‘आपसे एक गुज़ारिश थी, बस आज भर की बात है मैडम जी! आपको मालूम है
मैंने आपसे कभी ऐसी कोई रिक्वेस्ट पहले नहीं की।’ मैंने अपने इक्कीस वर्ष की आयु का अनुभव-जग ढूँढा और अपने मन
से परिपक्वता की भीख माँगी। मन असमंजस में उलझा रहा, तनाव बढ़ने लगा। ‘क्या बात है आप बात तो बताइए’अपने स्वर में
आत्मविश्वास कावो अल्पांश जोड़ती हुई बोली जो उस क्षण मुझमें विद्यमान नहीं था।
हालांकि मन घबराया हुआ था, कि भला कौन-सा आग्रह हो सकता है? दो सप्ताह पहले ही तो
मेरी कमिशनिंग हुई थी। अब तक की जो मेरी परिचारिका-यात्रा थी वह शिक्षकों की
छत्रछाया में बीती थी। किसी प्रकार का संशय होता तो तुरंत उनसे पूछा जा सकता
था।जैसे ही यूनिवर्सिटी की डिग्री मिली, प्रत्याशित परिवर्तन भी आए! फौजी अस्पताल
में लेफ्टेनन्ट की उपाधि मिलते ही,पल भर में पूरे वार्ड की ज़िम्मेदारी! एक सप्ताह
इसी वार्ड में दिन की ड्यूटी लगी, फिर पिछले सप्ताह से रात की ड्यूटी शुरू हुई।
अपने कंधों पर फॅमिलीकर्क या कैंसर वार्ड का दायित्व था और अब तक तो उसे बखूबी
निभा भी रही थी। मेरे अलावा उस ड्यूटी को निभाने वाले और दो कर्मचारी थे, आया और
सफ़ाईवाली।आया किचन से खाना लाती और बांटती, सफ़ाईवाली शैया-ग्रस्त रोगियों को
मल-मूत्र कराती और सुबह पूरे वार्ड की बढ़िया सफाई करती। मैं पहली बार पूर्णतः
स्वावलंबी ड्यूटी निभा रही थी, दिन के समय तो वरिष्ठ सिस्टर का अनुभवी सहयोग होता
है। पिछले सप्ताह से मेरी नइटड्यूटी भी एक नित्य क्रममें बंध गया था। इस वार्ड में
तीस-पैंतीस कैंसर रोगियों की देखभाल के लिए मैं ही एकमात्र नर्स थी। दिन की तुलना
में रात के एकांत में सभी शांत हो जाते हैं, विश्राम की तैयारी में। दिल अपनत्व का
एक मित्र ढूँढता है, जिससे बिना किसी भय या संकोच के, मन की सारी पोथी खोली जा
सके! धीरे-धीरे सब रोगियों से एक संबंध-सा बन गया था। उन सब से मुझे लगाव भी हो
गया था। मानो मेरे अपने थे सभी, मुझ पर उनकी ज़िम्मेदारी सिर्फ शारीरिक ही नहीं,
मानसिक तौर पर भी थी।
सायरा का स्वास्थ्य
ऐसे असहाय पड़ाव पर आ गया थी कि उसकी काया मानो कंकाल हो! कभी उससे वेदना के कारण
कर्ण भेदी चीख सुनाई पड़ती तो कभी वह अपनी असमर्थता से दुखी होकर लगातार धीमे-धीमे
कराहती। अब्दुल अली उसकी किसी भी प्रतिक्रिया से रुष्ट नहीं होते। सुबह छ: बजे से
लेकर रात के सात बजे तक प्रतिदिन उतनी ही कोमलता से और तत्परता से सायरा की देखभाल
करते। सुबह आठ बजे तक नहला-धुलाकर उसके केश-रहित सिर को दुपट्टे से सलीके से ढक
देते। उसके हल्के-फुल्के शरीर को गोदी में उठाकर रेडियो थेरपी के लिए ले जाते।
रेडियो थेरपी उस अभागी के लिये कोई चमत्कारी उपचार नहीं था, वेग से बढ़ते हुए ट्यूमर
को कम से कम घटाने वाली स्थिति तक लाने के लिए एक सहारा-भर था। ताकि उसके फैलाव के
दुष्प्रभाव भी घट जाए, विशेषकर दर्द और सीज़र, यानि मिर्गी के दौरे। सायरा आक्सीजन
और सेलाइन के सहारे जी रही थी, यदि दर्द की इन्जेक्शन समय से न मिलता, तो छटपटाने
लगती। पिछले कुछ दिनों से मिर्गी के दौरे जब-तब पड़ने लगे थे। सिर के भीतर इतना दाब
बढ़ गया था कि दवाइयों का प्रभाव कम होता जा रहा था। कुल मिलाकर एक ऐसी मोड़ पर
रुकी थी सायरा, कि आत्मा किसी भी क्षण उसके देह को छोड़कर जा सकता था। कभी-कभी उसकी
वेदना देखकर सोचती कि ईश्वर भी इतना निर्मोही होता है, जाने ऐसी यातना क्यूँ दे
रहा है! फिर अब्दुल अली का प्यार-दुलार और धैर्य देखती तो अपने आप लज्जित हो जाती।
एक पलड़े में उसके पति को ऐसी अद्भुत श्रद्धा भी तो दी है उसी प्रभु ने!
