राजस्थान की धरती राजपूतों के त्याग और बलिदान की भूमि रही है। इस वीर भूमि पर ऐसे रणवीर पैदा हुए है, जिन्होंने अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति देकर अमरता प्राप्त की हैं राणा प्रताप ऐसे ही रणवीरों में एक थे। राणा प्रताप के पिता राणा उदय सिंह ने एक बार क्रोधित अवस्था में घोषित किया कि जब तक बूँदी के गढ़ पर मेवाड़ का झण्डा नहीं लहरा दूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। इस घोषणा पर तत्काल बुद्धिमान सेनापति ने कहा, महाराज! आपने यह क्या कह दिया? बूँदी के गढ़ पर मेवाड़ का झण्डा लहराना नितान्त असम्भव है। इस पर अपने ही कथन पर राणा को पश्चाताप हुआ। 'अब पछताये क्या होत है’। तत्काल ही प्रधानमंत्री ने एक तरकीब बताई। मेवाड़ के ही अपने एक गढ़ पर बूँदी का झण्डा लगाया गया और अपनी ही सेना के सौ हाड़ा राजपूतों को उस पर चढ़ाई करने हेतु भेजा गया। यह एक नकली युद्ध ही था जिसमें एक घण्टे तक तलवारबाजी के साथ हाड़ा राजपूतों को आत्मसमर्पण करना पड़ा और नाटकीय ढंग से बूँदी का झण्डा उतारकर मेवाड़ का झण्डा फहराने की व्यवस्था की।
ऐतिहासिक कथन के
अनुसार कहा जाता है कि जब मेवाड़ के सेनिक गढ़ में घुस गये और हाड़ा रणवीर मेवाड़
की सैन्य टुकड़ी पर बहादुरी के साथ टूट पड़े। भीषण युद्ध हुआ। मेवाड़ की सेना से
मुकाबला करते हुए हाड़ा वीर सैनिक शाम तक लोहा लेते रहे। हाड़ा योद्धाओं की संख्या
सौ थी। युद्ध में जब आखिरी हाड़ा योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया तब राणा ने
बूँदी का झण्डा उतारकर मेवाड़ की ध्वजा
फहराई। बूँदी में आज भी उन सौ हाड़ा
योद्धाओं के बलिदान की स्मृति में विशाल मेले का आयोजन होता है।
जिस समय समूचे भारत
देश में मुगल बादशाहों का साम्राज्य था उस समय मेवाड़ पर एक वीर योद्धा महाप्रतापी
महाराणा प्रताप का अवतरण हुआ। मेवाड़ प्रदेश एक स्वतन्त्र प्रदेश था। जिस पर
मुगलों का आधिपत्य नहीं था। तत्कालीन किसी भी राजपूत राजा ने मुगलों की हुकूमत
स्वीकार नहीं की। इस पर मुगल सम्राट अकबर स्वयं आश्चर्य चकित था। अकबर की सेना का
मुकाबला करने के लिये राणा प्रताप ने बीस हजार राजपूतों को साथ लेकर मुगलों की अस्सी
हजार सैनिकों की सेना का मुकाबला किया तथा हार नहीं माने। यद्यपि राणा प्रताप
शत्रु सेना से घिर गए थे। उस समय राणा के चेतक घोड़े ने अपना पराक्रम दिखाया तथा
प्रताप के भाई शक्ति सिंह ने प्रताप को बचाने में सहयोग किया। इस युद्ध में चेतक
की भी मृत्यु हो गई। केवल एक दिन ही चलने वाले इस युद्ध में सत्रह हजार सैनिक मारे
गये। फिर भी राणा प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की। राणा प्रताप की इस शौर्यगाथा
का वर्णन करते हुये अंग्रेज इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिखा है, 'राजस्थान की भूमि पर ऐसा कोई फूल नहीं उगा,
जो राष्ट्रीय वीरता और त्याग की सुगन्ध से भरकर न झूमा हो। वायु का
एक भी झोंका ऐसा नहीं उठा जिसकी झंझा के साथ युद्ध की देवी के चरणों में साहसी
युवकों का स्थान न हुआ हो।’
महान योद्धा रावल
रतन सिंह चुण्डावत की शौर्यगाथा पढ़कर रोंगटे खड़े जो जाते है। नवविवाहित सलूम्बर
