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Aug 1, 2021

किताबें- मानवीय अनुभूतियों का आकाश

-डॉ. शील कौशिक

समीक्ष्य कृति: ‘उठोआसमान छू लें (काव्य-संग्रह)
कवयित्री: सुदर्शन रत्नाकर 
प्रकाशन: अयन प्रकाशनमहरौली, नई दिल्ली 
पृष्ठ संख्या: 108 मूल्य: 220 रुपये 

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बाहरी आँखें जो कुछ देखती हैंमन की आँखें  उन्हें महसूस करती है। तब हमारे भीतर हलचल मचती है। अनुभूत किए यही पलभाव जब शब्द बन अभिव्यक्त होते हैंतो कविता का रुप ले लेते हैं। मेरी आँखों ने भी समय के आँचल से बहुत कुछ समेटाभावों के बवंडर भीतर उमड़ते रहे और समय-समय पर कविता बनते रहे,’  कविता की रचना प्रक्रिया के संदर्भ  यह कहना है कवयित्री सुदर्शन रत्नाकर जी का। इसमें कोई संदेह नहीं कि रचनाकार अपने समय और संदर्भों का साक्षी होता है और बदलते समय के साथ कवि का स्वर भी बदलता है।
हरियाणा साहित्य अकादमी से सूर पुरस्कार प्राप्त वरिष्ठ व सर्वप्रिय साहित्यकार सुदर्शन रत्नाकर वर्तमान परिदृश्य में किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं। ‘उठोआसमान छू लें’ कवयित्री का चौथा काव्य-संग्रह है। 
उठोआसमान छूने लें’ में अधिकतर कविताएँ नारी-विमर्श की हैं। नारी-विमर्श शताब्दियों के अँधेरे-उजालों को चीरता हुआ वर्तमान समय तक चला आ रहा है। परिस्थितियों में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ है। नारी-विमर्श आज भी साहित्य केन्द्र में है। ‘जीवन भर जीती हैं’ कविता की पंक्तियाँ देखें- “शोषण के प्रश्न पर/ नहीं है कोई वर्ग भेद/ रीता-मीता हो/ या सीता-सावित्री/ सभी एक कटघरे में खड़ी हैं/ अपना-अपना न्याय मांगने/ जो उन्हें कभी नहीं मिलता/ सूनी आँखें/ सूना मन लिए/ वे जीवन भर जीती हैं।” 
तुम्हारा क्या दोष था’ निर्भया के संदर्भ में कवयित्री के मन में गहरा संताप हैजो पीढ़ियों तक हुए स्त्री पर अत्याचार की याद दिलाता है- “तुम नारी की युग पीड़ा बन गई/ युगों से चली आ रही नारी पीड़ा का अंत नहीं- अहल्या ने सहा अभिशाप का दर्द/ सीता की हुई अग्नि परीक्षा/ द्रौपदी बनी साँझी पत्नी/ उर्मिला ने की विरह-तपस्या/ अन्याय सहोतो अन्याय और होता है... इसीलिए बेचारगी का दामन छोड़ दो/ संकल्प दृढ़ होतो होता है पूरा/ जीवन पूरा जियोनहीं अधूरा।
तुममें है’ एक प्रेरक कविता है जो स्त्री की अंतर्निहित शक्तियों को जागृत कर अन्याय के खिलाफ़ खड़े होने का जज़्बा पैदा करती है- “तुममें हैं/ सागर की गहराई/ आसमान की ऊँचाई/ पहाड़ की अटलता/ धरती-सी सहनशीलता/ सूर्य की उष्णता/ दुर्गा की शक्ति/ झरने की निर्मलता/ फिर कहाँ से आई दुर्बलता/ और कहलाईं तुम अबला।
एक आम औरत के रूप में स्त्री सदा ही छली गई हैकविता ‘आम औरत’ की पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं –“औरत को पति का प्यार मिल जाए/ तो वह समर्पित पत्नी है/ ससुराल में अपनापन मिल जाए / तो आदर्श बहू है/ संतान का सुख और सम्मान मिले/ तो ममतामयी माँ है/ नहीं तो यह आम औरत/ एक बँधुआ मजदूर है/ जिसकी कोई रिहाई भी नहीं।
     