उसी वार्ड में मेरी सबसे पसंदीदा मरीज़
थी ‘जसप्रीत’, मेरी प्यारी
सिखनी। कैंसर के कारण उसके दाहिने पैर को घुटनों से ऊपर काट दिया गया था। यहाँ हर
कहानी का खलनायक तो कैंसर ही था। वो दिन भर बैसाखी के सहारे चलती हुई कभी किसी की
मदद करती तो कभी किसी को हँसाती। किसी ने उसे अपने दुर्भाग्य पर दुखी होते हुए
नहीं देखा। पूरे वार्ड में आशा की किरण फैलाती, खिलखिलाकर हँसने वाली ‘जसप्रीत’। अपनी इच्छा से कभी मेरे लिए गुरु द्वारे
से इलायची वाली चाय बनाकर लाती तो कभी कड़ा प्रसाद खिलाती। यदि व्यस्तता के कारण
मैं खाना खाना भूल जाती तो वो आकर पूछती, ‘छोटी मैडम जी,
आपने खाना खाया?’ सुबह की ड्यूटी में बड़ी मैडम थी जो कि मेजर
के पद पर थी और उनके साथ में कप्तान मैडम थी। सबके लिए हमारे यही नाम थे और हमारी
पहचान भी यही थी। अगर मैंने नहीं में उत्तर दिया, तो तुरंत दूध का गिलास उठा कर ले
आती। ‘पियो मैडम जी, दूध है वॉनडेरफुल’
वो दूध के टीवी में प्रचलित विज्ञापन की नकल उतारती हुई नाटकीय अंदाज में बोलकर
सबको खूब हँसाती। उसके इन स्नेहपूर्ण आग्रह को कोई ठुकरा कैसे सकता था? बस एक दिन
उसकी आँखों में आँसू दिखे थे जब वह सायरा के बच्चों के बारे में बातें कर रही थी।‘कम अज़ कम, अपनी नानी के पास है, बच्चे प्यार से पल रहे हैं।’
एक दिन मैंने जसप्रीत से कुछ ऐसी बातें सुनी जिसे सुनकर क्रोध और संताप दोनों भावनाएँ उमड़ कर मन में तांडव मचाने लगे। चार-पाँच महिलाएँ गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर का शिकार थी, जिनमें से तीन को उनके पतियों ने त्याग दिया था! अपने घर से लाकर मैके में छोड़ दिया था। ऐसे में उन्हें कर्क रोग कम कष्टदायक प्रतीत हुआ होगा। इस प्रकार केवल जानलेवा रोग ही नहीं, निर्दयी प्रकार से छोड़े जाने की उदासी भी झेलनी पड़ी उन्हें। उनमें दो मरीज़ों को गाँव के किसी सज्जन पुरुष ने बचा लिया। उनके सरकारी अधिकार की जानकारी दी और फौजी अस्पताल में निःशुल्क उपचार के लिए भर्ती करवाया। आभा भी ऐसी ही एक स्त्री थी, उसके दो छोटे बेटे उसकी माँ के घर पल रहे थे। छोटी बहन उसकी देखभाल के लिए उसके पास वार्ड में रुकी थी। कोई अपने बच्चे की देखभाल की चिंता करता, कोई उनकी पढ़ाई की चिंता करता तो कोई अपने पति की या माँ-पिताजी की। अपनी चिंता तो तब होती जब दर्द हद से बढ़ जाता। उपचार के दुष्प्रभाव मर्ज़ की ही तरह भयावह थे। जसप्रीत का पति बेहतरीन जीवनसाथी था, उसके इस संघर्ष में हर पल उसके साथ। दो वर्ष पूर्व ही उसकी शादी हुई थी। उन्होंने तय किया था कि कैंसर को अपने जीवन में हावी नहीं होने देंगे। जब तक हो सके उससे लड़ेंगे और अपनी यही हिम्मत औरों को