के रावत रतन सिंह चुण्डावत युद्ध भूमि में प्रस्थान करते समय जब अपनी पत्नी से
अपनी निशानी मांगी तो रानी ने अपना सिर काटकर निशानी के रूप में ही दे दिया ताकि
युद्ध भूमि में नवविवाहिता पत्नी के मोहपाश में न घिरकर बहादुरी के साथ रणभूमि में
दुश्मनों का मुकाबला कर सके।
इसी तरह महाराणा
अमर सिंह की सेना के दो रजपूती दल थे। चुण्डावत और शक्तावत। दोनों दलों में अपनी
श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये परस्पर मुकाबला होना था। महाराणा की सेना ने
चुण्डावत खाप के ही सपूतों को हरावल (युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति) में ही रहने
का अवसर मिलता था। शक्तावत राजपूत भी किसी से कम नहीं थे; अत: उन्होंने भी हरावल में रहकर अपना
पराक्रम दिखाने का प्रस्ताव महाराणा के सम्मुख रखा। इसका निर्णय करने के लिए
महाराणा ने एक प्रतियोगिता आयोजित की।
उस समय उन्ठाला का
किला जहॉंगीर के अधीन था और उस किले का किलेदार नवाब समस खॉं था। उस समय यह निश्चय
किया गया कि इस किले पर अलग-अलग दिशाओं से आकर दोनों दल आक्रमण करेंगे। दोनों ही
दलों ने उन्ठाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। वीर शक्तावत दुर्ग के निकट जाकर उसे
तोडऩे की कौशिश करने लगे। शर्त यह थी कि जिस दल का व्यक्ति दुर्ग में पहले
प्रविष्ट होगा उसे ही हरावल में रहने का अधिकार होगा। इधर चुण्डावत सरदारों ने
दुर्ग की दीवार पर कबन्ध द्वारा चढऩे का प्रयास करने लगे। शक्तावतों ने भी दुर्ग
की फाटक को तोडऩे के लिए हाथी की टक्कर से तोडऩे का प्रयास किया; किन्तु हाथी दुर्ग के फाटक पर लगे तीखी
कीलों को देखकर डर गया और पीछे लौट आया। यह दृश्य देखकर शक्तावतों का सरदार बल्लू
अपनी बहादुरी का परिचय देते हुए फाटक की कीलों पर अपना सीना रखकर खड़ा हो गया।
महावत को हाथी द्वारा अपने सीने पर टक्कर मारने का संकेत दिया। तत्काल महावत ने
हाथी को टक्कर मारने का इशारा किया और उस टक्कर से दुर्ग के पैने कीले बहादुर
बल्लू शक्तावत के सीने को चीर कर आरपार हो गये और बल्लू का प्राणान्त हो गया। उसी
समय चुण्डावतों के सरदार जेत सिंह ने फाटक को टूटने की अवस्था में देखा, तो तत्काल अपने सिर को काटकर दुर्ग में फेंकने का आदेश दिया, ताकि शर्त जीत सके; किन्तु साथियों द्वारा ऐसा नहीं
करने पर स्वयं ने ही अपना सिर अपने ही हाथों से काटकर दुर्ग में फेंक दिया। इस
प्रकार चुण्डावतों ने अपना हरावल में रहने का अधिकार प्राप्त किया।
इतिहास प्रसिद्ध
वीरांगनाओं में रानी पद्मिनी का नाम विख्यात है। वह सिंहल की राजकुमारी थी। इसके
पिता गंधर्व सेन सिंहल राज्य के राजा थे। राजकुमारी पद्मिनी बड़ी सुन्दर थी। पिता
ने उसके विवाह के लिये स्वयंवर आयोजित किया। चित्तौड़ के राजा रावल रतन सिंह ने
स्वयंवर में प्रस्तुत सभी राजाओं को हराकर रानी पद्मिनी को जीता और उसे चित्तौडग़ढ़
लेकर आ गए। रानी की सुन्दरता जग जाहिर थी।
राजा रतन सिंह के
राज्य में राघव चेतन नाम का एक प्रसिद्ध संगीतकार था। राघव चेतन को जादूगरी की
महारत भी हासिल थी। वह सदैव अपने प्रतिद्वन्द्वियों पर जादू द्वारा जीत हासिल करता
था। जब राजा को यह जानकारी मिली तो वह बड़ा नाराज हुआ और उसे दण्ड स्वरूप राज्य से
