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Aug 10, 2019

रक्षाबंधन और संस्कृत दिवस मनाने का पौराणिक महत्त्व

रक्षाबंधन और संस्कृत दिवस
मनाने का पौराणिक महत्त्व
रक्षाबंधन के दिन संस्कृत दिवस को मनाने का पौराणिक महत्त्व है। ये पंरपरा हमारे ऋषि-मुनियों से जुड़ी होने की वजह से बेहद खास है। जानें- क्या है ये वजह और क्यों मनाते हैं संस्कृत दिवस?इस बार स्वतंत्रता दिवस और रक्षाबंधन का पर्व एक साथ मनाया गया। क्या आप जानते हैं कि इसी दिन संस्कृत दिवस भी मनाया गया? ये कोई पहली बार नहीं है, संस्कृत दिवस हमेशा ही रक्षाबंधन के दिन ही मनाया जाता है। दरअसल भारतीय संस्कृति में इसका पौराणिक महत्त्व है। ये परंपरा हमारे ऋषि-मुनियों से जुड़ी होने की वजह से और खास बन जाती है। जानें- क्या है इन दोनों पर्व का महत्त्व?
समर्पण का पर्व
संस्कृत- दिवस, प्रतिवर्ष सावन की पूर्णिमा के मौके पर मनाया जाता है। इसी दिन रक्षाबंधन भी मनाया जाता है। सावन की पूर्णिमा को ऋषियों के स्मरण तथा पूजा और समर्पण का पर्व भी माना जाता है। बताया जाता है कि गुरुकुल में वेद पढ़ने वाले छात्रों को इसी दिन यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण कराया जाता है। जनेऊ धारण करने वाले लोग इसी दिन पुराने जनेऊ को भी बदलते हैं। इस संस्कार को उपनयन या उपाकर्म संस्कार भी कहा जाता है। ऋषि और ब्राह्मण इसी दिन यजमानों को रक्षासूत्र बाँधते थे।चूँकि ऋषि ही संस्कृत साहित्य के जनक और इसे आगे बढ़ाने वाले माने जाते इसलिए इस दिन को संस्कृत दिवस के तौर पर भी मनाया जाता है।
1969 से हुई थी संस्कृत दिवस की शुरूआत
संस्कृत भाषा के संरक्षण और इसे बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने 1969 से इसकी शुरूआत की थी। संस्कृति दिवस का आयोजन केंद्रीय तथा राज्य स्तर पर किया जाता था, तभी से पूरे देश में संस्कृत दिवस मनाने की परंपरा शुरू हुई थी। ये भी मान्यता है कि इसी दिन से प्राचीन भारत में नया शिक्षण सत्र शुरू होता था। गुरुकुल में छात्र इसी दिन से वेदों का अध्ययन शुरू करते थे, जो पौष माह की पूर्णिमा तक चलता था। पौष माह की पूर्णिमा से सावन की पूर्णिमा तक अध्ययन बंद रहता था। आज भी देश में जो गुरुकुल हैं, वहाँ सावन माह की पूर्णिमा से ही वेदों का अध्ययन शुरू होता है।
आईटी इंजीनियरों का संस्कृत भाषी गाँव
कर्नाटक की राजधानी बैंगलुरू से तकरीबन 300किमी दूर मौजूद मत्तूर गाँव देश का एकमात्र संस्कृत भाषी गाँव है। यहाँ के लोग दैनिक जीवन से लेकर आम बोलचाल में भी संस्कृत भाषा का ही प्रयोग करते हैं। मतलब संस्कृत इस गाँव के लोगों के लिए रोजमर्रा की जुबान है। फिर चाहे वह बच्चा हो, बड़ा हो या बुजुर्ग या फिर अमीर अथवा गरीब। इस गाँव में संस्कृत भाषा ने जाति-धर्म समेत सभी बैरियर तोड़ दिए हैं। यही वजह है कि यहाँ के हिन्दु और मुस्लिम सभी संस्कृत बोलते हैं।
सुषमा स्वराज ने संस्कृत में दिया था भाषण