देते रहेंगे। इन प्रेरणादायक कहानियों को सुनकर मैं विह्वल हो जाती। उड़िया अम्मा जो इशारों से मुझे समझाती की उन्हें मुँह के कैंसर के कारण वेदना हो रही है, दवाई पाते ही वो मुझे अपनी भाषा में आशीर्वाद देती। उनके हाथ अनजाने में मेरी माड़ से बने कैप बिगाड़ देते। लेकिन उस स्नेह के आगे मेरी कैप का कोई महत्त्व नहीं था! अठारह वर्षीय अंजली जिसे होडजकीन्सलिम्फोमा था, अपनी किताब में लगातार चित्र बनाती रहती। जसप्रीत उसे चुटकुले सुनाकर हँसाती नहीं, तो बेचारी अपनी निराशा में ही डूबकर मर जाती। अपने माता-पिता के सामने मुस्कुराकर उनका ढाढ़स बांधती, लेकिन उनके जाते ही दोबारा अपने कवच में घुस जाती!
उस दिन भी जसप्रीत
मेरे पास खड़ी थी जब अब्दुल अली ने अपनी विनती दोहराई। मैंने सबको दवाइयाँ देकरअपने
हाथ अभी धोये ही थे। आज अब्दुल अली का चेहरा इतना बुझा-बुझा सा लग रहा था कि मेरे
मुँह में बोल आकर खामोश हो गए। सायरा दो दिन से उन्हें पहचान नहीं रही थी, वो
बच्ची की तरह अपना खीज दर्शाती, किन्तु अब्दुल अपनी व्यथा किसे सुनाता या दिखाता? ‘क्या हुआ अब्दुलभाई?’
जसप्रीत ने मेरी ओर से फिर पूछा।
अब्दुल की आँखों
में आँसू भरे थे और स्वर रुँधा था, आज उन्हें देखकर और अधिक संताप का आभास हुआ। ‘मैडमजी आज आप मुझे सायरा के साथ रहने की
पर्मिशन दे दें, प्लीज। बस एक मेहरबानी कर दो मैडम, आपको सारी उम्र दुआएँ दूँगा।’ प्रतिदिन शाम साढ़े-सात बजे तक सायरा का मुँह-हाथ धुला कर उसका कंबल और
तकिया आदि व्यवस्थित करके अब्दुल अली चले जाते थे। फॅमिली वार्ड का नियम था कि कोई
मर्द वहाँ साढ़े-सात बजे के पश्चात नहीं रुक सकता था क्योंकि ये जनाना वार्ड था। नौ
बजे तक मुख्य-रसोई से रात का दूध लाने के बाद, आया सभी दरवाज़े बंद कर देती। सब
महिला-रोगियों की सुरक्षा का ऐसा प्रश्न मेरे सामने कभी क्या आता, ऐसा प्रश्न तो
किसी अनुभवी नर्सिंगऑफिसर के सामने भी संभवतः आया न हो। मैं अपने आंतरिक द्वंन्द्व
में फँसी थी कि आया ने अपनी राय दी, ‘ऐसे तो अलाओ नहीं है,
भाई साहब। मैं तो दस साल से काम कर रही हूँ!’ सफ़ाई वाली
अम्मा तो आँचल में मुँह छिपाकर हँसने लगी, उसे ये आग्रह शायद हास्यपद लगा हो। मेरा
मन अपने संघर्षों से जूझ रहा था, अपने दिल की सुनूँ या केवल नियम पालन करूँ? कुछ
तो निर्णय लेना था। अब्दुल की आँखों से अविरल अश्रु धार बहे जा रहे थे। चाहे वो
जितनी भी मानसिक यातना सह रहें हों, इससे पहले उन्हें इस प्रकार रोते नहीं देखा। ‘आज ही की बात है मैडमजी बस, कल नहीं पूछूँगा। बस आज एक रात,’ उनकी विनम्रता पूर्ण निवेदन ने मेरा दिल तोड़ दिया, मेरी आँखें डबडबाने
लगी।