स्त्री प्रेमममताकरुणा और समर्पण की मूरत है। स्त्री की पुरुष के सामने समर्पण की गाथा कहती कविता है  ‘पर कब तक’ -चलो समझौता करते हैं/ तुम पहाड़ की नाईं जीते रहो/ मुझे बहने दो नदी की तरह... मैं पार कर लूँगी बाधाएँ/ कंकड़-पत्थर समेट लूँगी सब/ मैं कर सकती हूँ समर्पण भी/ पर बना रहेगा/ मेरा अस्तित्व/ मेरी अस्मिता जब तक।
युवतियों के लिए प्रेरणादायी व शीर्ष कविता है, ‘उठोआसमान छूने लें।’ कवयित्री संयुक्त रूप से आह्वान करती हैं, “अपनी शक्ति को पहचान/ उठआसमान छू ले/ वह तेरा भी है/ पंख फैला और उड़ान भर ले।
पिता के संदर्भ में कवयित्री के मन में भावनाओं का स्रोता फूट-फूट पड़ता है। इस परिप्रेक्ष्य में कविता  पिता तो बरगद हैं’ की पंक्तियाँ अवलोकनार्थ हैं- “मैं नया उगा कीकर का पेड़/ उनकी खामोश आँखों के ख़त/ पढ़ नहीं पाता/ बुलाने पर भी/ पिता के पास नहीं जाता... पर आज भी अपनी छाया के/ आगोश में लेने के लिए/ वे बाँहें फैलाए बैठे हैं/ लेकिन मेरी ही क्षितिज को छूने की/ अंतहीन यात्रा स्थगित नहीं होती।” इसी संदर्भ में एक और अत्यंत भावपूर्ण कविता ‘याद आते हैं’, की पंक्तियाँ देखिए- “मेरे लिए ख्वाहिशों का पिटारा थे पिता/ अभावों में जीते रहे/ पर मेरा आचल भरते रहे/ वटवृक्ष की तरह स्वयं तपते रहे/ पर मुझे छाया देते रहे... पिता का जाना/ कितना दुखदाई होता है... वो जादू का पिटारा बिखर गया/ जो खुशियों से भरा रहता था/ वो जादूगर चला गया/ और मेरा जीवन-मंच रिक्त हो गया।” 
मधुमास के आगमन पर प्रकृति चित्रण कविता ‘उसने कहा था’, में देखते ही बनता है- “वृक्षों ने पीले वस्त्र उतार दिए हैं/ नई कोंपलों ने किया है/ उसका स्वागत... पीली दूब ने सिर उठाना शुरू कर दिया/ कह रही हो जैसे/ हर चुनौती है स्वीकार...  कलियों का मुस्कुरा कर आँखें खोलना... परी-सी तितलियों का साथ... भँवरों की गुंजार...सभी कुछ मधुमास के आगमन पर होता है। 
बुद्ध होने का अर्थ है मोहमायाममता त्याग देना। ‘बुद्धत्व’ कविता की पंक्तियाँ प्रशंसनीय हैं- “उनके कंधे क्या झुके/ फिसल गए थे सारे अधिकार/ अगली पीढ़ी के मजबूत कंधों पर/ अनंत काल से चली आ रही परंपरा में/ पीढ़ी-दर-पीढ़ी/ स्थानांतरित होती रहती विरासत/ और हर पिता बुद्ध होता गया।
दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होते पर्यावरण व प्रकृति के अत्यधिक दोहन के फलस्वरूप कोरोना महामारी का प्रकोप अभी हाल ही में हमने भुगता है। प्रकृति से छेड़छाड़ का असर सुदर्शन जी दैनिक दिनचर्या में महसूस करती हैंइस संबंध में उनकी भावपूर्ण अभिव्यक्ति देखें कविता ‘गोरैया अब आती नहीं’  में-  “वह जो पूरे भूरे-पीले पँखों वाली नन्हीं गोरैया/ अब नहीं आती/ सूरजमुखी का पराग चुन-चुनकर नहीं खाती/ ना ही पेड़ की फुनगी पर बैठकर/ झूला झूलती है... मेरे घर अब धूप नहीं उतरती/ सूरजमुखी मुरझा गए हैं/ पत्तियाँ लहलहाती नहीं और/ दीमक लगे पेड़ की शाखाएँ सूख गई हैं ...इसलिए  गौरैया अब नहीं आती।
कविता का जन्म’ के संदर्भ में कवयित्री का कहना है कि-डूबना होता है मन के गहरे सागर में/ उठते हैं तब संवेदनाओं के ज्वार/ मथे जाते हैंजब व्यथाओंपीड़ाओं के भाटे/ तब निकलते हैं, अथाह मोती/ विष और अमृत के पात्र/  विष कवि स्वयं पीता है/ और अमृत बाँटता है...तभी तो कविता का जन्म होता है।” 
दार्शनिक भाव की सरल लेकिन अनूठी कविता है ‘जीवन का सत्य-  “छोटा-सा बच्चा/ मुस्कुराता है, हँसता हैरोता है/ फिर खिलखिलाता है/ सुख-दुख वह जन्म के साथ लाता है/ जीवन का यही सत्य है/ जो वह सिखलाता है।” 
राजनीतिज्ञों पर तंज कसती संग्रह की एकमात्र कविता है ‘बहुत दिन से’ जिसमें नेता के आगमन पर कैसे दृश्य बदल जाता हैदर्शाया गया है। 
क्षत-विक्षत नगर के काया पर/ कहीं नई सड़कें/ तो कहीं पेबंद लगाए गए/ कफ़न  डालें जाने लगे/ गंदगी के ढेरों को फूल मालाओं से ढाँपा गया/ सब जानते हैं क्षत-विक्षत मुर्दों पर/ कफ़न डालने से लाशें तो ढक जाती हैं/ लेकिन उनसे आती दुर्गंध का क्या... सतर्क हो जाओ/ मत बदलो स्वयं को लाशों में...अपना अधिकार माँगों।
वर्तमान में छीजते रिश्तों की धुंध चारों ओर दिखाई पड़ती है। परस्पर संवाद की परम्परा खत्म हो गई है। कवयित्री की पाठक के मन को उद्वेलित करती कविता है ‘रिश्तों के घनीभूत जंगल-दोस्तों, जंगल बाहर ही नहीं होते/ मन के भीतर भी होते हैं/ गहरे जंगल/ भावनाओं के/ एहसासों के/ दुखउदासीपीड़ा के चुभते हैं कांटे/ खुशियों की शीतल छाया भी देते हैं जंगल/ काटना मत इन जंगलों को/ नहीं तो सूने हो जाएँगे/ मन के ये जंगल... और बिखर-बिखर जाएँगे/ रिश्तो के घनीभूत जंगल।
विदेश में बसे मजदूर की मजबूरी की आँच पाठक महसूस कर सकते हैं कविता ‘बहुत याद आती हैमें- “सबकी बहुत याद आती है/ पिता के कंधे नहीं/ बच्चों की मनुहार नहीं/ अपनी धरती नहीं/ अपना आसमान नहीं/ जीना इतना आसान नहीं/ पर मुझे जीना है उनके लिए/ जिनके साथ बँधा है मेरा जीवन/ दूर रहकर आशाओं के दीप जलते रहें/ उनकी मुस्कानें बनी रहें/ अपने जीवन की सांसे बसाने को।
    
