पिता और मैं
पिता और मैं
- डॉ.आरती स्मित
यादों की अलगनी पर
जब टाँगती हूँ बचपन
झड़ते हैं अनमोल पल
दिखते हैं पिता
एक-एक पल चुनते हुए
सहेज कर रखते हुए......
मैं मूँछें खीँचती हूँ
खिल उठती है कली
उनके होंठों पर
भोजन की थाली पर
कौर बाँधे बैठे हैं पिता
मेरे इंतज़ार में
दफ़्तर को जाते पिता
मुझे देते दस पैसे की रिश्वत
कि जाने दूँ उन्हें
ढलती साँझ, दस्तक देते पिता
पुकारते मेरा नाम
मानो और नाम याद नहीं
सेंध मारता कैशोर्य
गुपचुप छूटता बचपन
छूटता पिता का साथ
अब, पिता हैं - मैं हूँ
बीच में है झीनी दीवार
मध्यवर्गीय वर्जनाओं की
पिता बोलते हैं, बतियाते हैं
बस सीने से नहीं लगाते
मैं, अब बड़ी हो रही हूँ।
सम्पर्क: डी 136, गली न. 5, गणेशनगर पांडवनगर कॉम्प्लेक्स ,दिल्ली -92, मो. 8376836119 , email- dr.artismit@gmail.com
Labels: कविता, डॉ. आरती स्मित
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