जाने कब पीछे से अंजली, आभा और अन्य कई रोगी भी हमारे पास आकर खड़े हो गए। जब कुछ रोचक घट रहा हो तब निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती। उड़िया अम्मा भी हाव-भाव दिखाकर पूछने लगी, ‘क्या हुआ?’ उनकी आँखें रोते हुए अब्दुल से मेरे चिंतित चेहरे के मध्य झूला झूलती रहीं। आभा ने मेरी दुविधा भांप ली और मेरे पास आकर अधिवक्ता के रूप में बोली, ‘मैडमजी, प्लीज़ इन्हें रहने दीजिए न आज, कितनी विनती कर रहें हैं! ऐसे तो इनको कभी रोते नहीं देखा। दिल में जितना भी दुख हो पर हमेशा सायरा को बच्चों की तरह समझा-बुझाकर उसकी सेवा करते रहते हैं। कभी-कभी तो सायरा उन्हें खीजकर मार भी देती है जैसे बच्चे करते हैं, पर ये भाई साहब सब चुपचाप सहते हैं! आपने तो बस दो-तीन हफ्ते से अब्दुलजी को देखा है, हम तो दो महीने से उन्हें जानते हैं। इनसे सीधा आदमी तो मैंने आज तक नहीं देखा।’ जसप्रीत ने अपनी वकालत की, ‘सच बात है मैडमजी, इनसे किसी को क्या खतरा हो सकता है?’ ‘पर फॅमिली वार्ड में आदमी अलाओ नहीं है’ हमारी आया, शांता बाई अपने नियम पर डटी रही। ‘सिर्फ डॉक्टर साहब अलाओ है, मुझे मालूम है। मैडम कॉल करेंगे, जब कोई ईमर्जन्सी होगा। दवा-दारू,चेकअप के बाद मैं फिर से सब दरवाज़े बंद कर दूँगी।’ ‘क्यों?’ सदैव चुपचाप रहने वाली अंजली ने कारण पूछा तो शांता बाई कुछ हैरान दिखी। ‘हमारी ज़िम्मेदारी है सब लेडीज़ पैशन्ट हैं न। रूल तोड़ेगा तो मैडम को मैट्रन को जवाब देना होगा!’ ‘
हम सब मैडम का साथ देंगे, कोई हमारी सुरक्षा के बारे में हमसे भी तो पूछे!’ छुई-मुई अंजली ने जब इतने आत्मविश्वास से कहा तो आभा और जसप्रीत ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाया। ‘मैडम जी रहने दो अब्दुल जी को’ अब की बार आभा की आँखों से आँसू बड़े वेग से बहने लगे। ‘ऐसे भाग्य लिखाकर आई है सायरा, काश हमारे पति को इन की तरह सात फेरे का मतलब पता होता। विवाह के तीन वर्ष तक इस बदन को खूब लूटा, जब इसमें कैंसर आ गया तो मेरे मायके छोड़ आए! आज तक न मुझे चिट्ठी लिखी, न ही पूछा की ज़िन्दा हूँ या नहीं। फिर सख्ती से आँसू पोंछती हुई बोली, ‘आपको मेरी कसम मैडम जी, इनको आज रात ठहरने दो।’एक तो मेरे अनुभव
का अभाव, दूसरा फौज की कड़ी अनुशासन प्रणाली की दो-धारी तलवार मेरे सामने
नृत्य कर रही थी। अंत में अब्दुल भाई को
रहने की अनुमति दे ही दी। सुबह छ: बजे सायरा इस संसार को त्याग परमात्मा के पास
चली गई। अब्दुल बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर खूब रोये। उड़िया अम्मा उन्हें अपने
बच्चे की भांति सीने से लगाकर धीरज दिलाती रही। एक पल में भाषा अपनी पहचान खोकर
भावना में विलीन हो गई। उस समय माँ का दर्जा केवल उन्ही का था। उनका दुख मुझसे तो