दिवंगत भाजपा नेता और पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के एक पुराने ट्वीट से पता चलता है कि एक बार उन्होंने यहाँ एक जनसभा की थी। इस जनसभा में उन्होंने संस्कृत भाषा में पूरा भाषण दिया था। सुषमा स्वराज ने इस बारे में ट्वीट कर खुशी भी व्यक्त की थी। उन्होंने ऐसा, यहाँ के लोगों का संस्कृत भाषा के प्रति सम्मान और लगाव देखकर किया था। संस्कृत में भाषण देने की वजह से उन्होंने लोगों का दिल जीत लिया था।
ऐसे हुई संस्कृत भाषी गाँव की शुरूआत
कर्नाटक के मत्तूर गाँव के संस्कृत भाषी बनने की शुरूआत वर्ष 1981-82 में हुई थी। तब तक इस गाँवमें कन्नड़ भाषा ही बोली जाती थी, जो यहाँ के राज्य की सरकारी भाषा है। कुछ लोग तमिल भाषा भी बोलते थे। स्थानीय लोगों के अनुसार इस गाँव को संस्कृत भाषी बनाने की शुरूआत, इस भाषा के खिलाफ शुरू हुए अभियान के साथ ही हुई थी। दरअसल, कुछ लोग संस्कृत को ब्राह्मणों की भाषा बताकर उसकी आलोचना और खिलाफत करने लगे थे। यही वजह है कि अचानक संस्कृत की जगह कन्नड़ को दे दी गई। यहीं से संस्कृत भाषा को बचाने का अभियान शुरू हुआ, जो यहाँ के लोगों के लिए अपनी जड़ों को बचाए रखने जैसा है।
इन्होंने की थी शुरूआत
संस्कृत भाषा की कम होती लोकप्रियता और इसके विरोध को देखते हुए पेजावर मठ के स्वामी ने सबसे पहले मत्तूर को संस्कृत भाषी गाँव बनाने का आह्वान किया था। इसके बाद गाँव के लोगों ने संस्कृत भाषा में ही बात करने का निर्णय लिया और इसके खिलाफ चल रहे नकारात्मक प्रचार को सकारात्मक रुख दे दिया। स्थानीय लोग बताते हैं कि पेजावर मठ के स्वामी की अपील पर गाँव के लोगों ने 10 दिन तक दो घंटे संस्कृत भाषा का अभ्यास किया। इसके बाद पूरा गाँव संस्कृत में बातचीत करने लगा। अब संस्कृत यहाँ की आम बोलचाल की भाषा हो चुकी है। यहाँ के बच्चे भी संस्कृत में ही बात करते हैं। इसके अलावा ये लोग स्थानीय बोली संकेथी का भी इस्तेमाल करते हैं।
संस्कृत पहली भाषा है
3500 की जनसंख्या वाले इस गाँव के छात्र भी संस्कृत को पहली भाषा के तौर पर चुनते हैं। मालूम हो कि कर्नाटक के स्कूलों में त्रिभाषा सूत्र के तहत तीन भाषाएँ चुनने का विकल्प दिया जाता है। ऐसे में छात्र पहली भाषा के तौर पर संस्कृत का ही चुनाव करते हैं। दूसरी भाषा के तौर पर ज्यादातर छात्र अंग्रेजी और तीसरी भाषा के तौर पर कन्नड़, तमिल या किसी अन्य स्थानीय भाषा को तरजीह देते हैं।
यहाँ हर घर में है इंजीनियर
संस्कृत भाषी गाँव सुनकर बहुत से लोग इस इलाके के पिछड़े हुए या रूढ़िवादी अथवा पुरातन विचारधारा का होने का अनुमान लगा सकते हैं, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। यहाँ के लोग जितनी अच्छी संस्कृत बोलते हैं, उतनी ही अच्छी अंग्रेजी या अन्य स्थानीय भाषाएँ भी जानते हैं। यहाँ के एक नागरिक इमरान के अनुसार, संस्कृत आने के बाद कन्नड़ या अन्य स्थानीय भाषाओं को समझने में मदद मिलती है। साथ ही अंग्रेजी और विज्ञान जैसे विषयों को समझने में भी मदद मिलती है। यही वजह है कि यहाँ के लगभग हर घर में कोई कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर या मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर चुका है। इन लोगों का कहना है कि संस्कृत भाषा इनके लिए किसी भी मोर्चे पर बाधक नहीं बनी।
