वाले मित्रों को पहचानने की आवश्यकता है।बधाई डॉ. दिनेश कुँवर जी।
मुखौटे लगाये मित्रों का सही चेहरा दिखाती सुंदर कहानी। हार्दिक बधाई
आज के समय के हिसाब से बढ़िया कहानी
कहावत है कि जगह दिल मे होनी चाहिए, पर आज के समय मे घर चाहे छोटा हो या बड़ा, पर दिल छोटे हो गए हैं । एक अच्छी कहानी के लिए बहुत बधाई
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