क्या, किसीसे भी देखा नहीं जाता था। सात बजे जब तक जसप्रीत के पति कर्तार सिंह
वार्ड में नहीं आए तब तक अब्दुल सायरा के बिस्तर के पास ही बैठ रहा। सायरा के मृत
शरीर को नहला-धुलाकर तैयार भी करना था। कर्तार जी ने अब्दुल को बलपूर्वक उठाया और
किसी तरह उसे ड्यूटीरूम तक ले आया। मैंने उनके लिए चाय और नाश्ता रखवाया था। ‘यार अब्दुल क्या करें, हम सब के साथ रब ने
बड़ा बुरा किता। लेकिन देख छोटी मैडम जी ने बड़ी बहादुरी दिखाई, किसी करनल मैडम ने
भी ऐसा काम नहीं किया। इन्होंने तुझे सायराबी के साथ रहने दिया न?’अब्दुल को अचानक कुछ याद आया, हाथ जोड़कर बोलने लगा, ‘ये एहसान कभी नहीं भूलूँगा। आप भूल जाओगे मैं नहीं भूलूँगा। अल्लाह ताला
आपको हमेशा खुश रखे।’ ‘यार मैडम जो
चाहती है, वो भी कर ले मेरे भाई। वे चाहती हैं की तू थोड़ा हाथ-मुँह धोकर
चाय-नाश्ता कर ले वरना हमारी मैडम अपना काम कैसे करेगी। तुझे पता है न सुबह वाली
सब मैडम इनसे सीनियर हैं, डांट खिलवाएगा?’ किसी तरह अब्दुल
ने चाय पी और कुछ खाया। उसकी आँखें धँसी हुई थी, चेहरा बेजान लग रहा था, जाने
कितने दिनों से वो सोया नहीं था। कर्तार ने उसके साथ मिलकर सारी सरकारी कार्यवाही
समाप्त की।
उस दिन किस तरह मैं वापस हास्टल पहुँची
और रात को कैसे सायरा के बिस्तर को खाली देखकर अपनी ड्यूटी निभा सकी, मालूम नहीं!
इस घटना को बीते कई वर्ष हो गए किन्तु अब्दुल का चेहरा अब-तब आँखों में घूम जाता
है। ईश्वर से अब्दुल जैसे पुरुष बनाने की दुआ करती हूँ जो अपने रिश्ते निभाना
जानते हैं। उम्मीद करती हूँ कि खुदा मेरी भी ये गुज़ारिश सुन ले!
लेखक के बारे में-
मलयालम भाषी परिवार में जन्म। बीएससी और एमएससी नर्सिंग उपाधि में गोल्ड मैडल प्राप्त। बचपन से साहित्य से गहरा लगाव। दो काव्य और एक कथा-संग्रह प्रकाशित। उर्दू और अंग्रेज़ी में भी कविताएँ लिखती हैं। रचनाएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कविताओं के अलावा कहानियाँ, संस्मरण और उपन्यास लिखती हैं। विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा विश्व हिन्दी दिवस 2020 के उपलक्ष्य में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कहानी-लेखन प्रतियोगिता में अमेरिका भौगोलिक क्षेत्र से प्रथम पुरस्कार प्राप्त। नृत्य, गायन चित्रकला और कढ़ाई में अभिरुचि। संप्रति-जार्जटाउन यूनिवर्सिटी अस्पताल के कैंसर सेंटर में कार्यरत तथा वर्जीनिया, अमेरिका में निवास।सम्पर्क: 1413 ग्रेडीरेंडल कोर्ट, मैकलेन, वर्जीनिया 22101, cs_preethi@hotmail.com, फोन 571-527-6556
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