1. दीवार का मन
दीवारों के बिना छत कैसे रहेगी इसी फ़िक्र में जर्जर दीवारें जी जान
से खड़ी रहती है। भुरभुरी होकर बिखरने तक,
अपने लिए शायद ही कोई पल जीती हों। दुआ भी करती हैं तो छत कायम रहने
की। सिर पर छत एक दिलासा है कि तुम सुरक्षित हो। यह दिलासा पुख़्तगी तय करता है कि
तूफ़ान आए या बिजली गिरे; बच जाओगे। बचे रहने की कयावद ही
जीवन के सफ़र की मूल भावना है। बचे रहें हम, बचा रहे हममें
कुछ। रिक्त मन की परिधि कितनी बड़ी हो जाती है कि अकेलेपन से घबराकर मन बाहर भाग
छूटता है। बाहर से जो मिल जाए तुरंत भर लिया मन में। एक पल भी स्वयं का साथ भारी
प्रतीत होता है। तो... जो स्वयं को इतना भी नहीं सहन कर पा रहे, कोई दूसरा कैसे सहन करेगा। परन्तु चाहना तो है। चाहना है स्वीकारोक्ति की,
साहचर्य की। साहचर्य से उपजे सुख का आकाश अनन्त क्यों नहीं बना
पाते। उसमें शुबहों के काले बादल हैं। शिकायतों के अंधड़ हैं। जो साफ़ नज़र आ रहे थे, वही नज़ारे कुहरे की आड़ ले लेते हैं। पल में मन का दृश्य ओझल। सुख-चैन की
बाँसुरी पल में क्रंदन करने लगती है। समय की डोर हाथ से छूटती जान पड़ती है।
भागते-भागते साँसों की डोरी तनने लगती है। व्यथित तन, खंडित
मन, पागल हाथी- से उन्मादित स्वप्न। कहाँ जाना है? क्या पाना है? किसके लिए है हृदय की सारी पूँजी?
क्या तलाश पूरी होगी? क्या अब भी पाँव इस
योग्य हैं कि भाग सकें? क्या फेफड़े इतनी हवा भर पाएँगे स्वयं
में कि धुँधली दृष्टि साफ़ साफ़ देख सके। हज़ार-हज़ार उलझनों से जूझता मन क्या कोई
सिरा पकड़पाएगा, जिसके सहारे चल कर चक्रव्यूह भेदा जा सके।
भीतर के अनगिन युद्ध; बाहर के अनगिन युद्ध। भीतर के नरक;
बाहर के नरक। इन सबसे उपजी थकान का ढेर इतना ऊँचा है कि उसकी परछाई
ही सारा उजाला पी जाती है। अवसाद के छोनेकानी उँगली थामे चलते हैं। जिन दीवारों के
सहारे पीठ टिकाई,वे भी तो कितनी जर्जर हैं, पता नहीं कब दरक जाएँ। काश कि हम इन जर्जर दीवारों का मन पढ़ पाते।
1
पोंछ भी दो ना
बाँच लो मन।
2
गहरी खाई
बढ़ती परछाई
साँझ है आई।
2. असाढ़
1
असाढ़ माह
अनुराग उपजे
मेघ बरसे।
2
बंजारे मेघ
गाएँ मल्हार राग
जागे हैं भाग।
3. गुलमोहर
फूल कड़ी धूप में भी
मुस्कुराना नहीं भूलते। अपनी एक मुस्कान से देखने वालों को ख़ुशी मिलती है तो ये
काम इतना कठिन भी नहीं न। फिर हँसकर जिया जाए या मुँह लटकाकर जीना तो है ही। ख़ुशबू
कभी अपने फूल में लौटकर नहीं आती; पर पहचानी तो उसी के नाम से जाती है। हमारी मुस्कान भी वही ख़ुशबू है, जो हमारी छवि के साथ ही किसी हृदय में बसी रह जाती है। एक मुस्कान जितना- सा जीवन और कितने सुनहरे रंग। प्रकृति की कितनी बड़ी पाठशाला हमारे
इर्द-गिर्द मौजूद है। कितना बड़ा कैनवस नित्य सजता है।
कितने रंग रोज़ अपना स्वरूप बदलते हैं। आँखें होते हुए भी कितना कुछ अनदेखा छूट
जाता है हमसे। कितना निकल पाते हैं हम मन में लगे जालों को हटाकर। देखने की एक
दृष्टि परिमार्जित करते ही दृश्य कितना कुछ कह जाते हैं। समझा जाते हैं। तो क्यों
न गुलमोहर को देख कुछ पल को एक गुलमोहर अपने भीतर भी उगा लें जो जीवन के घाम को
सहकर खिल उठे। जिसका मकरन्द किसी का सानिध्य चूमकर शहद सा मीठा बन जाये।
गुलमोहर
धूप में मुस्कराए
जीना सिखाए।
4 comments:
बहुत सुंदर वर्णन 👌👌
बहुत सुंदर भावों और विवरणों से सजे गद्यांश। भाषा जैसे रेशम का थान कि उँगलियाँ फिसलती ही चली जाए। जेठ, आषाढ़ और दीवारों के आर्तनाद सुनते हुए हमारे भीतर कोई संगीत गूँजने लगता है, हवाएँ सरसराने लगती हैं। अनिता जी को बहुत बधाई।
तीनों हाइबन सुंदर,अनिता जी के गद्य में भी लालित्य है,सरसता है,काव्यात्मक प्रवाह है।बहुत बहुत बधाई।
सुन्दर महकते हुए है तीनों हाइबान,बधाई
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