प्रकृति के निरन्तर होते विनाश से सब कुछ बदल गया है। कवयित्री की स्मृतियों में बसा वह स्वच्छसरल वातावरण कहाँ  है अबवह इसी असमंजस में है कि उसे फिर से कैसे पाए... “ठंडी हवाओं की छुअन/ वह रहटों का पानी/ वह पीपल की घनी छाँव/ अपने बचपन का गाँव/ कहाँ से लाऊँ मैं... अब आँगन ही नहीं/ त्रिंजन कहाँ होंगे/ पेड़ नहीं तो झूले कहाँ होंगे/ वैलेंटाइनडे के चाव में बसंत-तीज विलीन हो गए/ टेबल पर मां पिज़्ज़ा-बर्गर परोसती है...अब हर कोई जी रहा है/ अपने-अपने हिस्से की जिंदगी/ संवेदनहीनता के मुखोटे लगाए/ हर क्षण विष के घूँट पी रहा है।
    
समग्रत: ‘उठोआसमान छू लें’ संग्रह की कविताएँ अपने समवेत पाठ में समाज व जीवन के विभिन्न पहलुओं को सूक्ष्म भावों में पिरो कर प्रस्तुत की गई हैं। मुक्त छंद में लिखी इन कविताओं में एक ओर जहाँ वर्तमान की विसंगतियाँ/विडम्बनाएँ हैंतो दूसरी ओर समृद्ध स्मृतियों का पिटारा है। सभी कविताएँ अनुभव की सान पर कसी गई हैं। इन कविताओं की भाषा सरलसहजबोधगम्य है। कविताओं में आंतरिक लय विद्यमान हैजो संप्रेषणीयता को सहज बनाती है। आशा ही नहीं धु्व विश्वास है कि समकालीन हिन्दी कविता परिदृश्य में यह कविता-संग्रह अपनी सार्थक उपस्थिति सुनिश्चित करेगा।

सम्पर्कः  
मेजर हाउस-17,हुडा सेक्टर-20, पार्ट-1,सिरसा125056 हरियाणा।
मो. 94168-47107, इमेल-sheelshakti80@gmail.com

2 comments:

VEER DOT COM said...

सुंदर समीक्षा शील जी। 💐

Sudershan Ratnakar said...

बहुत सुंदर सटीक, सारगर्भित समीक्षा। बधाई एवं आभार शील जी।