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Oct 29, 2011

लघुकथाएँ - डॉ. करमजीत सिंह नडाला

1. भूकंप
बेटा सोलह वर्ष का हुआ तो वह उसे भी अपने साथ ले जाने लगा।
'कैसे हाथ- पाँव टेढ़े- मेढ़े कर चौक के कोने में बैठना है, आदमी देख कैसे ढीला-सा मुँह बनाना है। लोगों को बुद्धू बनाने के लिए तरस का पात्र बनकर कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है। ऐसे बन जाओ कि सामने से गुजर रहे आदमी का दिल पिघल जाए और सिक्का उछलकर तुम्हारे कटोरे में आ गिरे।'
वह सीखता रहा और जैसा पिता कहता वैसा बनने की कोशिश भी करता रहा। फिर एक दिन पिता ने पुत्र से कहा, 'जा, अब तू खुद ही भीख माँगा कर।'
पुत्र शाम को घर लौटा। आते ही उसने अपनी जेब से रुपये निकाल कर पिता की ओर बढ़ाए, 'ले बापू, मेरी पहली कमाई।'
'हैं! कंजर पहले दिन ही सौ रुपये! इतने तो कभी मैं आज तक नहीं कमा कर ला सका, तुझे कहाँ से मिल गए?'
'बस ऐसे ही बापू, मैं तुझसे आगे निकल गया।'
'अरे कहीं किसी की जेब तो नहीं काट ली?'
'नहीं, बिलकुल नहीं।'
'अरे आजकल तो लोग बड़ी फटकार लगाकर भी आठ आने- रुपया बड़ी मुश्किल से देते हैं, तुझ पर किस देवता की मेहर हो गई?'
'बापू, अगर ढंग से माँगो तो लोग आप ही खुश हो कर पैसे दे देते हैं।'
'तू कौन से नए ढंग की बात करता है, कंजर! पहेलियाँ न बुझा।
पुलिस की मार खुद भी खाएगा और हमें भी मरवाएगा। बेटा, अगर भीख माँग कर गुजारा हो जाए तो चोरी-चकारी की क्या जरूरत है। पल भर की आँखों की शर्म है, हमारे पुरखे भी यही कुछ करते रहे हैं, हमें भी यही करना है। हमारी नसों में भिखारियों वाला खानदानी खून है हमारा तो यही रोजगार है, यही कारोबार है। ये खानदानी रिवायतें कभी बदली हैं? तू आदमी बन जा। '
'बापू, आदमी बन गया हूँ, तभी कह रहा हूँ। मैंने पुरानी रिवायतें तोड़ दी हैं। मैं आज राज मिस्त्री के साथ दिहाड़ी कर के आया हूँ। एक कालोनी में किसी का मकान बन रहा है। उन्होंने शाम को मुझे सौ रुपये दिए। सरदार कह रहा था, रोज आ जाया कर, सौ रुपये मिल जाया करेंगे।'
पिता हैरान हुआ कभी बेटे की ओर देखता, कभी रुपयों की ओर। यह लड़का कैसी बातें कर रहा है! आज उसकी खानदानी रियासत में भूकंप आ गया था, जिसने सब कुछ उलट- पलट दिया था।

2 . बाहर का मोह

वह ससुरी कहाँ मानने वाली थी। उसके सिर पर तो बाहर का भूत सवार था। कैनेडा रहते पति ने फोन पर कहा, 'तू जिद न कर। घर पर माँ-बाउजी व बच्चों को सँभालने की जिम्मेदारी तेरी है। मैंने लौट ही आना है साल बाद। बाहर सैर- सपाटा नहीं है। यहाँ तो सिर खुजलाने तक का वक्त नहीं मिलता। यहाँ बेकार की कोई रोटी नहीं देता। हाँ, गर तू वहाँ नहीं रह सकती तो तुझे कोई न कोई कोर्स करना पड़ेगा। फिर ही तुझे यहाँ आने का फायदा है।'
वह शहर जाने लगी। सुबह तैयार हो, सज- संवर कर चल पड़ती। पीछे बूढ़े सास- ससुर, बहू की डाँट से डरते चूल्हा- चौका भी करते और उसके बच्चों को भी सँभालते।
'यार! यह संत सिंह की बहू रोज सज- संवर कर किधर जाती है? घर पर सास- ससुर को तो कुत्ते-बिल्ली समझती है।' एक दिन बहू को गली में जाते देख एक आदमी ने दूसरे से कहा।
'कहते हैं, शहर जाती है वहाँ कोई कोर्स-कूर्स करती है, कहते हैं फिर बाहर जाकर काम आसानी से मिल जाता है।'
'कोर्स! अब? दो बच्चों की माँ होकर कौनसा कोर्स करने चली है? घर तो ठीक- ठाक है, खाने-पीने को सब कुछ है, बाहर से घरवाला काफी पैसे भेज रहा है, सौ सुविधाएँ हैं।'
'सुना है कोई नैनी का कोर्स कर रही है।'
'नैनी! यह क्या बला हुई?'
'अरे तुझे नहीं पता! उधर कैनेडा में सभी लोग अपने काम पर चले जाते हैं। पीछे उनके बूढ़े और बच्चों के नाक- मुँह पोंछा करेगी, सेवा सँभाल करेगी और क्या।'
'अच्छा यह कोर्स इसलिए होता है दुर फिटे- मुँह हमारे लोगों के। यहाँ से जाकर गोरों के बच्चे-बूढ़े सँभालते हैं। इससे तो अच्छा है कि अपने बच्चों और सास- ससुर को सँभाल ले ससुरी कैनेडा की।'

2 comments:

दिलबागसिंह विर्क said...

सुंदर लघुकथाएँ
पहली लघुकथा यहाँ इज्जत की रोटी खाने का संदेश देती है, वहीं दूसरी लघुकथा विदेशों में प्रवासियों की दशा का चित्रण करती है

दीपक 'मशाल' said...

हालांकि पहली लघुकथा पूर्व में भी कहीं पढ़ी थी, लेकिन दोनों ही लघुकथाएं बार-बार पढ़ने योग्य हैं. बधाई..