बहिष्कृत कर दिया। इस बात का बदला लेने के लिए राघव चेतन दिल्ली चला गया और
सुल्तान अलाउद्धीन खिलजी से रानी पद्मिनी के सौन्दर्य का बखान किया तो खिलजी रानी
को देखने के लिए रावल रतन सिंह के मेहमान बनकर चित्तौड़ पहुँच गया।
राजपूती
मान-मर्यादा के अनुसार रानी किसी पराये मर्द को अपना मुँह नहीं दिखाते हुए घूँघट
में ही रहती थी। खिलजी वंश में दिल्ली सल्तनत का अलाउद्धीन खिलजी दूसरा शासक हुआ।
राघव चेतन द्वारा रानी पद्मिनी का सौन्दर्य वर्णन सुनकर अलाउद्धीन खिलजी रानी को
देखने के लिए अतिथि के रूप में रतन सिंह के महल में पहुँच गया। खिलजी द्वारा विशेष
आग्रह पर ही जब वह रानी पद्मिनी का मुँह नहीं देख सका तो उसने उसी दिन राजा रतन
सिंह को बन्दी बना लिया। रानी पद्मिनी ने अपने सेनापति गोरा और भतीजे बादल के साथ
मिलकर एक योजना बनाई। जिसके अनुसार रानी अपनी सात सौ सहेलियों के साथ खिलजी के पास
जाएगी। यह प्रस्ताव खिलजी ने स्वीकार कर लिया;
लेकिन सात सौ सहेलियों के स्थान पर सात सौ वीर सैनिक पालकियों में
बैठ गए और रानी के स्थान पर वीर सेनापति गोरा बैठा। खिलजी के पास पहुँचते ही रानी
अर्थात गोरा ने रतन सिंह से मिलने की इच्छा प्रकट की। बड़ी सुरक्षा के साथ रानी
यानी गोरा को राजा रतन सिंह से मिलवाया गया और रतन सिंह को वहॉं से छुड़वाकर बादल
के साथ चित्तौडग़ढ़ लौट आए। सेनापति गोरा वहीं वीरगति को प्राप्त हो गया। यह सब
देखकर खिलजी ने चित्तौडग़ढ़ पर आक्रमण कर दिया; किन्तु रतन
सिंह के किले के द्वार नहीं तोड़ सका। उसी समय खिलजी के सैनिकों द्वारा किले के
चारों ओर घेराबन्दी कर ली गई ताकि बाहरी आवागमन बन्द हो जाए। इससे थोड़े दिनों बाद
जब किले में खाने पीने की समस्या आने लगी तो राजा को दरवाजा खोल देना पड़ा। राजा
का अन्तिम आदेश था कि वीर सिपाही मरते दम तक लड़ते रहेंगे। इसी युद्ध में राजा भी
वीरगति को प्राप्त हो गया। जब रानी पद्मिनी ने यह समाचार सुना तो उसने आत्मदाह कर
लिया उसके साथ महल की सौलह सौ महिलाओं ने भी अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसी
बलिदान को जौहर कहा गया है।
मेवाड़ की इसी
वीरभूमि पर राणा प्रताप और मुगलों के बीच घमासान युद्ध हुआ। हल्दीघाटी युद्ध के
बाद महाराणा के पास सात सौ सैनिक ही जीवित बचे। थोड़े ही समय के बाद कुम्भलगढ़, गोगुन्दा, उदयपुर और
निकटवर्ती स्थानों पर मुगलों का आधिपत्य हो गया। महाराणा ने गुरल्ला युद्ध की
योजना बनाई और मुगलों को मेवाड़ से बाहर का
मुँह दिखा दिया। यद्यपि अकबर ने महाराणा को अधीन करने के लिए 1578 में
हल्दीघाटी युद्ध के बाद सन् 1577 से 1582 के मध्य एक लाख सैनिकों द्वारा आक्रमण
करवाया गया; किन्तु फिर भी राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता
स्वीकार नहीं की।