संस्कृत सीखने के फायदे
यहाँ के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर शशांक बताते है कि उन्होंने वैदिक गणित पढ़ी है। इससे उन्हें काफी मदद मिली है। उनके साथ के लोग कैल्कुलेटर का प्रयोग करते हैं, जबकि उन्हें इसकी जरूरत नहीं पड़ती है। प्रोफेसरश्रीनिधि बताते हैं कि हमें संस्कृत बोलने की जरूरत है। संस्कृत सीखने से हमें केवल भारतीय भाषाओं को समझने में मदद मिलती है, बल्कि जर्मन और फ्रेंच जैसी विदेशी भाषाओं को भी सीखने में मदद मिलती है। यहाँ के बहुत से लोग नौकरी-पेशे की वजह से विदेशों में रह रहे हैं, लेकिन जब भी कभी वह अपने गाँव लौटते हैं बड़े गर्व से संस्कृत भाषा में आपस में बात करते हैं।
संविधान में 22 भाषाओं को मिली है मान्यता
भारत के अलग-अलग हिस्सों में तकरीबन 1600बोलियाँ या भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से 22 भाषाओं को संविधान में मान्यता मिली हुई है। वर्ष 2003 में चार नई भाषाओं को संविधान संशोधन कर मान्यता दी गई। इससे पहले संविधान में केवल 18 भाषाओं को ही मान्यता प्राप्त थी। जिन्हें संविधान में जगह नहीं मिला है, उन्हें बोली कहा जाता है। 2011 की जनणना में देश में लगभग 122 भाषाएँ दर्ज की गईं थीं। संविधान में जिन 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है, उसमें हिन्दी, अंग्रेजी, असमी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओड़िया, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलगु और उर्दू शामिल है।
संस्कार भारती देती है संस्कृत का प्रशिक्षण


कर्नाटक के मत्तूर गाँव को संस्कृत भाषी बनाने में संस्कार भारती नाम की संस्था का भी अहम योगदान है। संस्कार भारती एक शैक्षणिक संस्था है ,जो पाँच हजार से ज्यादा लोगों को संस्कृत बोलना, लिखना और पढ़ाना सिखाती है। संस्कार भारती ने पूर्व में मीडिया में दिए बयानों में कहा था कि वह यह काम विश्व की प्राचीनतम भाषा को बचाने और उसे सम्मान देने के लिए कर रही है। एक स्थानीय निवासी के अनुसार गाँव के बच्चे आठ वर्ष की आयु से ही वेदों का अध्ययन शुरू कर देते हैं।
दूर-दूर से लोग आते हैं इस गाँव
कर्नाटक का मत्तूर गाँव,देश ही नहीं बल्कि दुनिया के लिए किसी अजूबे से कम नहीं है। यही वजह है कि हिस्ट्री चैनल समेत कई अन्य संस्थान इस गाँव पर डॉक्यूमेंट्री बना चुके हैं। बताया जाता है कि इस गाँव में होटल वगैरह नहीं है, फिर भी देश-दुनिया से लोग इस गाँव को देखने आते हैं। काफी संख्या में बाहर के राज्यों देशों से लोग यहाँ संस्कृत सीखने भी आते रहते हैं। (जागरण से)

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