राजपुताने के इतिहास में दिवेर का भीषण युद्ध भी विशेष महत्त्व रखता हैं। महाराणा प्रताप की सेना का नेतृत्व महाराज कुमार अमर सिंह कर रहे थे। दिवेर थाने पर आक्रमण किया गया। हजारों मुगल रजपूती अस्त्र-शस्त्रों से रण क्षेत्र में धराशायी हो गए। कहा जाता है कि जब रणभूमि में महाराज कुमार ने सुल्तान खान मुगल को बरछे से आक्रमण किया, तो बरछा सुल्तान खान और उसके घोड़े को काटता हुआ आरपार हो गया। एक अन्य रणवीर ने अपनी तलवार का वार उसके हाथी पर किया, तो उसका पैर कट गया। महाराणा प्रताप ने बहलेखान मुगल के सिर पर तलवार का वार किया तो घोड़े समेत उसका वध कर दिया गया। इस प्रकार इन वीरोचित घटनाओं से मुगल भयभीत हो गए। लगभग 36 हजार बचे हुए मुगल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण किया और दिवेर युद्ध में मुगलों का आत्मबल टूट गया। फलस्वरूप मेवाड़ भूमि पर बनाई गई सभी 36 थानों, ठिकानों तथा कुम्भलगढ़ के किले को रातोंरात खाली कर भाग गए। दिवेर युद्ध के बाद राणा प्रताप ने कुम्भलगढ़, गोगुन्दा, बस्सी, चावण्ड, जावर, भदारिया, मोही, माण्डलगढ़ आदि विशेष ठिकानों पर अपना अधिकार बना लिया। राज्य विस्तार के इस अभियान में राणा ने चित्तोड़ को छोड़कर मेवाड़ के सारे ठिकानों को पुन: स्वाधीन करा लिया।
वस्तुत: दिवेर का
युद्ध राणा प्रताप के लिये यादगार व निर्णायक युद्ध रहा। इस युद्ध के बाद मुगल
इतने भयभीत हो गये कि अकबर की सेना ने भी मेवाड़ पर होने वाले आक्रमण लगभग बन्द कर
दिये। ऐसा बताया जाता है कि हल्दीघाटी युद्ध के बाद राणा प्रताप के खजांची भामाशाह
और उसके भाई ताराचन्द मालवा से दण्ड के 25 लाख रुपये और दो हजार अशर्फियाँ लेकर उपस्थित हुए तभी दिवेर युद्ध की योजना बनाई
गई। इस धनराशि से 25 हजार सैनिकों को 12 साल तक खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाई जा
सकती थी। उसी समय 40 हजार सैनिकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार की गई।
राजपुताने के
रणवीरों का इतिहास बड़ा ही क्रान्तिकारी और चमत्कार पूर्ण रहा है। रणवीरों ने अपनी
आन-बान-शान की रक्षा के लिए जो उत्सर्ग किया है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला हैं।
रणवीरों की शौर्यगाथाओं से मेवाड़ का इतिहास भरा पड़ा है। चित्तौड़ के जयमाल
मेड़तिया ने एक ही झटके में हाथी का सिर काट दिया था। करौली के जादौन राजा जब
सिंहासन पर बैठते थे तो एक साथ दोनों हाथ जिन्दा शेरों पर रखते थे। जोधपुर के राजा
जसवन्त सिंह के बारह वर्षीय पुत्र पृथ्वी सिंह ने औरंगजेब के खूँखार शेर का जबड़ा
पकड़कर फाड़ दिया था। राणा सांगा के शरीर पर अस्सी घाव थे। एक हाथ और एक पैर और एक
आँख नहीं होने पर भी सौ से अधिक युद्ध लड़कर अपना शौर्य प्रस्तुत किया था। आलाजी
भाटी का मुगलों से युद्ध करते समय सिर कट गया था फिर भी कई दिनों तक युद्ध भूमि
में लड़ते रहे। रायमलोत कल्ला का शीश धड़ से अलग हो गया फिर भी लड़ते- लड़ते घोड़े
पर बैठे हुए पत्नी के पास पहुँच गए तभी रानी ने गंगाजल के छींटो से धड़ को शान्त
किया। जयमल राठौड़ पैर कटने के बाद भी कल्ला जी के कन्धों पर बैठकर युद्ध भूमि में
लड़ते रहे।
रणबाँकुरे राजपूतों
के बलिदान की शौर्यगाथाओं को सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है। धन्य है वे रणवीर
जिन्होंने अपनी मान मर्यादा की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग कर राजस्थान की वीर भूमि
को धन्य किया।
सम्पर्क: पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी, पोस्ट-आगूचा, जिला-भीलवाडा, राजस्थान- 311022, मो. 8005691877
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